बुधवार, 20 अगस्त 2025

श्रधांजलि : लेफ्टिनेंट भारती आशा सेन सहाय, सदस्य रानी झाँसी ब्रिगेड, आजाद हिन्द फौज

 

विद्या भूषण रावत 


नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्रतिष्ठित नायको  में से एक हैं। आज भी, उनके साहसिक और देशभक्ति से भरे किस्से सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हालांकि, भारतीय राजनीतिक वर्ग ने उनके विचारों और उद्देश्यों के विषय में हमेशा भ्रम की स्थिति रखी  जिसके परिणामस्वरूप दक्षिणपंथी 'कथावाचकों' द्वारा उनके विचारों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई है। नेताजी भाररतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे जीवंत पक्ष की और इशारा करते हैं लेकिन उनके जापान और जर्मनी जाने के फलस्वरूप 'उदारवादी' ओर 'वामपंथी' दोनों ही किस्म के इतिहासकारों ने उनके संघर्ष को इतिहास के पन्नो से गायब करने की कोशिश की है. आज इतने वर्षो बाद लोगो के केवल उनके बलिदान को याद करने को कहा जाता है लेकिन उनके जीवन मूल्यों को गायब कर दिया गया है. खैर, इन प्रश्नों पर मै कभी विस्तार पूर्वक बात रखूंगा लेकिन इस समय तो केवल लेफ्टिनेंट आशा सहाय चोधरी  और उनकी वार डायरी को याद करने का है. आशा जी का गत १३ अगस्त २०२५ को पटना के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया. वह ९७ वर्ष की थी. 

आशा जी को हम 'नेताजी के एक अनुयायी और रानी झांसी रेजिमेंट की सदस्य  के रूप में जानते हैं और अधिकांश लोगो को वह आशा सान या लेफ्टिनेंट भारती आशा सहाय के  नाम से जाना जाता है. बात यह नहीं थी की उन्होंने १५ वर्ष की आयु में नेताजी से मिलकर आज़ाद हिन्द फौज में शामिल होने की इच्छा ब्यक्त की अपितु १९४३ से १९४७ के मध्य यानी जिस दौर में नेताजी जापान में थे और अपने जीवन और हमारे इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण कालखंड में थे, उसके महत्वपूर्ण पालो को हर रोज एक डायरी के तौर पर आशा जी ने लिखा और सहेज कर रखा.  आशा जी पटना में रहती थीं  मैं उनसे मिलना चाहता था, लेकिन मुझे कभी नहीं पता था कि वे पटना में रह रही थीं और अभी जीवित थीं। फिर भी, मैं उन्हें उनकी युद्ध डायरी 'द वॉर डायरी ऑफ आशा-सान' के माध्यम से याद करता हूँ, जो 2022 में हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित की गई थी और इसका  अंग्रेजी अनुवाद तन्वी श्रीवास्तव ने किया था। ये डायरी बेहद महत्वपूर्ण है जो नेताजी के अंतिम दिनों और जापान के सरेंडर के बाद वहा मौजूद हालातो की जानकारी देता है. 

आशा सान की युद्ध डायरी वास्तव में नेताजी के अंतिम दिनों के बारे में रहस्य बनाए रखने वालों और जवाहरलाल नेहरू द्वारा उनके करीबी लोगों के साथ किए गए व्यवहार के बारे में कई बातें उजागर करती है। सबसे आकर्षक हिस्सा 1945 में जापान के आत्मसमर्पण के तुरंत बाद की स्थिति और नेताजी के निधन की खबर का जीवंत वर्णन है, जिसे आज तक जनता ने स्वीकार नहीं किया है, हालांकि नेताजी के  परिवार के अधिकांश लोगो ने 18 अगस्त, 1945 को उनकी 'गायब होने' की तारीख  को ही उनके निधन के रूप में स्वीकार कर लिया है जिसमे उनके पुत्री अनीता बोस फाफ भी शामिल है.  यह युद्ध डायरी वास्तव में 1943 से 1947 तक की अवधि को कवर करती है और इसमें उल्लिखित कई बातें  भारत के साहित्य और इतिहास के क्षेत्र को लोगो में अनजानी ही रही है. आश्चर्य की बात यह है की नेताजी की मृत्यु को रहस्यात्मक बनाने में सरकार और राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा योगदान है लेकिन अब इस बात से पर्दा हटाकर उनकी पवित्र रख को जापान से भारत लाने की बात करनी चाहिए. 

आशा जी की डायरी के अनुसार, उन्होंने 23 अगस्त, 1945 की सुबह नेताजी की मृत्यु की खबर सुनी, लेकिन उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया। उनके अनुसार,  उन्होंने नेताजी  का 14 अगस्त को दिया गया भाषण सूना  था, जिसमें उन्होंने कहा था, "कॉमरेड, शोनन और अन्य जगहों पर अब तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं, जिनमें से एक यह है कि युद्धविराम हो गया है। इनमें से अधिकांश अफवाहें या तो झूठी हैं या बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण हैं।"

15 अगस्त, 1945 को नेताजी ने कहा, "हमारे देश की आजादी के लिए हमने कई बाधाओं का सामना किया है और आगे भी करते रहेंगे। हमारा संघर्ष इसलिए खत्म नहीं होता क्योंकि जापान ने सफेद झंडा उठा लिया है या परमाणु बम गिराए गए हैं। दिल्ली तक जाने के कई रास्ते हैं और हमें अपने कर्तव्य को कभी नहीं भूलना चाहिए। हमें देशभक्त के रूप में अपने कर्तव्य को दृढ़ता के साथ पूरा करना होगा।"

 फिरलेकिन धीरे धीरे आज़ाद हिन्द फौज और सरकार के सभी लोगो ने उनकी मृत्यु को स्वीकार कर लिया और उसकी जानकारी के विषय में आशा जी ने अपनी  डायरी में जीवंत रूप से वर्णन किया गया है कि कैसे लोगों ने उनके निधन की दुखद खबर को स्वीकार किया। दुखद बात यह है कि आज तक भारत सरकार ने नेताजी के निधन को स्वीकार नहीं किया है, भले ही उनके अधिकांश परिवारजनों ने 18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना की कहानी को स्वीकार कर लिया है।

 आशा  का जन्म  2 फ़रवरी 1928 में जापान के शहर कोबे में हुआ था। उनके पिता आनंद सहाय भागलपुर से थे और डॉ. राजेंद्र प्रसाद और महात्मा गांधी के साथ जुड़े हुए थे। बाद में वे जापान में रास बिहारी बोस के संपर्क में आए और इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के गठन में मदद की। इस प्रकार आनंद सहाय इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के संस्थापक सचिव बने.  नेताजी सुभाष चंद्र बोस जापान पहुंचे, तो आनंद सहाय उनके करीबी हो गए और नेताजी द्वारा गठित आजाद हिंद की अस्थायी सरकार का हिस्सा बने। उनकी मां सती सेन सहाय देशबंधु चित्तरंजन दास की भतीजी थीं। अपने परिवार के सदस्यों की तरह आशा भी नेताजी से बहुत प्रभावित थी और आजाद हिन्द फौज का हिस्सा बनना चाहती थी लेकिन १५ वर्ष की आयु में नेताजी ने उन्हें आजाद हिन्द में शामिल करने के इनकार कर दिया और दो वर्ष इंतज़ार करने को कहा. फिर मै १९४५ में वह नेताजी से फिर से जापान में मिली तो उन्हें  आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त हुआ था और तब से वह लेफ्टिनेंटभारती आशा सहाय के नाम से जानी जाने लगी. अपने जीवन के लगभग १९ वर्ष उन्होंने जापान में व्यतीत किये इसलिए उनकी मात्र भाषा जापानी ही थी हालाँकि वह हिंदी से भी अच्छे से वाकिफ थी क्योंकि आज़ाद हिन्द फौज की नीति भी हिन्दुस्तानी को आगे बढाने की थी.  

लेफ्टिनेंट आशा सेन सहाय ने एक प्रेरणादायक जीवन जिया और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपनी युद्ध डायरी के माध्यम से हमारे राष्ट्रीय इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय को, जो औपनिवेशिकता के खिलाफ हमारे संगर्ष का एक बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है  जिसे अक्सर इतिहासकारों ने नजरंदाज किया है। हमें इतिहास को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखने की जरूरत है, न कि केवल अपनी स्थिर दृष्टि से जो सत्ताधारियो की अवसरवादिता के अनुसार हो. 

आजाद हिन्द सरकार और फौज के अधिकांश सदस्य जापान और सिंगापूर में गिरफ्तार किये जा चुके थे और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और विशेषकर जवाहर लाल नेहरु के प्रयासों और हस्तक्षेप के बाद वे रिहा किये गए. इनमे से बहुत से लोगो को नेहरु ने विभिन्न पदों और मंत्रालयों में महत्वपूर्ण हिम्मेवारिया दी. इस पर कभी बाद में चर्चा करूंगा.

मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आदर्शवाद को अपनाने से भारत को बहुत लाभ होगा। वे शानदार विचारों और राष्ट्र के प्रति गहरी निष्ठा के व्यक्ति थे। हमारे समय में कोई अन्य राजनीतिक हस्ती ऐसी नहीं थी, जिसने अपने द्वारा बनाई गई हर संरचना में इतनी विविधता को शामिल किया हो। नेताजी की आजाद हिंद सरकार वास्तव में विविधता की शक्ति को दर्शाती थी। उनका समाजवाद का दृष्टिकोण भी हम सभी के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है।

,लेफ्टिनेंट भारती आशा सेन सहाय   को हमारी विनम्र श्रीधांजलि.

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

धराली की चुनौती और ध्वस्त होता विकास का नैरेटिव

क्या पर्वतीय क्षेत्रो को अनुसूची ५ या ६ में डालकर उनके विशेष चरित्र को बचाया जा सकता है ?


विद्या भूषण रावत


5 अगस्त, 2025 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में धराली गांव को पूरी तरह से बहा ले जाने वाली हिमस्खलन ने भारत में मीडिया को गंभीर रूप से ध्रुवीकृत वर्ग के रूप में उजागर कर दिया है. साथ ही विभिन्न पार्टियों की राजनीतिक नेतृत्व को भी, जो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे यह पहली बार हुआ है और दोबारा नहीं होगा।  एक तरफ 'राष्ट्रीय मीडिया' है, जिसे मैं हमेशा जातिवादी मनुवादी मीडिया कहता हूं, जो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी का मुख पत्र  या प्रचार तंत्र के तौर पर व्यवहार कर रहा है और इस घटना को 'पीपली लाइव' की  तरह दिखा रहा है क्योंकि सामूहिक विनाश  की लाइव कहानियां भी  इन लाभ कमाने वाली कंपनियों के लिए टीआरपी लाती हैं। इन दिनों प्रचार मीडिया को हमेशा राष्ट्रीय  मीडिया पर प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वे सभी सुविधाओं के साथ जाते हैं और राज्य तंत्र भी उनका ख्याल रखता है ताकि वे 'ब्रेकिंग न्यूज' प्रसारित कर सकें। फोकस ज्यादातर 'एक्शन' को लाइव प्रसारित करने पर होता है। ज्यादातर समय, हम जेसीबी मशीन काम करते हुए या सेना के हेलीकॉप्टर लोगों को ले जाते हुए देखते हैं और फिर लोग सरकार और अधिकारियों को 'सहायता' प्रदान करने के लिए धन्यवाद देते हैं। इसलिए, सब कुछ इतना प्रभावशाली बना दिया जाता है कि किसी के पास सरकार से  कोई भी  प्रश्न पूछने का समय नहीं होता। निश्चित रूप से, यह अच्छा है कि सरकार लोगों को राहत प्रदान करने के लिए रात दिन एक कर रही है, लेकिन लापता  या मृत लोगों की सटीक संख्या का अधिकारिक आंकडा अभी तक क्यों नहीं आ पाया  है। सरकार स्थानीय मीडिया को घटना को कवर करने की अनुमति क्यों नहीं दे रही है। यह 'राष्ट्रीय' मीडिया को सभी 'सेवाएं' खुशी से क्यों प्रदान कर रही है। वास्तव में, देहरादून में स्थित कुछ 'स्थानीय' मीडिया को भी ऊपर से वीडियो शूट करने का अवसर मिला, लेकिन इस पूरे समय  में, सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वे लोग निभा रहे हैं जिन्हें हम 'यूट्यूबर' कहते हैं, जिन्हें बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया है, लेकिन यह वे हैं जिन्होंने पूरे क्षेत्र की अनसुनी कहानियों को लाने के लिए कठिन इलाके में पैदल यात्रा की। उन्होंने उत्तरकाशी से धराली तक खतरनाक परिस्थितियों में चलकर रिपोर्टिंग की। इनमें से अधिकांश साथी 'पत्रकार' भी नहीं कहलाते। वे उत्तरकाशी से धराली तक पैदल पहुंचने के अपने साहसी  प्रयासों के लिए प्रशंसा के पात्र हैं, खासकर जब बारिश जारी रही और राष्ट्रीय राजमार्ग नाम मात्र का रह गया और पूरी तरह से भागीरथी में समा गया। इन सोशल मीडिया रिपोर्टरों या प्रभावकों ने कथित राष्ट्रीय पीआर एजेंटों की तुलना में कहीं बेहतर रिपोर्टिंग की है, जिनके पास सरकार और अधिकारयो से  प्रश्न पूछने का समय नहीं था। बल्कि, हर मीडिया हाउस हमें बता रहा है कि उनके रिपोर्टर 'धराली' पहुंचने वालो में सबसे  'पहले' थे। एकमात्र असुविधाजनक प्रश्न जो पूछा जा रहा है, वह यह है कि स्थानीय लोगों ने नदी के किनारे पर कब्जा कर  घर और होटल बनाए और इसलिए यह हादसा  हुआ। सरकार की नीतियों के बारे में कुछ नहीं जो इस तरह की  मास टूरिज्म को बढ़ावा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस तरह का निर्माण हुआ। सवाल यह भी की ऐसे निर्माणों को  अधिकृत करने के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या ऐसे निर्माण की अनुमति देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी? क्या सरकार के हलकों में जलवायु संकट की बढ़ती चुनौती  के बारे में कोई बहस है और हमें जलवायु अनुकूल समाधानों की आवश्यकता क्यों  है। क्या वे हमारे पहाड़ो  की भारी ड्रिलिंग और खुदाई पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं? क्या इस पर बहस होगी कि  हमारी नदियों की क्या स्थिति है ? ये भी महत्वूर्ण है कि आखिर  'विकास की गंदगी' कहां जा रही है? यानि विकास से जो मलबा निकल रहा है उसका निष्पादन कैसे हो रहा है ? क्या वो हमारी पवित्र नदियों में नहीं फेंका जा रहा है ?  क्या हम व्यवसायिक धार्मिक पर्यटन पर कोई चिंतन करेंगे कि आखिर एक समय में उत्तराखंड कितने लोगो को संभाल सकता है. आखिर हमारे पर्वतीय क्षेत्र एक समय में कितने लोगो या भक्तो को झेल पाएंगे इसके लिए क्या कोई सीमा घोषित की गयी है ?  चारधाम से अब कितने टन मानव मल और अन्य कचरा बहता है? इन पर एक निष्पक्ष चर्चा की कल्पना करें। कोई भी उत्तराखंड और चारधाम के धार्मिक महत्व को नकार नहीं सकता, लेकिन उसका सम्मान किया जाना चाहिए। कोई भी योजना चाहे धार्मिक हो या गैर-धार्मिक, पर्यटन हो या विकास, स्थानीय परंपराओं, भावनाओं के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रश्नों की अनदेखी करके आगे नहीं बढनी चाहिए। आप धर्म के नाम पर मास टूरिज्म को बढ़ावा नहीं दे सकते जो क्षेत्र की पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी को और अधिक बोझिल और बाधित कर रहा है । हमें समझना चाहिए कि ये क्षेत्र केवल धार्मिक महत्व के नहीं हैं बल्कि भारत की जीवन रेखा भी हैं। हिमालय हमारी नदियों का श्रोत है और गंगा हमारी विरासत है जो हिमालय को सुंदरबन से जोड़ती है। इसके अलावा, उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है और एक नहीं बल्कि दो देशों- चीन और नेपाल के साथ जिससे इस क्षेत्र का सामरिक महत्त्व और भी अधिक हो जाता है. 

धाराली की त्रासदी से बहुत से सवाल खड़े हो गए हैं जिन पर सार्थक विमर्श की आवश्यकता है.  सबसे महत्वपूर्ण बात यह की आखिर मौसम के पूर्वानुमान में ऐसी खतरनाक घटनाओं की जानकारी क्यों नहीं प्राप्त हो रही है। हालांकि 2013 में केदारनाथ तबाही के बाद, हमने बहुत शोर सुना लेकिन कुछ भी ज्यादा नहीं हुआ सिवाय मौसम के बारे में कुछ चेतावनी संदेशों के। लेकिन ग्लेशियल झील के फटने या क्लाउड बर्स्ट की संभावना के बारे में लोगों को अग्रिम चेतावनी देने में यह क्यों विफल रहा। अधिकारियों ने खीरगाड़ के ऊपरी हिस्सों में संभावित ग्लेशियल झील के गठन की पप्रारंभिक जानकारी  प्राप्त करने में क्यों सक्षम नहीं हो सके। वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी गई। निश्चित रूप से इस झील का गठन एक दिन की बात नहीं थी? क्या इसे उत्तराखंड हिमालय के आसपास विशेषज्ञों की टीम द्वारा नियमित रूप से मॉनिटर नहीं किया जा सकता. क्या उत्तराखंड और अन्य हिमालयी क्षेत्रो में इस प्रकार की घटनाओ की पुनरावृति रोकने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय नहीं ली जा सकती या उन्हें  इस कार्य को  सेना के हेलीकॉप्टरों के माध्यम से लगातार मॉनिटर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती ? सैटेलाईट के फोटो महत्वपूर्ण  हैं लेकिन सरकार को इसे स्थानीय स्तर पर भी करना चाहिए। यह घटना हमें फरवरी 2021 की ऋषिगंगा-धौलीगंगा तबाही की याद दिलाती है जिसमें एक पावर प्रोजेक्ट के साथ-साथ उसमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर बह गए।

वास्तव में, धराली की घटना 'होने का इंतजार' कर रही थी.  यह न तो पहली है और न ही आखिरी, जिसका मतलब है कि हमने अतीत की घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखा और शायद हम अब भी कुछ नहीं सीखेंगे।  हर कोई होम स्टे  बनाना चाहता  है। बड़ी संख्या में रिजोर्ट भी बनने  शुरू हो गए हैं। हमारे गाँव गदेरो, नालो में बड़े होटल और रिजोर्ट आ चुके हैं. जहा हुम नहीं पहुँच पाए वहा दिल्ली का लाला पहुँच गया है . सभी उत्तराखंड में आने वाले टूरिस्ट को देख रहे हैं और ऐसे जगहों पर बनाये जा रहे हैं जो बिलकुल अलग थलग हैं ताकि आगंतुको को 'आराम' दिया जा सके. उसके ऊपर  जब करोड़ों लोग यात्रा के लिए राज्य में उमड़ पड़ेंगे तो छोटे बड़े होटलों और होमस्टे की जरुरत तो पड़ेगी ही. इसके लिए जिसके पास थोड़ा भी जगह है वो वहा पर होम स्टे बनाने की सोचता है. सरकार भी इसे ब्यापार और स्किल डेवलपमेंट का मॉडल सोचकर आगे बढ़ा रहे है. आखिर जब पर्यटकों के लिए सस्ते दरो पर यही सब चाहिए तो लोग अपने घर के ही आस पास की जमीन हथियाएँगे. उत्तराखंड का पर्यटन बारह मासा तो है नहीं. असल में मुश्किल से दो तीन महीने ही ये होता है और बारिस के बाद तो यात्री वहा रहते नहीं. दुसरे, धार्मिक पर्यटन ऐसा नहीं है जैसे वर्ल्ड कप फूटबाल के पर्यटक जो जहा जाते हैं खूब मस्ती करते हैं और खर्च भी करते हैं. यहाँ जिस राज्य से पर्यटक आते हैं वे उसी राज्य के ढाबे में जाना पसंद करते हैं. पंजाब से सबसे अधिक लोग आ रहे हैं लेकिन पता कीजिये की आम ढाबो में कितना खा रहे हैं ?  धार्मिक पर्यटन होना चाहिए लेकिन पर्यटकों की  सीमा निर्धारित होनी चाहिए और उसे व्यापार में बदलने की कोशिश ही उत्तराखंड में ये तबाही ला रही है. 

आज  हम इन तथाकथित आपदाओं के  कारणों और समाधानों पर चर्चा नहीं करते। इसके बजाय तथाकथित मीडिया  अन्य  त्रासदी को भी एक  भव्य तमाशा बनाने की कोशिश करते हैं  जिसमे फोकस कार्य कर रहे अधिकारियो , भारी मशीनरी, हेलीकॉप्टरों का उपयोग लोगों को ले जाने के लिए, स्निफर डॉग्स, बड़े नेता दौरा करते हुए आदि। ऐसा करते समय वे भूल भी जाते हैं की उनकी रिपोर्टिंग राहत का कार्य  कर रही संस्थाओं के काम में बाधा डाल रहा होता है.  बहुत से 'मीडिया कर्मी'  और दिल्ली  में उनक चैनलों के मार्केटिंग एजेंट बेशर्मी से येही बताते रहते हैं कि ;घटनास्थल; पर पहुँचने वाले वह पहले व्यक्ति है और उनका पहला काम सरकारी तंत्र के साथ जुगाड़ लगना होता है. अधिकारियों को भी पता है कि किसी खबर से वे 'राष्ट्रीय' चैनल पर होते हैं इसलिए वे भी इनकी आवभगत में लग जाते हैं. मीडिया फिर व्यवस्था का हौव्वा खडा कर धीरे धीरे 'संवेदनशील' होने का प्रयास करता है. फिर परिवारों से प्रश्न होते हैं : 'घटना कैसे घटी', क्या हुआ और कौन खो गया के बारे में पूछते हैं लेकिन उनकी कोई सहायता या उनके साथ क्या होगा के बारे में नहीं। कोशिश होती है कि थोड़ा सहानुभूति दिखाकर बड़े प्रश्नों को गायब कर दिया जाए. इसलिए ये कोई नहीं पूछता की इतने दिनों तक बड़े अधिकारी यहाँ क्यों नहीं पहुंचे.  

आज एक मित्र से धराली में बात हो रही थी और वह कह रहे थे कि यहाँ पर अब खाने पीने या रोजमर्रा की आवश्यकता वाली वस्तुओ की जरुरत नहीं है क्योंकि वो बहुत आ चुके हैं. अब आवश्यकता है लोगो को ढूंढ निकालने की, मृतकों और लापता लोगो के सही आंकड़ो की और लोगो की जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की. लोगो का सभी कुछ समाप्त हो चुंका है, उनकी चिंता तो यही है की आखिर जिंदगी को पटरी पर वापस कैसे लायें. सब जानते हैं कि दान के सहारे तो बहुत दिनों तो नहीं ज़िंदा रहे सकते हैं. लोगो ने मेहनत से अपने सपनो के आशियाने बनाए थे इसलिए उसे दोबारा लाने के लिए प्रयास करने होंगे. 

 दुर्भाग्यवश, ऐसे प्रश्न अब सत्ता से नहीं पूछे जाते कि लोग वहां अपना जीवन कैसे बनाएंगे। क्या उन लोगों के पुनर्वास की कोई योजना है जिन्होंने सब कुछ खो दिया या सरकार अपनी औद्योगिक, पर्यावरणीय या पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित अन्य नीतियों को बदलेगी। यही कारण है कि मीडिया को मालिक की सेवा में लगा दिया जाता है ताकि ये असुविधाजनक प्रश्न दबे रहें। उत्तराखंड की आपदाएं केवल प्राकृतिक नहीं हैं बल्कि विकास के नाम पर अपनाई जा रही लापरवाह विनाशकारी नीतियों का परिणाम भी हैं। क्या वह मॉडल टिकाऊ है? क्या हमें अपने पवित्र पर्वतों और नदियों की रक्षा और सम्मान के बारे में जोर से सोचना नहीं चाहिए। मैंने कई बार कहा है और कहता रहूंगा, ये पर्वत और नदियां, हमारे पहाड़, हमारी गंगा-गाड़-गदेरा हमारी पहचान और विरासत हैं, निश्चित रूप से उपयोग करने के लिए संसाधन नहीं। उन्हें संसाधन मानना बंद करें और अपनी व्यावसायिक लालच के लिए उनका शोषण करना बंद करें।

कुछ दिन पहले, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए एक कड़ी चेतावनी जारी की: “वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से गायब हो सकता है।”  अदालत ने ये बात साफ़ तौर पर कही कि हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण के मानको के अनुसार ही कार्य करने की आवश्यकता है. पिछले कुछ वर्षो से हिमाचल प्रदेश में भयानक तबाही हुई लेकिन अभी तक उस पर कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है क्योंकि इस तबाही के पीछे केवल मौसम नहीं है अपितु सीमेंट और कंक्रीट के बड़े बड़े महल, होटल रिसोर्ट आदि और राज्य में जल विद्युत् परियोजनाओं की बढती संख्या. 

हिमाचल प्रदेश को 2025 में मानसून से संबंधित आपदाओं से भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। राज्य आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, राज्य ने 20 जून, 2025 को मानसून शुरू होने के बाद से ₹1,539 करोड़ का नुकसान उठाया है। इसमें 94 मौतें, 36 लापता, और वर्षा से संबंधित घटनाओं में 1,352 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त शामिल हैं (इंडियन एक्सप्रेस, अगस्त 2025)। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट और भी गंभीर चित्र प्रस्तुत करती है, जिसमें 2 अगस्त, 2025 तक 173 मौतें, 37 लापता, और 115 घायल नोट किए गए हैं, जिसमें 6 जुलाई, 2025 तक 23 फ्लैश फ्लड और 19 क्लाउडबर्स्ट दर्ज किए गए हैं (एनडीटीवी, 2 अगस्त, 2025)। अधिकांश मौतें वर्षा से संबंधित थीं, जिसमें मंडी, कुल्लू और कांगड़ा जिलों ने सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, जहां 243 सड़कें अवरुद्ध थीं, 241 बिजली ट्रांसफार्मर बाधित थे, और 278 जल आपूर्ति योजनाएं गैर-कार्यात्मक हो गईं जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में है, 7 जुलाई, 2025)।

उत्तराखंड, जो अक्सर आपदाओं की आवृत्ति में हिमाचल से प्रतिस्पर्धा करता है, ने 4 जुलाई, 2025 तक 70 मौतें दर्ज कीं, जिसमें 20 प्राकृतिक आपदाओं (भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट और बाढ़) से और 50 सड़क दुर्घटनाओं से, 9 लापता (ज्यादातर उत्तरकाशी में) और 177 घायल (टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 जून, 2025)। पिछले कुछ हफ्तों में क्लाउड बर्स्ट और भूस्खलन की घटनाएं लगातार आ रही हैं जिसके परिणामस्वरूप चारधाम यात्रा कई दिनों तक बाधित रही लेकिन अब धाराली आपदा ने सब कुछ पीछे छोड़ दिया है। यह अभूतपूर्व है लेकिन हम सभी के लिए एक जागृति कॉल है। अब तक हमें मरने या लापता लोगों की सटीक संख्या नहीं पता है। असल में धराली के साथ अन्य बहुत से स्थानों पर भी इसी प्रकार की स्थितिया हैं लेकिन मीडिया को दूसरे स्थानों पर जाने का समय नहीं है. 

अनियंत्रित पर्यटन: एक सांस्कृतिक और पर्यावरणीय खतरा

दोनों हिमालयी राज्य, जिनकी छवि को देवभूमि  के रूप में गढ़ा गया है आज  मास टूरिज्म के बोझ तले कराह रहे हैं। उत्तराखंड ने 4 जुलाई, 2025 तक 3.96 करोड़ पर्यटकों का स्वागत किया, जिसमें 3.94 करोड़ घरेलू और 1.66 लाख अंतरराष्ट्रीय आगंतुक शामिल हैं, जिसमें चारधाम यात्रा के लिए 34.07 लाख तीर्थयात्री पंजीकृत हैं (13.58 लाख केदारनाथ, 11.52 लाख बद्रीनाथ, 4.97 लाख गंगोत्री, 3.99 लाख यमुनोत्री) (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025; आउटलुक इंडिया, 16 मई, 2025)। हिमाचल प्रदेश ने जुलाई 2025 तक 1.4 करोड़ पर्यटकों को दर्ज किया, जो शिमला और मनाली जैसे पहाड़ी स्टेशनों द्वारा संचालित है (हिंदुस्तान टाइम्स, जुलाई 2025)।  हालाँकि  ये संख्याएं स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देती हैं लेकिन वे यहाँ के  नाजुक भौगोलीय तंत्र और बुनियादी ढांचे पर दबाव डालती हैं, जो आपदा जोखिमों को बढ़ाती हैं।

चारधाम यात्रा जिसे उत्तराखंड के पर्यटन की आधारशिला भी कह सकते हैं आज  अनियंत्रित पर्यटन का  प्रतीक बन गई है। जुलाई 2025 तक, 169 तीर्थयात्रियों की मौत स्वास्थ्य समस्याओं जैसे हृदयाघात और उच्च रक्तचाप से हुई (78 केदारनाथ में, 44 बद्रीनाथ में, 24 गंगोत्री में, 22 यमुनोत्री में) (टाइम्स ऑफ इंडिया, जुलाई 2025)। अप्रैल 2025 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में छह तीर्थयात्रियों की मौत हो गई, जो ऑपरेटरों पर लाभ को सुरक्षा से ऊपर रखने के दबाव को दर्शाती है (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025)। हिमाचल में, कुल्लू-मनाली और शिमला में ओवर-टूरिज्म ने यातायात जाम और पर्यावरणीय गिरावट को जन्म दिया है, जहां पर्यटक नदियों में कचरा फेंकते हैं और स्थानीय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं ।

पहाड़  मैं पर्यटकों की आना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बहुत से लोग पहाड़ो को  अक्सर औपनिवेशिक नजरिये से  देखते है और उसका भौंडा प्रदर्शन भी करते हैं. वह हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को धमकी देते हुए अपने पैसे और रसूक के बल पर उसका मजाक भी उड़ाते हैं।  ऐसे युवा आगंतुक गंगा के किनारे अपनी थार लेकर  खुले में हुक्का और शराब पीते हैं और उसी नैतिकता का मजाक उड़ाते हैं जिसकी खातिर यहाँ आने का ढोंग करते हैं. उत्तराखंड में एक समय में गाँवों में घरो में ताले नहीं लगते थे और पुलिस का काम न के बराबर था क्योंकि कोई भी चोरी, डकैती या छेडछाड की घटनाएं नहीं होती थे लेकिन आज  छेड़छाड़ और लोगो के गायब या लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और ये स्थानीय लोगो के कारण नहीं हो रहा अपितु बेनियांत्रित पर्यटन के कारण हो रहा है। बाहरी सांस्कृतिक प्रथाओं का ऊपर से थोपा जाना बेहद चिंताजनक है. संस्कृति केवल पूजा पध्यती नहीं है, वो हमारे खान पान से भी निर्धारित होती है लेकिन आज  स्थानीय व्यंजनों की जगह पर ढाबो में  मैगी, पराठे आदि की मांग  बढ़ रही हैं वही  पहाड़ी ब्यंजनो जैसे धपड़ी, फाणु, कफली, चैन्सू, च्यूं. बन्स्किल, कन्दाली का साग आदि को अब के बच्चे तो जानते भी नहीं होंगे. संस्कृति को कोई शोर करके ख़त्म नहीं करता अपितु बाज़ार के जरिये नियंत्रण किया जाता है. जब पहाड़ी व्यंजनों की मांग ही नहीं होगी तो कोई उन्हें क्यों बनायेंगे तो वो बाज़ार से स्वयं ही गायब हो जायेंगे. ऐसे ही, हमारे तीर्थस्थलो पर हो रहे निर्माण कार्य में कोई भी बात हमारी संस्कृति और परम्पराओं को प्रदर्शित नहीं करती. ये सब पैसे का भोंडा प्रदर्शन कर हम पर निर्माण के नाम पर अहसान और हमारी संस्थानों पर कब्जे के अलावा कुछ भी नहीं है. ऐसे ही होटल और रिजोर्ट आदि से होता है. यानि आज के दौर में आप की संस्कृति बाज़ार निर्धारित करता है और बाज़ार पर जिसका नियंत्रण होता है वोही हावी होता है. उत्तराखंड में यदि बाज़ार के अनुसार चलने की कोशिश करेंगे तो वो खतरनाक होगा. 

कुछ बाहरी लोग, राजनीतिक एजेंडों द्वारा समर्थित, एक समरूप हिंदुत्व कथा को आगे बढ़ाते हैं, जो हिमाचल और उत्तराखंड के विशिष्ट पारंपरिक शैली  को नजरअंदाज करते हैं, जहां स्थानीय देवता और स्थाई  प्रथाएं लंबे समय से फल-फूल रही हैं । यह भी समझना होगा कि  धार्मिक भावनाये  व्यावसायिक लाभों से अलग है और यदि दोनों को जोड़ा गया तो उसके नतीजे भयावह होंगे। वास्तव में, पिछले कुछ दशकों में, भारत की सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने व्यावसायिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण किया है। स्पष्ट रूप से, भारत को एक धार्मिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया है जहां बाबाओं का फलना-फूलना और भक्ति और परंपराओं के नाम पर चमत्कारों के नए स्थानों का निर्माण हो रहा है। हिमालयी क्षेत्र अलग हैं और आप उन्हें मैदानी  इलाकों के साथ नहीं जोड़ सकते जहां आपके पास विशाल भूमि है और बुनियादी ढांचे के विकास से संबंधित कोई समस्या नहीं है। हिमालयी क्षेत्रों में, ये बुनियादी ढांचे का विकास हिमालय, हमारी पवित्र नदियों और यहाँ के  लोगों की कीमत पर आएगा। ऐसा कोई भी विकास हमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए जो हमें हमारी ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति परम्पराओ और हमारी अस्मिता से अलग थलग करता हो. 

जलविद्युत परियोजनाएं: प्रकृति की कीमत पर लाभ कमाना

केंद्र सरकार का जलविद्युत योजनाओं को लगातार जोर देना  जिसे हिमालय की “क्षमता” के रूप में ब्रांडेड किया गया है, पर्यावरणीय और सामाजिक मूल्यों  पर कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता देता है और अब यह  पूरी तरह से उजागर हो गया है क्योंकि दोनों राज्य भारी आपदाओं का सामना कर रहे हैं हालांकि आज भी पूरी कहानी को 'क्या हुआ और कब हुआ' तक सीमित रखने के प्रयास हैं  'क्यों हुआ' हमारे पूरे विश्लेषणों और राजनितिक चर्चाओं से गायब है. हिमाचल प्रदेश में 41 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं हैं और वहा पर भयानक बाढ़ के पीछे प्रकृति की मार नहीं वहा बने बांधो का पानी छोड़ना शामिल है. 

डाउन टू अर्थ मैगजीन में एक रिपोर्ट कहती है :  'उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में जलविद्युत परियोजनाएं स्थापित की जा रही हैं। राज्य के ये स्थान आने वाले वर्षों में भूकंपीय या जलवायु से संबंधित आपदाओं का शिकार हो सकते हैं। उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कम से कम 15 ऐसी परियोजनाएं हैं जिनमें लगभग 70,000 करोड़ रुपये का निवेश है। क्लाइमेट रिस्क होराइजन्स की रिपोर्ट नोट करती है कि उत्तराखंड में 25 मेगावाट से अधिक की 81 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं पाइपलाइन में हैं और 18 परियोजनाएं अभी पूरी तरह से एक्टिव हैं । जलवायु की 'अति'  संबंधित खतरे ने उनके भविष्य पर अनिश्चितता पैदा कर दी है।'

(https://www.downtoearth.org.in/dams/extreme-weather-events-can-completely-destroy-hydropower-projects-in-uttarakhand-report)

ईमानदारी से यदि विश्येलेषण करें तो ये पायेंगे कि ये  परियोजनाएं हमारी नदियों को नष्ट कर रही हैं क्योंकि मलबे को उनसे दूर रखने का कोई तरीका नहीं है। बड़े बोल्डर, पत्थर, कंक्रीट सब कुछ चुपचाप उनमें फेंका जा रहा है जो कई बार नदियों के प्रवाह को जोखिम में डालता है। वनों की कटाई, ब्लास्टिंग, और तलछट की बाधा उच्च पर्वतों में ढलानों को कमजोर और अस्थिर करती है जो अचानक फटने का जोखिम पैदा करती है जिसके परिणामस्वरूप धाराली जैसी आपदाएं होती हैं। क्या हम भूल गए हैं कि जोशीमठ में क्या हुआ जहां शहरं में स्थित सभी  भवनों और निर्माणों  में दरारें आ गईं। जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ो पर  की जा रही  ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग और टनलिंग से नुक्सान का खामियाजा नहीं भरा जा सकता है और ये अब  बहुत से विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा  अच्छी तरह से दस्तावेजित है हालांकि तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया अब इसे  ज्यादा रिपोर्ट नहीं करता. ऐसा लगता है कि हर कोई अब जोशीमठ को भूल गया है। रैनी गांव के ग्रामीणों ने अपने गांव को खतरे के खिलाफ अदालत का रुख किया लेकिन अदालत से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। वास्तव में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने लोगों सहित कार्यकर्ताओं को मामला दाखिल करने के लिए दस हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया।

धार्मिक पर्यटन के सामूहिकरण ने गंगा स्नान जैसी मैदानी  इलाकों की प्रथाओं को हिमालय में आयात किया है, जहां सामुदायिक स्नान दुर्लभ है, और नदियों की पूजा की जाती है, प्रदूषित नहीं । केदारनाथ में लाउडस्पीकर, डीजे, और ड्रम बजाना पवित्र शांति को बाधित करता है । गुजरात की वास्तुशिल्प शैली की नकल करने वाली सीमेंटेड संरचनाएं उत्तराखंड के अनोखे लकड़ी के मंदिरों की जगह ले रही हैं, जो न केवल  स्थानीय शिल्पकला और व्यवसायों को कमजोर कर रही हैं अपितु हमारी संस्कृति पर सीधे हमला है । आखिर ये सवाल तो करना पडेगा की बद्रीनाथ में ये सीमेंटेड कोरिडोर किस लिए बनाये जा रहे हैं. क्या 'देशी' बाबा और भक्तो को हमारे सबसे महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठाने के लिए यह एक नया प्रबंधन है. क्या उनके साथ और भी  लोगो को यहाँ का मूलनिवासी बनाने के लिए  ये प्रयास किये जा रहे हैं ?  अगर इतनी बड़ी संख्या में बाहर से लोगो को लाकर यहाँ फाइव स्टार सुविधाएं दी जाएँगी तो सरकार बताये कि इतने कूड़ा और मल मूत्र को किस प्रकार से निष्पादित किया जाएगा वो भी बताये. क्या भागीरथी और अलकनंदा को उनके श्रोतो से ही बदबूदार और प्रदूषित करने का कोई षड्यंत्र नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग जो बाहर से आ रहे हैं उन्हें पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ो की पवित्रता से कोई मतलब नहीं है. वे अपने भगवानो को प्रसन्न करने के वास्ते आते हैं और फिर अपना कूड़ा कबाड़ यहाँ छोड़कर चले जाते हैं।  इसलिए बद्रीनाथ केदारनाथ धामों में जो लोग  इस  तथाकथित मास्टर प्लान के खिलाफ विरोध कर रहे हैं,  जिनके दुकानों और घरों को ध्वस्त कर दिया है, उन्हें गलत कैसे कहा जा सकता है. क्या जो लोग हमारे धामों में पूरे पारंपरिक चरित्र को बदलने का विरोध कर रहे हैं उन्हें सुनना आवश्यक नहीं  है. आखिर  हम अपने निर्माण कार्य  को हिमालय की पर्यावरणीय उपयुक्तता के अनुसार क्यों नहीं बना सकते जिसमें पारंपरिक उत्तराखंडी छाप हो। क्या ये नए निर्माण  हमारी इतिहास, संस्कृति  और पारंपरिक  जीवन शैली को मिटाने का प्रयास नहीं है?


स्थाई और संतुलित  विकास के लिए एक अपील 

सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी सरकार से इस विषय में सकारात्कामक कार्यवाही की मांग करती है। सरकार की नीतियां-राजस्व के लिए मास टूरिज्म और जलविद्युत को बढ़ावा देना-इस संकट को बढ़ावा दे रही हैं। अगर अदालत गंभीर है, तो उसे पर्यटको संख्या को  नियंत्रित करना चाहिए,  स्थायी और संतुलित  विकास के लिए मूल पहाड़ी समुदायों को सभी प्रमुख प्रशासकीय और नीतिगत संस्थानों में  शामिल करके नए मॉडल की शुरुआत करनी चाहिए. पहाड़ो के  स्थानीय देवताओं, परंपराओं और पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है। हिमालय शोषण के लिए कॉलोनी नहीं हैं; वे एक पवित्र, नाजुक क्षेत्र हैं जिन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है। अब आवश्यक हो गया है कि गैरसैण को राजधानी बनाने के प्रश्न पर ईमानदारी से बहस हो और उसे राजधानी घोषित कर दिया जाए तभी इस प्रकार के अतिक्रमण आदि पर रोक लगेगी और उत्तराखंड अपने पहाड़ी परम्पराओं के लिए जाना जाएगा.  

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश दोनों को ही बहुत आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है. उन्हें अपना खुद का मॉडल विकसित करना होता और बाहर से 'विशेषज्ञों' का आयात बंद करना पडेगा क्योंकि ये  वास्तव में विकास के बहाने स्थानीय परंपराओं और हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजो के लिए खतरा हैं और  शोषणकारी और प्रकति के साथ हमारे रिश्तो के विरुद्ध  हैं।  मैं सभी जलविद्युत परियोजनाओं या मौजूदा चल रहे कार्यक्रमों को रोकने के लिए तो  नहीं कहूंगा लेकिन  मैं निश्चित रूप से इस प्रकार की  किसी भी भविष्य की योजना पर पुर्णतः रोक की मांग करूंगा जो हमारी नदियों और पर्वतों को हानि पहुंचाए और उनका अनियंत्रित शोषण की बुनियाद बने. 

धराली, मनाली, कुल्लू, मंडी, रैनी जैसी घटनाएं लगातार हो रही हैं और हम लोग उन्हें 'प्राकृतिक आपदाएं' कह रहे हैं लेकिन हकीकत है की हमने अपनी प्रकृति की न तो रक्षा की और न ही सम्मान किया और इसके नतीजे यह निकले कि हम सभी कि जिंदगी खतरे में आ गयी. यह भी हकीकत है कि हमारे पूर्वज इसी प्रकति के साथ  सामंजस्नय बनाकर रहे और हमें बड़ा किया. आपदाएं तब भी आती थी लेकिन उनके लिए इंसान दोषी नहीं होता था. पहाड़ी समाज मेहनत और ईमानदारी के बल पर जीता था. उसके पास इतना पैसा नहीं था लेकिन अपना स्वाभिमान और नैतिकता बची हुई थी . इसलिए आज का संकट असल में स्थानीय मूलनिवासियो द्वारा नहीं लाया गया अपितु  यह मै निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि  हिमालय में आज का संकट  राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा अपनाए जा रहे शोषणकारी विकास मॉडल के कारण जो लालची कॉर्पोरेट के साथ सांठगांठ में लोगों की धार्मिक भावनाओं का बेशर्मी से शोषण करता है. ये पूंजीपति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए वो सब कुछ करने को तैयार हैं  भले ही यह स्थानीय पर्यावरणीय, भौगोलिक और सांस्कृतिक परम्पराओ  को नुकसान पहुंचाए। उनके विकास के मॉडल में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा नहीं अपितु राष्ट्रीय संशाधनो का व्यक्तिगत हितो के लिए बेजां इस्तेमाल है. इसलिए आज आवश्यकता है की हम  हिमालय के इस बेमतलब शोषण को रोकें। शायद, इसके लिए एकमात्र तरीका है कि पहाड़ी क्षेत्रों को अनुसूची V या अनुसूची VI क्षेत्रों के तहत घोषित किया जाए ताकि भूमि को बाहरी लोगों को बेचने से रोका जा सके और इस व्यावसायिक लालच को रोका जा सके साथ ही स्थानीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जा सके। इस संकट का जलवायु अनुकूल समाधान केवल उत्तराखंड के मूल निवासियों के साथ समावेशी जुड़ाव से संभव है और किसी भी भविष्य की परियोजना को पूरी तरह से रोककर जो हिमालय, इसकी नदियों और समुदायों को खतरे में डालती है जो इसके आसपास रहते हैं और इसकी रक्षा करते हैं।

शनिवार, 9 अगस्त 2025

राहुल गाँधी द्वारा उठाये गए प्रश्नों को गंभीरता से ले चुनाव आयोग


विद्या भूषण रावत 


राहुल गांधी की कल की प्रेस कांफ्रेंस ने देश भर में लोकतंत्र पर भरोसा करने वालो को एक झटका भी दिया है और उम्मीद भी. झटका ये कि पूरी चुनाव प्रक्रिया जिसके आधार पर हमारी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और सत्ता की वैधानिकता बनती है वही सवालों के घेरे में आ गयी और उम्मीद ये कि इसके लिए अब सभी राजनितिक दल गंभीरता से लड़ने को तैयार दिख रहे हैं जिसके शुरुआत राहुल गाँधी ने कर दी है. राहुल गाँधी द्वारा चुनाव प्रक्रिया पर खड़े किये गए सवालों का  भारत के निर्वाचन आयोग को  गंभीरता  और विश्वसनीयता के साथ उत्तर देना चाहिए। यह दुर्लभ है कि कोई मुख्यधारा का भारतीय राजनेता इतने गहन शोध को इतने विस्तार से प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत करे। उठाए गए मुद्दों को केवल आरोपों के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता। राहुल गाँधी के इस प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए. आशा है वह इस प्रकार के प्रस्तुतीकरण अन्य और भी महत्वपूर्ण विषयो पर करते रहेंगे. राहुल गाँधी को देश के प्रमुख प्रश्नों पर लगातार लिखते रहना चाहिए ताकि उनकी बातो का बतंगड न बने और सरकार की जवाबदेही भी सुनिश्चित हो. नेहरु के बाद भारत में नेताओं को पढने की कम आदत रही और पढने लिखने या बौद्धिकता को यह मान लिया गया कि वह किसी काम की नहीं है और उसके कोई राजनैतिक लाभ नहीं है लेकिन राहुल गाँधी इस खाई को पाट सकते हैं. उन्हें भाषा में तीखापन से बचना होगा और कम से कम हिंदी में अपनी संवाद शैली में कठोरता के मुकाबले ह्यूमर का प्रयोग करना सीखना होगा. उनकी बौद्धिकता पर कोई संदेह नहीं और बहुत समय बाद बौधिक स्तर पर हमें एक अच्छा जन नेता दिखाई दे रहा है लेकिन उनकी संवाद शैली बहुत बार गड़बड़ा जाती है जिसके चलते उनकी बातो केअलग अलग मतलब निकाल दिए जाते हैं. खैर, ये उन्हें और कांग्रेस पार्टी को देखना है. साथ ही साथ यदि उन्हें स्वयं की और पार्टी की मजबूती चाहिए तो सकरात्मक आलोचना को सुनने की हिम्मत होनी चाहिए और चारणों से बचना होगा. 

राहुल गाँधी ने जो प्रश्न उठाये वह वास्तव में,मीडिया को करना चाहिए था लेकिन मीडिया तो दलाली और सत्निता के नशे में चूर होकर विपक्ष और स्वतंत्र सोच को राष्ट्र विरोधी बताने वालो का सरगना बन गया. चुनाव प्रक्रिया में सुधार से हम सभी को लाभ होगा और मीडिया को  एक सतत अभियान के तहत इसे उठाते रहना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य यह की राहुल गाँधी की इस महत्वपूर्ण प्रेस कांफ्रेंस को द हिन्दू के अलावा किसी भी समाचार पत्र ने प्रमुखता से नहीं छापा. हिंदी के लाला अखबारों ने तो इसे पन्द्रवहे पेज में छिपा दिया। दुर्भाग्यवश  भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हिंदुत्व राजनीति का जनसंपर्क विभाग बनकर रह गया है। यह स्वयं का एक कार्टून बन गया है, जिसमें कई तथाकथित एंकर और पत्रकार मुख्य रूप से बीजेपी के पीआर प्रयासों को बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं और उनके मुख्य प्रवक्ता के रूप में व्यवहार कर रहे हैं. 

मतदाता सूचियों में हेरफेर भारत में कोई नई बात नहीं है। हालांकि, जो नया है, वह इस हेरफेर का पैमाना और व्यवस्थित "प्रबंधन" है। जहां पहले बूथ कैप्चरिंग राजनितिक माफियाओं की ताकत से होती थी, वहीं आज हमें एक अधिक कपटपूर्ण खतरे का सामना है: डिजिटल हेरफेर। विशाल डेटा का इस्तेमाल कर  पूरे समुदायों को उनकी जानकारी के बिना एक निर्वाचन क्षेत्र से दूसरे में स्थानांतरित किया जा सकता है। निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन भी  अक्सर मतदाताओं को सूचित किए बिना कई बार बदला गया है. 

कांग्रेस पार्टी और इंडिया गठबंधन को इस मामले को औपचारिक रूप से निर्वाचन आयोग के सामने उठाना चाहिए। वे सुप्रीम कोर्ट का भी रुख कर सकते हैं, हालांकि वर्तमान में न्यायपालिका से बहुत उम्मीदें नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियों में, जन दबाव ही एकमात्र व्यवहार्य रास्ता हो सकता है। मतदान केंद्रों और मतगणना केंद्रों पर सतर्कता महत्वपूर्ण होगी। आज कई मतदान केंद्रों पर पार्टी बूथ एजेंट नहीं हैं, खासकर कांग्रेस के, जिसकी अब हर जगह जमीनी उपस्थिति नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर हमला बहुआयामी है, और पूरे विपक्ष को एकजुट होकर अपने प्रयासों को समन्वित करना होगा।

मैं चुनावी बहिष्कार का समर्थन नहीं करता; वे तब तक प्रभावी नहीं होते जब तक कि वे व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन में न बदल जाएं। बीजेपी के पास अभी भी काफी वोट हिस्सेदारी है, और यह सब हेरफेर के कारण नहीं है। स्पष्ट रूप से, हम जो देख रहे हैं वह जनता के दिमाग का हेरफेर है। कई राजनीतिक नेता वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी रखते हैं और किसी भी समय बीजेपी में शामिल हो सकते हैं। हमें देश भर में गहरी और व्यापक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

विपक्ष को इसलिए आगामी बिहार चुनावों में पूरे जोश के साथ भाग लेना चाहिए। इंडिया गठबंधन के भागीदारों के बीच राजनीतिक संवाद को और गहरा करना होगा। यह एक राजनीतिक लड़ाई है। राहुल गांधी को केवल एक शोधकर्ता के रूप में नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से भी सक्रिय होना चाहिए। हालांकि उनके खोजी प्रयास सराहनीय हैं, उन्हें अपने शब्दों के प्रयोग में सावधान रहना चाहिए। वे अपने दल, सरकार, नौकरशाही, और कॉर्पोरेट क्षेत्रों में  बहुत से विरोधियों से घिरे हुए हैं, जो उन्हें  कानूनी तौर पर फंसाने का इंतजार कर रहे हैं। उनके खिलाफ पहले से ही कई अदालतों में कई कानूनी मामले चल रहे हैं, और यह संभावना नहीं है कि सिस्टम उनका बिना शर्त समर्थन करेगा। बीजेपी कानूनी रास्ते का उपयोग करके उन्हें और उलझाने की कोशिश करती दिख रही है। 

इन चुनौतियों के बावजूद, राहुल गांधी आज एकमात्र राष्ट्रीय नेता हैं जो नरेंद्र मोदी सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन और  अवसरवादी प्रवृत्तियों को पूरी तरह समझते हैं। वे एक विचारशील राजनेता बने हुए हैं, लेकिन उन्हें अत्यंत सावधान रहना होगा। उनकी प्रस्तुति, विशेष रूप से अभिव्यक्ति के मामले में, अक्सर तीक्ष्ण होती है लेकिन उन्हें जटिल प्रश्नों को भी व्यंगात्मक तरीके से, बिना व्यक्तिगत हुए रखने की कला सीखनी पड़ेगी.  अटल विहारी वाजपेयी व्यंगात्मक बोलते थे लेकिन उनके भाषणों में कंटेंट नहीं होता था. चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडीज, इन्द्रजीत गुप्ता तथ्यों और गंभीरता के साथ अपनी बात रखते थे कि किसी में हिम्मत नहीं होती थे उन्हें रोकने की. रामविलास पासवान, लालू यादव, शरद यादव आदि में गंभीर बात को भी बिना कटुता के बोलने की शैली विकसित की थी. शायद राहुल गाँधी इन सभी से कुछ न कुछ सीख सकते हैं. हालाँकि आंबेडकर और नेहरु की मिर्षित ज्ञान शैली और विचारधारा को अपना के चलेंगे तो उन्हें शक्ति मिलेगी और उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी जो इस समय हो भी रहा है. 

राहुल गांधी द्वारा शुरू किए गए चुनावी अध्ययन को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। निर्वाचन आयोग को इसका स्वतंत्र रूप से सत्यापन करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी को इस डेटा को आधिकारिक रूप से आयोग को सौंपना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट में जाने पर विचार करना चाहिए। डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जैसे संगठन भी इस डेटा का उपयोग कर सकते हैं और अदालत में याचिकाएं दायर कर सकते हैं।

मतदाता सूचियों, दोहरे प्रविष्टियों, फर्जी प्रविष्टियों, फर्जी पतों आदि के मुद्दे को आसानी से हल किया जा सकता है यदि उन्हें उचित जांच और क्रॉस-चेकिंग की प्रक्रिया के बाद डिजिटल किया जाए, लेकिन इसके लिए निर्वाचन आयोग को पवित्र दिखना होगा। आज, एक गंभीर विश्वसनीयता संकट है, और आयोग को सभी राजनीतिक दलों से बात करनी चाहिए और राजनीतिक बयान जारी करना बंद करना चाहिए।

जैसा कि राहुल गांधी ने कहा कि इस समय उनका फोकस मतदाता सूची में नए जोड़े गए  नामो को लेकर था लेकिन सवाल  केवल नामों का "जोड़ने " का  नहीं है अपितु उन्हें "हटाने" के हिस्से की भी जांच करनी होगी क्योंकि बिहार और अन्य हिस्सों में जो मतदाता सूची में सुधार के नाम पर बड़ी संख्या में लोगो के नाम हटाये जा रहे हैं उसका भी ईमानदारी से सत्यापन करना होगा.  इसके अलावा, ईवीएम और इसके कामकाज का मुद्दा हमेशा एक चुनौती रहा है। यदि पूरी चुनावी प्रक्रिया जांच को संतुष्ट नहीं करती है, तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा। यह समय है जब सभी हितधारकों को एक साथ बैठकर अपनी बात सरकार और चुनाव आयोग के सामने रखने  चाहिए और आयोग को भी ईमानदारी से और गंभीरता पूर्वक उस पर कार्यवाही करनी चाहिए.  पूरी चुनावी प्रणाली को सफाई अभियान की जरूरत है और यह तब तक नहीं होगा जब तक हम आरोपों को जवाबी आरोपों से संतुष्ट करने की कोशिश करेंगे. मतलब यह की आज के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए १९४७ को खोदकर न बात करें। लेकिन बीजेपी इसकी  विशेषज्ञ बन गई है। हर मुद्दे पर वे 1947 या 1975 की कहानी निकाल लाते हैं। वे 2014 से सत्ता में हैं और आज हमें जिन मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है, उनका जवाब देना होगा। कांग्रेस और अन्य को जनता ने पर्याप्त सजा दी है और वही जनता उन्हें वापस भी लाई है, लेकिन किसी ने भी चुनावी प्रणाली की प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठाया। यहां-वहां कुछ मुद्दे थे, लेकिन व्यापक रूप से लोग निर्वाचन आयोग का पालन करते थे, लेकिन आज यह तीखी जांच के अधीन है और इसे विश्वसनीय स्पष्टीकरण के साथ सामने आना होगा, न कि केवल जवाबी आरोपों के साथ।

चुनाव आयोग और भाजपा का राहुल गाँधी को शपथ पत्रों पर अपनी टिप्पणियों के बारे में बात कहने को कहना केवल एक पाखंड है, एक राजनितिक नेता यदि रोज रोज शपथ पत्र लेकर बात रख्नेगा तो  बीजेपी नेताओं को नेहरू, गांधी, इंदिरा गांधी, और अन्य विरोधियों के बारे में अपने सभी बयानों के लिए शपथ पत्र दाखिल करने पड़ेंगे जो उनके लिए बहुत मुश्किल होगा.  अगर शपथ या शपथ पत्र के तहत बोलना अनिवार्य होता, तो कोई भी राजीव गांधी को भ्इरष्सटाचार में लिप्त होने  की चुनौती देने की हिम्मत नहीं करता।

राहुल गांधी का प्रयास साहसी है—विशेष रूप से उस दिन, जो एक अन्य कारण से ऐतिहासिक महत्व रखता है। 7 अगस्त, 2025, उस दिन की 35वीं वर्षगांठ है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा संसद में मंडल आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार किया गया था। दुख की बात है कि कुछ लोग वीपी सिंह और उनके ऐतिहासिक निर्णय को याद करते हैं, जिसने लाखों हाशिए पर पड़े नागरिकों को राजनीतिक आवाज दी थी। राहुल गांधी का आज का कृत्य, एक तरह से, लोकतांत्रिक आदर्शों की पुन: पुष्टि है—जनता के लिए, जनता द्वारा, और जनता का शासन। मंडल विरासत ने यह फिर से परिभाषित किया कि भारत की "जनता" कौन है, और वे अपनी उचित हिस्सेदारी के हकदार क्यों हैं। हालाँकि ये अलग बात है कि मंडल मंडल करने वाले राहुल गाँधी और कांग्रेस अपनी ही पार्टी में बड़े हुए सामाजिक न्याय के नायको  वी पी सिंह और अर्जुन सिंह  का नाम तक लेने को तैयार नहीं है. 

दुर्भाग्यवश, आज राजनीतिक दल इन सबक को भूल चुके हैं। अधिकांश केवल अपने प्रतीकों का महिमामंडन करते हैं और जनता के दबाव वाले मुद्दों को नजरअंदाज करते हैं। शायद जनता भी भूल चुकी है—लेकिन यह सामूहिक भूलने की बीमारी हमारे लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत है।

अभी तक चुनाव आयोग और भाजपा की प्रतिक्रया तो सकारात्मक संकेत नहीं देती लेकिन फिर भी लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है सरकार, चुनाव आयोग और विपक्ष के मध्य एक संवाद होता रहे. चुनाव केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है ये लोकतान्त्रिक प्रक्रिया भी है और बिना राजनितिक दलों को भरोसे में लिए ऐसी प्रक्रिया, चाहे वह कितनी भी ईमानदारी से की जाए, भरोसेमंद नहीं कहलाएगी जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं ही. 


 देखना होगा कि राजनीतिक दल, इंडिया गठबंधन के सदस्य, और सार्वजनिक संस्थान राहुल गांधी के खुलासों पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं—और क्या वे भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करने वाली सड़न को दूर करने के लिए कार्रवाई करते हैं।

बुधवार, 6 अगस्त 2025

धराली की त्रासदी और उत्तराखंड में आपदाओं का प्रश्न

 

 विद्या भूषण रावत 



धराली में खीरगंगा की तबाही

कल ५ अगस्त २०२५ को  खीरगंगा गाड  में आई फ़्लैश फ्लड  ने उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में भयंकर तबाही मचाई, जो हृदयविदारक है। धराली, हर्षिल घाटी का  एक बेहद  खूबसूरत गांव था, जो गंगोत्री राजमार्ग पर स्थित था जो  #भागीरथी नदी तक के तट पर बसा हुआ था और अपने सेबो के बगान के लिए प्रसिद्ध था.  यह गांव #हर्सिल घाटी में पड़ता है, जो बर्फ से ढके पहाड़ों और भागीरथी के मनोरम दृश्यों से घिरा एक अत्यंत सुंदर क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कई छोटी धाराएँ भागीरथी में मिलती हैं।

धराली में एक छोटा सा बाजार था, जहाँ लोग #गंगोत्रीधाम जाते समय या वहाँ से लौटते समय रुककर भोजन करते थे। हालाँकि हर्सिल एक अधिक प्रसिद्ध गांव था, लेकिन धराली का स्थान और आसपास का प्राकृतिक सौंदर्य इसे और भी आकर्षक बनाता था। दोनों गांवों के बीच की दूरी लगभग 6 किलोमीटर है। नदी के किनारे की ओर एक प्राचीन मंदिर #कल्पकेदार भी है। साधारण दिखने वाली #खीरगंगा, जो वास्तव में एक गाड , गदेरा  या  एक प्राकृतिक धारा है जो ऊँचे पहाड़ों से निकलती है और अपने प्राकृतिक प्रवाह के माध्यम से भागीरथी में मिल जाती है। धराली से माँ गंगा का मायका मुख्बा एक झुला पुल के रस्ते पहुंचा जा सकता था. ये गाँव आमने सामने हैं. मुखबा थोड़ा उंचाई पर स्थित है और वहा से धराली और सामने बहती हुई भागीरथी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है. #हिमालयकीगंगा यात्रा के समय और उसके बाद भी मुझे हर्षिल और धराली में रुकने का अवसर मिला और मै यह कह सकता हूँ के दोनों स्थान अप्रतिम हैं. मुझे आशा है की धराली पुनः अपनी धरोहर को प्राप्त करेगा. 


इतिहास बताता है कि पहाड़ों में सबसे बड़ी तबाही हमेशा इन गाड  गदेरों के कारण होती है, क्योंकि ये ज्यादातर समय छोटी धाराओं जैसे दिखते हैं, जिसके कारण इनके आस पास के क्षेत्रो में व्यवसायिक केंद्र खुल जाते हैं, व्यापार चल पड़ता है और कंक्रीट के 'जंगल खड़े हो जाते हैं और ये बिना आधिकारिक या राजनितिक प्रश्रय के संभव नहीं है.  हिमालय में तेजी से बढ़ते निर्माण और #चारधामयात्रा का दबाव  भी उत्तराखंड पर भारी है, जहाँ बुनियादी ढांचे का विस्तार करना मुश्किल है। पर्यटक सस्ते और आरामदायक जगह  चाहते हैं. वैसे भी भारतीय पर्यटक मूलतः अपनी धार्मिक भावनाओं के चलते इस क्षेत्र में आते हैं जिसमे अधिकांश की स्थानीय जन भावनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही उसकी इस बात में कोई दिलचस्पी है की इस प्रकार के क्षेत्रो में हर प्रकार की सुविधाओं की उम्मीद नहीं की जा सकती.  भारतीय पर्यटक हर जगह अपने घर जैसी सुविधाएँ चाहते हैं, चाहे वे #केदारनाथ या #गंगोत्री जाएँ।  अगर समय पर कोई कार्य नहीं हुआ या रहने की जगह नहीं मिली तो वह भी दावा करते हैं कि उनकी वजह से ही #उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था चलती है। इस प्रकार का पर्यटन स्थानीय प्रशासन पर अनावश्यक दवाब बनाते हैं. 

धराली की घटना को पहले बदल फटने की घटना कहा गया लेकिन विशेषज्ञ यह कह रहे हैं की क्लाउड बर्स्ट  के





रूप में इस घटना को  स्वीकार नहीं किया जा रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया कि यह ग्लेशियललेकआउटबर्स्ट का मामला हो सकता है, जो आसपास के स्थानों के लिए सबसे खतरनाक स्थिति पैदा करता है। उत्तराखंड में लगभग 1266 हिमनदी झीलें हैं, जिनमें से 13 को उच्च जोखिम वाला माना जाता है। हर्सिल सेना बेस के पास भागीरथी पर एक कृत्रिम झील बनने की भी खबरें हैं, जो बाढ़ के कारण तबाह हो गया था। सेना वहाँ अपनी समस्याओं के बावजूद बचाव कार्य में सक्रिय है। २०१३ के केदारनाथ आपदा और २०२१ की ऋषि गंगा-धौली गंगा में आई आपदाएं असल में ग्लासियल लेक फार्मेशन के कारण ही हुई थी. इसलिए इस प्रकार की घटनाओ का पूर्वानुमान लगाने के लिए सेटेलाइट की मदद लेने की जरुरत है. 

धराली पूरी तरह से देश के बाकी हिस्सों से कट गया है। भेजी गई बचाव टीमें भूस्खलन और राष्ट्रीय राजमार्ग के विभिन्न स्थानों पर धंसने के कारण बीच में फंस गई हैं। हालाँकि मौसम में सुधार  के चलते सेना और वायुसेना के हेलीकाप्टर अब उड़ान भरने लगे हैं और अपने रेस्क्यू मिशन में लगे हैं. साधारण दिनों में खीर गंगा की तरफ लोगो का ध्यान भी नहीं जाता लेकिन आज उसकी तबाही रेनी गाँव में रिशिगंगा जैसी ही थी.







2024 में, सरकार ने सभी पर्यावरणीय नियमों के खिलाफ हर्सिल से गंगोत्री तक राजमार्ग को चौड़ा करने की अनुमति दी थी। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया था, क्योंकि हजारों देवदार के पेड़ों को काटने के लिए चिह्नित किया गया था।  ऐसा बताया गया की राष्ट्रीय राजमार्ग के चौडीकरण के लिए ४ हज़ार से ६ हज़ार देवदार के वृक्षों को काटने की योजना थी और बहुत से लोग बताते हैं की उनका चिन्हीकरण भी हो चुका है. हर्षिल से गंगोत्री का क्षेत्र बेहद संवेदनशील हैं और सरकार इन २०१२ में इसे इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित किया हुआ है लेकिन उसके बावजूद विकास के नाम पर बड़ी चट्टानों को काटने का 'कार्यक्रम' बनाया जा रहा है. गंगोत्री घाटी की पर्वत श्रृंखला बेहद महत्वपूर्ण और नाजुक है और हम सबकी भलाई इसी बात में है की हम इसके साथ न खेले नहीं तो इसके नतीजे और भी गंभीर हो सकते हैं.  २०२५ में अब तक उत्तराखंड में बहुत सी घटनाएं हुए हैं जो हमें इशारा कर रही हैं की समय है हम चेत जाएँ. 

  1. केदारनाथ में हेलीकॉप्टर दुर्घटना (15 जून, 2025): केदारनाथ धाम की ओर जा रहा एक हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें 5 लोगों की मृत्यु हो गई। यह घटना आपदा प्रबंधन में कमियों को उजागर करती है।

  2. चमोली और रुद्रप्रयाग में भारी बारिश और भूस्खलन (जुलाई-अगस्त 2025): मौसम विभाग ने 25 और 29 जुलाई को रुद्रप्रयाग, बागेश्वर, और उत्तरकाशी में भारी बारिश का ऑरेंज अलर्ट जारी किया था। भारी बारिश के कारण भूस्खलन और सड़क बंद होने की घटनाएँ हुईं, जिससे यात्रियों और स्थानीय लोगों को भारी परेशानी हुई।

  3. नैनीताल और भीमताल में बाढ़ (3 अगस्त, 2025): गौला नदी के उफान पर आने और बैराज से 10,000 क्यूसेक पानी छोड़े जाने के कारण नैनीताल और भीमताल में जलभराव और सड़क बंद होने की स्थिति बनी। एक बरसाती नाले में दो स्कूटी सवार बह गए, जिनमें से एक लापता हो गया।

  4. बद्रीनाथ राजमार्ग पर भूस्खलन (3 अगस्त, 2025): विष्णु प्रयाग के पास लगातार बारिश के कारण भूस्खलन हुआ, जिससे बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग अवरुद्ध हो गया। प्रशासन ने यात्रियों को सुरक्षित स्थानों पर रुकने की सलाह दी।

  5. ५ अगस्त को ही उत्तरकाशी के दो और स्थानों पर बादल फटने की घटनाएं हुई हैं. त्य्युनी में यमुना नदी में भयानक उफान दिखाई दे रहा है. मन्दाकिनी, पिंडर, अलकनंदाम, नयार, खो आदि सभी नदियों  में जबरदस्त बाढ़ है. उत्तराखंड के काली क्षेत्र की खबरे तो अभी अधिक नहीं आ रही लेकिन काली-शारदा-घाघरा का क्षेत्र उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और बिहार में सर्वाधिक आपदाओं वाला रहा है. मानसून में ये सभी अपनी 'सीमारेखा' के ऊपर ही बहती हैं.  हालाँकि उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएँ कोई नई बात नहीं हैं लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि उनसे कुछ सीखा जाए. ऐसा लगता है कि उनसे कोई भी सबक नहीं लिया जाता क्योंकि यदि ऐसा होता तो हमारी पर्यटन और विकास के मॉडल पर प्रश्न चिन्ह होते लेकिन वे अपने पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं .  पिछले कुछ दशकों में कई बड़ी घटनाएँ हुई हैं:

  • 1991 उत्तरकाशी भूकंप: 6.8 तीव्रता के भूकंप में 768 लोगों की मृत्यु हुई।
  • 1998 माल्पा भूस्खलन: पिथौरागढ़ में 255 लोग मारे गए, जिसमें 55 कैलाश मानसरोवर यात्री शामिल थे।
  • 2013 केदारनाथ आपदा : केदारनाथ में बादल फटने और भूस्खलन से 5,700 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
  • 2021 ऋषिगंगा आपदा: चमोली में हिमनदी झील के फटने से 204 लोग मारे गए, जिनमें से 124 लापता रहे।

पर्यावरण और नीतिगत चुनौतियाँ

केंद्र सरकार ने २०१० में उत्तराखंड में  उत्तरकाशी-गौमुख  के १३० किलोमीटर क्षेत्र को 2010 में पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया था, जिसकी अंतिम  अधिसूचना 2012 में आई।  नेताओं ने इसे विकास विरोधी कहा और हकीकत में इसका कभी ईमानदारी से पालन ही नहीं हुआ. फलस्वरूप  अनियोजित निर्माण, जलविद्युत परियोजनाएँ, और चारधाम यात्रा के लिए सड़क चौड़ीकरण जैसे कार्यों ने इस नाजुक क्षेत्र को और अधिक कमजोर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में चेतावनी दी थी कि यदि सरकार ने कार्रवाई नहीं की, तो हिमाचल प्रदेश  जैसे राज्य नक्शे से गायब हो सकते हैं हालाँकि उनकी टिपण्णी हिमाचल के सन्दर्भ में थी लेकिन यह बात उत्तराखंड जैसे राज्य पर भी वैसे ही लागू होती है. 

NGT के 2017 के आदेश के अनुसार उत्तराखंड में नदी तट से  १००  मीटर तक कोई निर्माण नहीं होना चाहिए, और 50-100 मीटर तक का क्षेत्र नियामक क्षेत्र माना जाना चाहिए। फिर भी, उत्तराखंड में नदी तटों पर होटल और रिसॉर्ट्स का निर्माण जारी है, जो आपदाओं को बढ़ावा देता है। खो नदी पर दुगड्डा लैंसडाउन मार्ग पर आप होटल और रिजोर्ट देख सकते हैं. कोटद्वार दुगड्डा मार्ग पर भी आपको ऐसा दिखाई देगा. ऋषिकेश देवप्रयाग मार्ग पर आपको शुरू से ही राफ्टिंग के लिए टेंट नदी पर ही लगे मिलेंगे. देहरादून में सोंग नदी क्षेत्र में भी लोगो का कब्जा बना रहता है. शहर के मध्य में रिप्सना नदी क्षेत्र में तो अब लोगो की कोलोनिया ही बन गयी है. आखिर ये सब लोग अपने आप तो नहीं कर सकते. बिना प्रशासन की शह या सत्ताधारियो के आशीर्वाद और खुले समर्थन के बिना ऐसा संभव नहीं है. आखिर क्यों हम अपनी नदियों और पहाडियों के प्रति संवेदनशील दिखाई दे रहे हैं ? पहाड़ और नदिया उत्तराखंड की संस्कृति और पहचान है और इनको बचाने की लड़ाई भी उत्तराखंड के मूलनिवासियो को ही लडनी पड़ेगी क्योंकि मैदान से आने वाले टूरिस्ट के लिए ये रील या सेल्फी से अधिक कुछ नहीं रह गया है. लोग अपने भगवानो से आशीर्वाद के लिए आते हैं, पहाड़ो से उन्हें कोई मतलब नहीं. वे तो चाहते हैं की उन्हें इतनी सुविधाए मिल जाएँ कि चलने में थोड़ा भी मेहनत न करनी पड़े और सरकार उन्हें वो सब देना चाहती है जो वो चाहते हैं.. 

उत्तराखंड में बढ़ती आपदाएँ केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय और नीतिगत कमियों का परिणाम भी हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि:

  • पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण पर सख्ती से रोक लगाए।
  • चारधाम यात्रा को नियंत्रित कर पर्यटकों की संख्या सीमित करे।
  • हिमनदी झीलों की निगरानी और आपदा प्रबंधन प्रणाली को मजबूत करे. 
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ाकर स्थाई  विकास को बढ़ावा दे जिससे स्थानीय लोगो को लाभ भी हो. 
  • जलवायु परिवर्तन के प्रश्न अब हमारे पाठ्यक्रमो में आना आवश्यक है और इसके साथ ही हमारे औद्योगिक नीति में भी ऐसे निर्माण और उद्योगों को ही प्रश्रय दिया जाए जो पर्यावरणीय मापदंडो और पहाड़ो की संवेदनशीलता के अनुसार हो. 
  • उत्तराखंड में अब और जल विद्युत् या रेलवे आदि की परियोजना पर विचार न करें. हम पुरानी परियोजनाओं को रोकने की बात नहीं कर रहे लेकिन भविष्य में ऐसी किसी परियोजना पर विचार न करें. 







हम धराली आपदा में पीड़ित सभी लोगों की सुरक्षा और संरक्षा की कामना करते हैं। जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोया, उनके प्रति हमारी गहरी संवेदनाएँ हैं। सशस्त्र बलों, NDRF, और SDRF के कार्यकर्ताओं को सलाम, जो दिन-रात लोगों की जान बचाने में जुटे हैं। उत्तराखंड के लोग बेहतर के हकदार हैं। सरकार को इस क्षेत्र की पर्यावरणीय संवेदनशीलता का सम्मान करते हुए अपनी नीतियाँ बनानी चाहिए। क्या सरकार विपक्ष, सामाजिक और नागरिक संगठनो, पर्यवारणविदो के साथ चर्चा कर उत्तराखंड के भविष्य पर कोई सार्थक पहल कर सकती है. ये समय है जब उत्तराखंड के चाहने वाले और हिमालय को प्यार करने वाले सभी लोगो को एक साथ आकर संयुक्त रूप से सोचने की और मिलबैठ कर संवाद करने की ताकि पहाड़ो को बचाया जा सके. पहाड़ बचेंगे तो उत्तराखंड की अस्मिता और पहचान भी ज़िंदा रहेगी. पहाड़ो के बिना पहाड़ी नहीं, ये बात याद रखने की है. 


रविवार, 3 अगस्त 2025

हिमालयी क्षेत्रो की संवेदनशीलता को समझे सरकार

 विद्या भूषण रावत

"वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य गायब हो सकता है," भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह चेतावनी दी है। उन्होंने आगे कहा, "भारत सरकार का भी यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्य में पर्यावरणीय संतुलनऔर नहीं बिगड़े ताकि प्राकृतिक आपदाएँ न हों। हम राज्य सरकार और भारत सरकार को यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि राजस्व कमाना ही सब कुछ नहीं है। अगर चीजें वर्तमान की तरह ही आगे बढ़ती रहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से हवा में गायब हो सकता है।"

यह भयावह चेतावनी ऐसे समय में आई है जब हिमाचल प्रदेश और इसका पड़ोसी राज्य उत्तराखंड अभूतपूर्व आपदाओं से जूझ रहे हैं। अचानक बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने की घटनाएँ और बुनियादी ढाँचे का ढहना अब तकलीफदेह रूप से आम हो गया है। हालाँकि सरकारे इस कोशिश में हैं कि अब आपदाओं और उनसे होने वाली मौतों का सामान्यीकरण हो जाए और लोग इस पर गुस्सा होने के बजाये इसे अपने जीवन के हिस्से के तौर पर ले. इसीलिये इस वर्ष राज्य सरकारों की और से आपदाओं और उनसे होने वाली मौतों की कोई विशेष जानकारी नहीं है. आज के दौर में केवल एक ही आंकड़ा 'विश्वास' के साथ दिया जा रहा है और वो यह की कितने करोड़ लोगो ने चार धाम यात्रा की और हरिद्वार में कितने लाख कांवरिये आये और कैसे प्रशासन ने उनकी व्यवस्था की. मतलव पूरा प्रशासन अब इन यात्राओ के आगे नतमस्तक है और उत्तराखंड के मूलनिवासी अपनी आर्थिक सामजिक सांस्कृतिक हालातो से जूझ रहे हैं. अमूमन यही हाल हिमाचल का है.

हिमाचल प्रदेश के आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, हिमाचल प्रदेश को 20 जून से मानसून की शुरुआत के बाद से 1,539 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है। चौवन लोगों की जान जा चुकी है, और 36 लोग अभी भी लापता हैं। 1,350 से अधिक घर आंशिक या पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए हैं। एनडीटीवी ने 2 अगस्त, 2025 तक की रिपोर्ट में बताया कि हिमाचल प्रदेश में 173 लोगों की मृत्यु हो चुकी है, 37 लोग लापता हैं, और 115 घायल हुए हैं। 6 जुलाई तक 23 बाढ़ की घटनाएँ और 19 बादल फटने की घटनाएँ दर्ज की गईं। अधिकांश मौतें बारिश के चलते हुई हैं.

उत्तराखंड, जो अक्सर आपदा सुर्खियों में अग्रणी रहता है, में भी यही पैटर्न दिखाई देता है। 4 जुलाई तक, इसने 70 मौतें दर्ज कीं—20 प्राकृतिक आपदाओं के कारण और 50 सड़क दुर्घटनाओं से। कई लोग लापता हैं, और 177 लोग घायल हुए हैं। हालाँकि ये आंकड़े अखबारी हैं और इनमे निश्चित तौर पर बढ़ोतरी होगी. असल में दोनों राज्य सरकारों को पुरे राज्ये के इन आंकड़ो की विस्तृत जानकारी लोगो के साथ साझा की जानी चाहिए.

पिछले कुछ वर्षो में इन दोनों हिमालयी राज्यों को "देवभूमि"—देवताओं की भूमि—के रूप में चित्रित किया जाता रहा है, विशेषकर उत्तराखंड को जिसके चलते चार धाम यात्रा में लोगो की भागीदारी बेहद अधिक बढ़ गयी. सरकार की कोशिश है कि अधिक से अधिक तीर्थयात्री उत्तराखंड आ जाए हालाँकि ये भी हकीकत है कि इतनी बड़ी संख्या में बाहरी लोगो के आने और रुकने के लिए उत्तराखंड और हिमाचल दोनों प्रदेशो में न तो कोई ढांचा है और न ही वह संभव है. यदि मैदानी क्षेत्रो के लोगो के ऐसो आराम के लिए उनके 'घर' की तरह फाइव स्टार सुविधाएं देने की कोशिश की गयी तो ये इन दोनों प्रदेशो के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है और इसके परिणामभयानक हो सकते हैं. हम ये देख भी रहे है कि दोनों क्षेत्रो में लगातार भू स्खलन हो रहे हैं. जहां सरकारे अपने 'अतिथियो' के स्वागत में पलकपांवड़े बिछाने को तैयार बैठी है वही दोनों प्रदेशो में वहा के मूल निवासियों के आर्थिक सामाजिकहालत लगातार मुश्किल होते जा रहे हैं.

दोनों प्रदेशो के दूर दराज के गाँवों में रहने वाले लोग अभी भी स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा व्यवस्था से वंचित हैं. बड़ी संख्या में गाँवों तक पहुचने का कोई सडक मार्ग नहीं है और आज भी बच्चो को मानसून के समय उफनती नदियों को पार करके जाना पड़ता है. दोनों प्रदेशो में स्थानीय लोगो के लिए बना बुनियादी ढाँचा चरमरा गया है क्योंकि सत्ता की पूरी चिंता 'मेहमाननवाजी' की है जिसके चलते मेजबान 'असहाय' सा हो गया है.

हिमाचल और उत्तराखंड दोनों का उपयोग केंद्र सरकारों द्वारा निजी हितों को बढ़ावा देने के लिए किया गया है, जिसे जलविद्युत परियोजनाओं और सामूहिक धार्मिक पर्यटन के नाम पर किया जाता है, जबकि स्थानीय आबादी की जरूरतों और आवाज़ों को दरकिनार किया जाता है।

हर साल, ये नाजुक राज्य असहनीय पर्यटकों की भीड़ से अभिभूत हो जाते हैं, जो अक्सर उनके बुनियादी ढाँचे की क्षमता से अधिक होती है। यह जिम्मेदार पर्यटन नहीं है—यह लापरवाही भरा अति-शोषण है। पर्यटन विकास को बढ़ावा देते हैं का विश्लेषण करने की जरुरत है. पर्यटन आवश्यक है लेकिन अनियंत्रित पर्यटन हिमालयी राज्यों में कहर ढा रहा है. अभी तक तो इस पर्यटन से कोई विशेष विकास हुआ हो ऐसा दिखाई नहीं देता.

पहाड़ों से आने वाले एक व्यक्ति के रूप में, मैं गवाही दे सकता हूँ कि चार धाम यात्रा के नाम पर होने वाला यह सामूहिक पर्यटन स्थानीय परंपराओं को खतरनाक रूप से कमजोर कर रहा है और पहाड़ो के संवेदनशील प्राकृतिक तंत्र को बाधित कर रहा है। मुझे नहीं लगता की इससे पहाड़ो को बहुत अधिक लाभ हो रहा हो क्योंकि आज भी उत्तराखंड केंद्र के भरोसे अधिक है क्योंकि अभी भी यहाँ पर स्थानीय मूलनिवासी जनता के आर्थिक स्वावलंबन के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हुए हैं. पूरी राजनीती लफ्फाजी और तथाकथित राष्ट्रवाद पर हो रही है जिसमे पहाड़ी राष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई देता. हिंदुत्व के बड़े अजेंडे के अन्दर पहाड़ी अस्मिता को समाहित करने के प्रयास हो रहे हैं. मैदानी क्षेत्रो से आने वाले लोग जो अपनी शान शौकत और राजनितिक कनेक्शन, बड़ी गाडियों के साथ अपनी ताकत का भौंडा प्रदर्शन करते हुए दिखाई देते हैं . अपनी अकड में वे अक्सर इन स्थानों को अपने निजी खेल के मैदान के रूप में मानते हैं, स्थानीय लोगो की भावनाओं से बेपरवाह ये लोग पूरी बेशर्मी के साथ सार्वजनिक रूप से शराब पी रहे हैं , लडकियों से छेड़खानी की घटनाओं में वृद्धि हुई है और और गाँवों से लडकियों और युवाओं के गायब होने या अपहरण की सूचनाएं भी लगातार बढ़ रहे हैं. मै उस उत्तराखंड से आता हूँ जहा लोग अपने घरो पर ताले नहीं लगाते थे और पुलिस के अधिकारी वहा स्थानांतरण होने को अच्छा नहीं मानते थे क्योंकि उनकी कोई 'कमाई' नहीं थी.

आज हिमालय पर सांस्कृतिक हमला भी है और इसके परिणाम भी उतने ही चिंताजनक हैं। हिमालयी समाज ऐतिहासिक रूप से मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक समतावादी और आजाद ख्याल रहे हैं। स्थानीय खान-पान की आदतें, महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिका, और विकेन्द्रीकृत धार्मिक परंपराएँ एक बहुलवादी लोकाचार को दर्शाती हैं। आज, वे ही तत्व खतरे में हैं। धार्मिक एकरूपता को बाहर से थोपा जा रहा है, जो स्थानीय देवताओं और रीति-रिवाजों को कमजोर कर रहा है। इसमें उन क्षेत्रों में शाकाहारी मानदंडों का बढ़ता थोपना शामिल है, जहाँ परंपरागत रूप से पशु बलि धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा थी। खाडू और बुख्थ्या हमारी देवी देवताओं की परम्पराओ से जुड़े हुए हैं. पहाड़ो को शराब के नाम पर बदनाम किया जाता है लेकिन बहुत सी परम्पराए भौगोलिक परिशितियो के कारण भी होती है. शराब पीना पहाड़ी क्षेत्रो में सामान्य बात हो सकती है लेकिन वो यहाँ पर कभी समस्या नहीं रहा. देश के अन्य हिस्सों की तरह, उत्तराखंड और हिमाचल का सांस्कृतिक पारिद्रृश्य बिलकुल अलग है और नेपाल या उत्तर पूर्व के राज्यों से मिलता जुलता है, जहा लोग अपनी जिंदगी को उन्मुक्तता से जीते हैं और खान पान के सवालों को लेकर मध्य भारत का पोंगापंथी वैचारिक तंत्र पहाड़ो पर लादने के अच्छे परिणाम नहीं होंगे.

सभी दलों के राजनेता तीर्थयात्राओं के दौरान बढ़ती मृत्यु दर या पारिस्थितिकीय लागत को संबोधित किए बिना "रिकॉर्ड" पर्यटक संख्या का जश्न मनाते रहते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में अप्रैल में ही चार धाम यात्रा के दौरान 65 से अधिक मौतें हुईं, जो हृदयाघात, उच्च ऊँचाई की बीमारी और भूस्खलन जैसे कारणों से हुईं। हेलीकॉप्टर दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या भी नाजुक हवाई गलियारों पर असहनीय दबाव को दर्शाती है, जो सब कुछ मुनाफे के नाम पर है।

यदि सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में अपनी बात को गंभीरता से लेता है, तो अब कठोर कार्रवाई बहुत जरूरी है। सरकारों—राज्य और केंद्र दोनों—ने खराब नियोजित परियोजनाओं, अंधाधुंध निर्माण और अनियंत्रित पर्यटन के माध्यम से इस आपदा को और अधिक भयानक बनाया है। इससे भी बदतर, उन्होंने क्षेत्र के आध्यात्मिक चरित्र को बदल दिया है। ये पहाड़ कभी इस तरह के संगठित धार्मिक अनुष्ठानों का स्थान नहीं थे, जैसा कि अब देखा जा रहा है। प्रत्येक घाटी और गाँव का अपना देवता, अनुष्ठान और लय है—जो लाउडस्पीकर, डीजे, और विकास के बहाने उग आए विशाल सीमेंट संरचनाओं के साथ संरेखित नहीं है। पहाड़ो में स्थानीय देवी देवताओं का महत्त्व राष्ट्रीय दिखने वाले भगवानो से अधिक है. नंदा देवी राजजात यात्रा, महासू देवता, गोल्ज्यू देवता, ज्वाल्पा देवी, धारी देवी और अनेको तीर्थो का महत्त्व स्थानीय लोगो के लिए बहुत अधिक है. उनका महत्त्व उनके स्थानीय रूप में ही है और उन्हें मैदानी 'नैतिकता' के अनुसार बदलने की आवश्यकता नहीं है. हिमाचल प्रदेश में भी स्थानीय देवो का बहुत बड़ा महत्व है. असल में यमुना घाटी में तो महासू देवता हिमाचाल उत्तराखंड के संयुत्क संस्कृति का हिस्सा है.

पहाड़ो में आज भी पुराने मंदिर वहा की स्थापत्य कला का प्रतीक है. वे जैसे हैं उन्हें वैसे ही रहने दें. विकास के नाम पर वास्तुकला का 'गुजरातीकरण' न होने दे.। मैगी नूडल्स, ढोकला, आलू पराठा जैसे क्षेत्र के लिए विदेशी खाद्य पदार्थों की माँग ने पारंपरिक भोजन को पीछे छोड़ दिया है। आज पहाड़ के ढाबो में स्थानीय भोजन कम मिलता है. फान्दू, कफली, धबडी, चैसू आदि आपको मुश्किल से ही मिल पाएंगे. नदियाँ, जो कभी पूजनीय और संरक्षित थीं, अब उनके स्रोत पर ही प्रदूषित हो रही हैं। भक्त लोग मैदान से लायी अपनी गन्दगी पहाड़ो पर छोड़ कर आ रहे हैं. यमुनोत्री और अन्य स्थानों पर लोग नदियों पर नहाकर अपने वस्त्र वही बहा दे रहे हैं. असल में मैदानी क्षेत्रों के विपरीत, सामूहिक नदी स्नान हिमालयी रीति-रिवाजों का हिस्सा कभी नहीं रहा। गंगा स्नान की परंपराएँ हरिद्वार और वाराणसी की हैं, केदारनाथ या किसी भी अन्य हिमालयी क्षेत्र की नहीं है क्योंकि नदियों का वेग इतना तेज होता है कि आपको सीधे बहा ले जाएगी. पहाड़ो का नदियों से अध्यात्मिक और सांस्कृतिक रिश्ता है इसलिए कोई उन्हें गन्दा नहीं करता. नदियों किनारे मलमूत्र करने की परम्परा पहाड़ो में बहुत कम है.

इसी प्रकार कांवर यात्रा भी भी परम्पपरा पहाड़ों में नहीं है। अधिकांश कांवरिये मैदानी क्षेत्रों—हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली—से आते हैं और अपने साथ एक ऐसी संस्कृति लाते हैं जो स्थानीय लोकाचार से बिलकुल भिन्न है. पहाड़ो में धर्म के नाम पर कोई हिंसा या घृणा अमूमन नहीं सुनी जाती. स्थानीयता में विभिन्नता है और सभी अलग अलग अपनी अपनी परम्पराओं को मानते हैं.

यदि सर्वोच्च न्यायालय गंभीर है, तो उसे मूल पहाड़ी आबादी के अधिकारों, संस्कृतियों और पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए जोर देना चाहिए। विकास को स्थिरता, समता और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के माध्यम से पुनर्कल्पित करना होगा। हिमाचल और उत्तराखंड के लोग लंबे समय से अपने परिवेश के साथ सामंजस्य में रहते आए हैं। यदि भारत के इस नाजुक लेकिन महत्वपूर्ण हिस्से को बचाना है, तो नीति और नियोजन में उनकी भागीदारी अनिवार्य है।
अब समय है कि हम अनुष्ठानों के नाम पर हिमालय का दुरुपयोग बंद करें और इसके सच्चे स्वरूप—पवित्र, विविध और इसके लोगों में निहित—का सम्मान शुरू करें। यहाँ सतत विकास की शुरुआत स्थानीय समुदायों को स्वीकार करने और सशक्त बनाने से होनी चाहिए. अभी तक हिमालय में कैसा विकास हो और कैसी व्यवस्था हो इस विषय में यहाँ की मूलनिवासियो को छोड़ कर हर एक से पूछा जा रहा है. हिमालयी क्षेत्रो को रहस्यमयी बनाने से अधिक आवश्यक है की इन क्षेत्रो में रह रहे मूलनिवासियो के अधिकारों को बचाया जाए और विकास और पर्यटन के नाम पर शोषण का जो नया नेटवर्क चल रहा है उसे रोका जाए. पिछली आपदाओ का सबक यही है कि धर्म और विकास की इस अनियंत्रित होड़ पर लगाम लगाईं जाए और स्थानीय मूलनिवासियो से बात कर ऐसी व्यवस्था बने जिसमें लोगो के मूलअधिकार बने रहे और तभी हिमालय सुरक्षित रहेंगे. हिमालय का संरक्षण हमारी राष्ट्रीय जिम्मेवारी है लेकिन वो बिना स्थानीय लोगो की भागीदारी और सहयोग के असंभव है. एक और महत्वपूर्ण बात, हिमालय और गंगा सहित हमारी नदिया सभी नदिया हमारी सांस्कृतिक विरासत है और इन्हें 'संशाधन' समझ व्यापारियों की लूट का साधन न बनने दिया जाए तभी हम सब सुरक्षित रहेंगे.

सोमवार, 28 जुलाई 2025

पेरियार की धरती पर जातिगत हिंसा से उपजे प्रश्न

 

जाति विरोधी  आन्दोलन जातीय घृणा और हिंसा को रोक्पाने में असफल क्यों ?


विद्या भूषण रावत

तमिलनाडु में 'सम्मान' के नाम पर एक और हत्या हुई है, इस बार तिरुनेलवेली में, जहां अनुसूचित जाति समुदाय के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर को उस लड़की के भाई ने बेरहमी से काट डाला, जिससे वह बचपन से प्यार करता था। केविन सेल्वा गणेश नामक 27 वर्षीय युवक जो देवेन्द्र कुला वेल्लालार समुदाय से आते थे एक मेधावी छात्र थे और टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS) में कार्यरत थे। उनका अपने स्कूल के दिनों की सहपाठी सुभासिनी के साथ प्यार था और वह उससे शादी करने की योजना बना रहे थे। ऐसा प्रतीत होता है कि लड़की के माता-पिता को इस रिश्ते की जानकारी थी। दोनों तमिलनाडु पुलिस में कार्यरत हैं, और ऐसा लगता है कि परिवार ने केविन को खत्म करने की साजिश रची थी। लड़की के भाई सुरजीथ ने केविन को कुछ मुद्दों पर चर्चा करने के लिए मिलने के बहाने बुलाया। दुर्भाग्यवश, मीडिया के अनुसार, केविन ने सुभासिनी के भाई सूरजिथ पर भरोसा किया और उसके साथ चला गया। कुछ दूरी पर, सुरजिथ ने अपने साथ ले जा रहे हसिए से केविन को काट डाला। इस तरह, तमिलनाडु में एक और प्रतिभाशाली युवक को केवल झूठे 'जातिगत' गर्व के लिए मार डाला गया।

सम्मान हत्याओं का बढ़ता आंकड़ा

तमिलनाडु में इन हत्याओं की बढ़ती संख्या हमारे देश की सामाजिक वास्तविकता को दर्शाती है: तथाकथित सामाजिक सुधार तब तक स्वीकार्य हैं, जब तक हम अपनी जातिगत पहचान और पदानुक्रम को बनाए रखते हैं। यह एक दुखद सच्चाई है कि हालांकि तमिलनाडु ने कई संकेतकों पर देश के बाकी हिस्सों से बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन अंतरजातीय रिश्तों में यह हिंसक बना हुआ है, जब भी जातिगत मानदंडों को चुनौती दी जाती है। यह बताया गया है कि 2017 से 2021 के बीच तमिलनाडु में 65 सम्मान हत्याएं हुईं, जबकि अन्य राज्यों की तरह, सरकारी रिकॉर्ड में 2015 से 2021 के बीच केवल 3 'सम्मान हत्याओं' का उल्लेख है। सम्मान हत्याएं, जो अक्सर जातिगत या सामुदायिक गर्व के नाम पर की जाती हैं, भारत में एक गंभीर सामाजिक समस्या हैं। ये हत्याएं न केवल व्यक्तिगत जीवन को नष्ट करती हैं, बल्कि समाज में गहरी जड़ें जमाए जातिगत भेदभाव को भी उजागर करती हैं। वैसे ये आवश्यक है कि हम इन्हें न तो ओनर किल्लिंग कहे और न ही सम्मान ह्त्या. ये शुद्ध रूप से जातीय हिंसा है और इसके लिए जाति हिंसा विरोधी कानूनों को और मजबूत बनाना होगा और कम से कम सरकारी नौकरियों या राज्य सरकार की सेवाओं में कार्य कर रहे लोगो के विचारात्मक पक्ष को संविधानसम्मत करना होगा ताकि वे अपने जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर कार्य कर सके. अभी तो तो ये काम नहीं हो पाया है और स्वाधीन भारत का सबसे बड़ी असफलता हमारी सरकारी सेवाओं में जाति मुक्त समाज की सोच के अभाव का होना ही है जिसके फलस्वरूप अधिकारी किसी भी कार्य में जातिगत पूर्वाग्रह के ही काम करते हैं.

पेरियार और जातिवाद विरोधी आंदोलन

हमने ऐसी कई क्रूर कहानियां पढ़ी हैं। भारत अपनी जातिगत पहचान की शुद्धता और अन्य जातियों की हीनता के मुद्दे पर एकजुट है। दिलचस्प बात यह है कि तमिलनाडु #जातिवादविरोधी राजनीति का गढ़ है, जिसे #पेरियार और #द्रविड़ आंदोलन ने शुरू किया था। मुझे यकीन है कि अगर पेरियार आज जीवित होते, तो वे इस तरह के आपराधिक कृत्य के खिलाफ एक विशाल आंदोलन का नेतृत्व करते।

केविन और सुभासिनी की पृष्ठभूमि

केविन और सुभासिनी की आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि पर नजर डालें। केविन की मां एक शिक्षिका हैं, जबकि सुभासिनी के माता-पिता तमिलनाडु पुलिस में सब-इंस्पेक्टर हैं। दोनों अच्छी तरह से शिक्षित हैं। केविन एक मेधावी छात्र थे, जिन्होंने अपनी इंजीनियरिंग पूरी की और TCS में नौकरी की, जबकि सुभासिनी ने सिद्ध चिकित्सा और सर्जरी में स्नातक पूरा करने के बाद एक निजी सिद्ध क्लिनिक में सलाहकार के रूप में काम कर रही थीं। केविन की मां पंचायत में शिक्षिका थीं, जबकि उनके पिता एक खेतिहर मजदूर थे। यह दर्शाता है कि शिक्षा ने हमारे सामाजिक विचारों को नहीं बदला है, और भारत में जातिगत पहचान सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी हुई है। सामाजिक वैज्ञानिकों और राजनेताओं द्वारा की गई अन्य सभी व्याख्याएं एक छलावा हैं। भारत में प्रत्येक जाति अलग रहना चाहती है, सबसे शुद्ध होने का दावा करती है और अपने महान अतीत का दंभ भरती है। यह एक कड़वी सच्चाई है। बाबा साहेब ने इसकी सच्चाई बहुत पहले ही समझा दी थी कि हम एक पदानुक्रम समाज के लोग हैं जो अपने से ऊपर वाले को प्रणाम करते हैं और नीचे वालो को हे दृष्टि से देखते हैं.

जातिगत पहचान का मुद्दा

इस मामले में, केविन देवेंद्र कुला वेल्लालर समुदाय से थे, जो अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत है, जबकि सुभासिनी मारवर समुदाय से थीं, जो अति पिछड़ा समुदाय के रूप में वर्गीकृत है। दिलचस्प बात यह है कि देवेंद्र कुला वेल्लालर, जो आधिकारिक तौर पर सात समुदायों का समूह है, अनुसूचित जाति की श्रेणी से हटाए जाने की मांग कर रहा है। मुझे याद है कि इस समुदाय के नेता, डॉ. के. कृष्णासामी, जो पुथिया तमिलगम पार्टी के नेता हैं, इस अभियान में सबसे आगे रहे हैं। दुख की बात है कि यही कृष्णासामी #उत्तरप्रदेश में BSP के उदय से प्रेरित होकर तमिलनाडु में इसे दोहराना चाहते थे, लेकिन 20 साल बाद, मैंने उन्हें अनुसूचित जाति की सूची से हटाने के अभियान का नेतृत्व करते देखा। मैंने प्रदर्शन में शामिल कई दोस्तों से पूछा कि वे क्यों अलग होना चाहते हैं, और उन्होंने कहा कि वे अनुसूचित जातियों के साथ जुड़ना नहीं चाहते क्योंकि वे अछूत नहीं हैं और उन्हें जातिगत कलंक का सामना करना पड़ता है। विडंबना देखिए: देवेंद्र कुला वेल्लालर समुदाय का एक मेधावी लड़का मारवर समुदाय के एक परिवार द्वारा मार डाला गया, जो यह मानता था कि वे निम्न जाति से हैं।

राजनीति में जाति का उपयोग

कोई भी राजनेता इसे खत्म करना नहीं चाहता। #जाति राजनीतिक लामबंदी का सबसे बड़ा हथियार बन गई है। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस जाति का आह्वान करें और ऐतिहासिक गर्व का एक झूठा विचार पैदा करें, और हजारों लोग आपके साथ जुड़ जाएंगे। बाबा लोग इसे हिंदुत्व पहचान का उपयोग करके थोड़ा अलग तरीके से कर रहे हैं, लेकिन वे जातियों को खत्म नहीं कर सकते क्योंकि वे स्वयं जाति की शुद्धता की बीमारी से पीड़ित हैं।

संविधान और सामाजिकता

एक और महत्वपूर्ण बात: लड़की के माता-पिता पुलिस में काम करते हैं। वे सब-इंस्पेक्टर हैं। यह क्या दर्शाता है? संविधान हमारी सामाजिकता का हिस्सा नहीं है। हम इसका सम्मान नहीं करते। हमें इसकी जरूरत तब पड़ती है जब हम मुसीबत में होते हैं; अन्यथा, हमें इसकी जरूरत नहीं। आखिरकार, हम अपनी जातिगत पहचान के प्रति समर्पित हैं, और बाद में राजनीतिक सुविधा के लिए खोजी गई अन्य सभी बनाई गई पहचान और सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा की गई व्यापक सामान्यीकरण कुछ भी नहीं बल्कि काल्पनिक हैं। किसी भी गांव में जाएं, और आप पाएंगे कि लोग केवल अपनी जातिगत पहचान का उपयोग करते हैं, न कि #OBC, #दलित, या #MBC, बल्कि अपनी #जाति। पहचान का वर्गीकरण शासन के उद्देश्यों के लिए किया गया है, लेकिन इसने जातिगत पहचान की दीवारों को कहीं भी आंतरिक रूप से खत्म नहीं किया है, और यह तब तक ठीक लगता है जब तक कि अंतरजातीय रिश्ते न हों। राजनीति में हम चिल्ला सकते हैं 'सभी बहुजन एकजुट हैं', सभी दलित बहुजन आदिवासी मुस्लिम एक हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि हम में से प्रत्येक और हमारे राजनीतिक नेता इन शब्दावलियों का उपयोग अपने उद्देश्यों के लिए करते हैं। अंत में, जाति मायने रखती है। ये दीवारे अभेद्य हैं और जो इनसे पार जाने की कोशिश कर रहे हैं या तो मार दिए जा रहे हैं और यदि किसी तरह से ज़िंदा हैं तो तो वे अलग थलग हैं. मजेदार बात यह की जिन्होंने जाति की दीवारों को तोड़कर प्रेम विवाह किया है वे भी इन दीवारों को तोड़ना नहीं चाहते क्योंकि राजनीती में जाति आपकी ताकत है.

जातिवाद विरोधी आंदोलन की चुनौतियां

#जातिवादविरोधी आंदोलन तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि पार्टियां जातिगत गर्व को बढ़ावा देती रहेंगी। बहुत कम मामले पुलिस स्टेशन या अदालत तक पहुंचते हैं। ज्यादातर समय, इन्हें सामान्य हत्या के मामलों के रूप में देखा जाता है और मीडिया में कुछ शोर के बाद गायब हो जाते हैं। इनका कोई अनुसरण नहीं होता। भारतीय मीडिया के पास इसके लिए समय नहीं है। यह तब समय निकालेगा जब यह राजनीतिक स्वामियों के लाभ के लिए उपयोगी होगा। #जातिवादविरोधी आंदोलन तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि यह सभी प्रकार की हिंसा के खिलाफ खुलकर न बोले। इसे सुविधानुसार नहीं, बल्कि जोरदार ढंग से बोलना होगा। कुछ दिन पहले हमने #गुरुग्राम में भी ऐसी ही सम्मान हत्या देखी, जहां #राधिकायादव को उसके पिता ने मार डाला, लेकिन बहुत सुविधाजनक ढंग से #जाति बुद्धिजीवियों ने चुप्पी साध ली। यह उनका मुद्दा नहीं था। यह मुद्दा केवल तब जातिगत बनता अगर कोई दूसरी जाति उसे मारती। दुखद रूप से, #सामाजिकन्याय पार्टियों और उनके बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे पर नहीं बोला। यह उन लोगों की पूर्ण पाखंडिता को दर्शाता है जो #जातिवादविरोधी आंदोलन या #सामाजिकन्याय के लिए काम करने का दावा करते हैं। अक्सर हम अंतरजातीय विवाहों की बात करते हैं लेकिन ऐसे विवाह कभी संभव नहीं हैं. अंतरजातीय या अंतर्धार्मिक विवाह तभी होते हैं जब वे प्रेम विवाह होते हैं यानी व्यक्तियों की अपनी चाहत के साथ. किसी भी परिवार के बुजुर्ग लोग अपने बच्चो का विवाह स्वयं से अंतरजातीय या अंतर्धार्मिक नहीं करेंगे. जब बच्चे यदि स्वयं निर्णय लेकर उनके पास जाते हैं तो उन्हें सबसे बड़ा विरोध झेलना पड़ता है. कई लोग 'अपना दिल बड़ा कर' इसे स्वीकार कर लेते हैं, बहुत से लोग इस हिदायत के साथ की घर नहीं आना है और कई इसके साथ कि दुनिया को पता न चले. बड़े राजनेताओ और फिल्म कलाकारों की बात और है. नेता विवाह करने के बाद भी चुप रहते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते की उनके विवाह का उनके जातीय वोट बैंक पर कोई असर पड़े इसलिए वे चुप रहते हैं. मै तो बहुत से ऐसे लेखको विचारको को जानता हूँ जिनका प्रेम विवाह है लेकिन वे कभी इसके समर्थन में या इस प्रकार की जातीय हिंसा के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहते क्योंकि वे अपने 'प्रशंसको' को 'निराश' नहीं करना चाहते. ये प्रशंसक उनके समजातीय लोग ही होते हैं जो उनकी 'उपलब्धियों' पर गर्व करते है.

कौसल्या का ऐतिहासिक संघर्ष

2016 में कौसल्या और शंकर का मामला याद करें, जब कौसल्या के माता-पिता ने उनके पति शंकर को बेरहमी से मार डाला था, लेकिन कौसल्या ने अदालत में साहसपूर्वक लड़ाई लड़ी और अपने माता-पिता को सजा दिलाई। वह #थेवर समुदाय से थीं, और उनके माता-पिता ने उनके दलित युवक शंकर से विवाह को तुच्छ माना था। शंकर की हत्या के बाद, कौसल्या अपने ससुराल में रहती रहीं और शंकर के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए दृढ़ थीं। निचली अदालत ने उनके पिता सहित पांच आरोपियों को मृत्युदंड दिया, लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय ने इसे पलट दिया और ज्यादातर को रिहा कर दिया। कौसल्या ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, और अब तक कुछ नहीं हुआ है। कौसल्या का यह संघर्ष न केवल उनके निजी साहस को दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि वह जातिगत हिंसा के खिलाफ एक प्रेरणादायक प्रतीक बन गई हैं, जो तमिलनाडु में #जातिवादविरोधी सक्रियता को मजबूत करता है।

तमिलनाडु में जातिगत तनाव और भविष्य

कौसल्या का ऐतिहासिक संघर्ष और शंकर की स्मृति में उनका काम तमिलनाडु में #जातिवादविरोधी सक्रियता का एक चमकता उदाहरण है, लेकिन इस मुद्दे को केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं किया जा सकता। कम से कम तमिलनाडु में, कार्यकर्ता बोल रहे हैं, और कौसल्या जैसे साहसी लोग व्यक्तिगत नुकसान के बावजूद इसके लिए लड़ रहे हैं। अब, केविन की हत्या ने फिर से तमिलनाडु में तनावपूर्ण जातिगत संबंधों के मुद्दे को सामने ला दिया है। क्या सुभासिनी कौसल्या की तरह केविन के अधिकारों के लिए लड़ेगी? यह समय है कि जातिगत घृणा और हिंसा के सभी पीड़ित खड़े हों और बोलें। हम आशा करते हैं कि तमिलनाडु सरकार इस मामले में तेजी से कार्रवाई करेगी और इस मामले के लिए विशेष अदालत का गठन करेगी ताकि केविन सेल्वा गणेश के हत्यारों को सजा मिले.




पेरियार और उत्तर भारत के साथ उनका संबंध

  विद्या भूषण रावत    हालांकि पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं के बीच एक जाना-माना नाम है , लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के अधिकांश लो...