विद्या भूषण रावत
दोपहर का समय था और कोलंबिया डे समारोह
के दौरान बोगोटा में नेशनल यूनिवर्सिटी हॉल के बाहर प्रतिभागी भोजन लेने के लिए
एकत्र हुए थे। स्वयंसेवकों ने लोगों को दो अलग-अलग पंक्तियों में खड़ा किया ताकि
भोजन वितरण आसान हो सके। "आप रेगुलर हैं या शाकाहारी?" यह सवाल सुनकर मैं एक पल के लिए चौंक
गया, फिर समझ आया कि 'रेगुलर' का मतलब मांसाहारी भोजन से था। भारत में
हम मांस खाने वालों को 'नॉन-वेजिटेरियन'
कहते हैं, जो शायद सही नहीं है और कई बार इसे
अपराध जैसा माना जाता है।
जब आप देश से बाहर यात्रा करते हैं,
तो हर कोने पर संस्कृति बदलती नजर आती
है। जो चीज यहाँ अशुद्ध मानी जाती है, वह कहीं और सामान्य हो सकती है। इसलिए, हमें खाद्य और सांस्कृतिक विविधता का
सम्मान करना चाहिए। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते, वे अपनी संकीर्ण सोच में कैद रहते हैं
और यात्रा का भली प्रकार से आनंद नहीं ले पाते। अगर आप इतनी दूर यात्रा करके भी
अपने घर का खाना ढूंढते हैं, तो
आप दुनिया की सांस्कृतिक विविधता का आनंद नहीं ले रहे। यात्राये केवल फोटो, सेल्फ़ी
या रील तक ही सीमित नहीं रखे अपितु हमारी कोशिश लोगों को समझने की होनी चाहिए और
बिना खाने के आप दूसरी संस्कृति को कभी भी समझ नहीं सकते। शायद यही कारण है कि यूरोपीय लोग दुनिया भर की संस्कृति को भी समझ पाए
अपितु उस पर शोध और दस्तावेजीकरण उनसे अधिक कोई नहीं कर पाया. सांस्कृतिक
पूर्वाग्रह हमें अपने से भिन्न दिखने वालो से दूर रखते हैं लिहाजा हम किसी से दिल
से बात नहीं कर पाते.
कुछ साल पहले मुझे
एशिया लैंड फोरम द्वारा किर्गिस्तान में आयोजित एक सम्मेलन में मैंभाग लेने का अवसर
मिला. सम्मलेन के दौरान फील्ड विजिट में मुझे घुमंतू समुदाय के एक गाँव में जाने
का अवसर मिला. वहां दोपहर में वोडका पार्टी थी, जिसमें मछली और अन्य व्यंजन परोसे गए।
कुछ देर बाद, एक मित्र ने कहा कि
कुछ ग्रामीण मेरे साथ ‘सेलेब्रेट’ करना चाहते हैं। क्रिगिस्तान में मेरे मित्र
अलेक्सेंडर का मुझसे बहुत अत्मिया सम्बन्ध हुआ. वह पुराने सोवियत दिनों को याद
करने वाला व्यक्ति था. मेरे साथ चर्चाः में उसने उम्झ्से कहा की विद्या तुम भारत
से हो और बड़ी बात यह की भारत के पास बुद्ध जैसे क्रन्तिकारी व्यक्ति की विरासत है.
हंसी मजाक में उसने मुझसे कहा, विद्या, बुद्ध विश्व के पहले मार्क्सवादी थे. मैंने
हँसते हुए उसे टोका और कहा एलेग्जेंडर, बुद्ध मार्क्स से २५००
वर्ष पूर्व पैदा हुए और उन्हें मार्क्स का दूर दूर तक कोई ख्याल भी नहीं रहा होगा
लेकिन मार्क्स को बुद्ध का पता रहा होगा क्योंकि उनकी सोच में बुद्धिवाद दिखाई
देता है इसलिए मार्क्स एक बुद्धिस्ट थे कहना सही होगा. वो जोर से हँसे और मेरी बात
से सहमति प्रकट की. खैर, वह मुझे अलग से एक किनारे पर लेजाना
चाहते थे. पहले में उन्हें इधर उधर घुमा रहा था लेकिन फिर उन्हें मना नही कर पाया.मैं
उनके पास गया। उन्होंने कहा, "विद्या,
हम खुश हैं कि आप यहाँ हैं। आइए कुछ
सेलिब्रेट करें।" मैंने कहा कि मैं पहले ही काफी वोडका ले चुका हूँ और अब और
नहीं ले सकता। उन्होंने कहा, "हम
आपको वोडका नहीं दे रहे।" मैंने कहा मै अभी कुछ भी लेने की स्थिति में नहीं
हूँ क्योंकि हम खूब मछली ले चुके थे और खाने के लिए और भी बहुत से स्थानीय पकवान
भी थे. उन्होंने कहा, हम आपको कुछ खाने के लिए नहीं दे रहे.
आइये आपको दूध पिलायें. और फिर उन्होंने मुझे घोड़ी का दूध पेश किया। मैं हैरान रह
गया। मेरी समस्या यह नहीं थी कि यह घोड़े का दूध था, बल्कि भारत में यह मान्यता है कि मछली
खाने के बाद दूध नहीं लेना चाहिए। मैंने उन्हें यह बताया, लेकिन वे हंसने लगे और बोले कि यह उनके
खानपान का हिस्सा है और वे लोग मछली के बाद दूध पी लेते हैं. मैंने उनसे कहा मै
इतनी आसानी से मछली खाने के बाद दूध नहीं
ले पाऊंगा.
अभी
ग्लोबल लैंड फोरम के
दौरान बोगोटा में कार्यकरम के अंतिम दिन, मॉन्टेनेग्रो के हमारे मित्र मिलन सेकुलोविच, जो सिनजाजेविना जंगलों को बचाने की
मुहिम चला रहे हैं, ने
एक अनोखी पार्टी दी। आपको बता दे कि मोन्टेनेग्रो यूरोप का एक छोटा सा देश है जो पहले
युगोस्लाविया का हिस्सा था और जून २००६ में एक अलग राष्ट्र बना जिसकी आबादी लगभग
साढ़े छ लाख की है. मिलन और उनकी सहयोगी ने सुबह 9 बजे के कार्यक्रम में उन्होंने
ऑडिटोरियम के प्रवेश द्वार पर चॉकलेट, टॉफी और दो बोतल वाइन के साथ एक टेबल सजाई। उन्होंने वाइन को
छोटे-छोटे शॉट्स में परोसा, जो
टकीला की तरह था। टकीला दुनियाभर में प्रसिद्ध मैक्सिको की बनी १६ वी शताब्दी की
वो शराब है जिसे छोटे छोटे ‘शॉट्स’ में लिया जाता है. इसमें बानी या सोडा
नहीं मिलाया जाता हालाँकि बहुत से लोग इसे लेमन और नमक के साथ लेते हैं. खैर, मिलन कोई टकीला नहीं लाये थे लेकिन उसकी प्रक्रिया बिलकुल
टकीला लेने की थी. क्योंकि सुबह का समय था और सभी लेने में झिझक रहे थे. मैंने इसकी
शुरुआत कर झिझक मिटा दी. यह एक रोमांचक अनुभव था। मिलन ने बताया कि मॉन्टेनेग्रो
और बाल्कन देशों में उत्सवों को मनाने के लिए ऐसा किया जाता है और इसका कोई विशेष
समय नहीं होता. इसे सुबह भी लिया जा सकता है. मतलब ये की किसी अच्छे कार्य की
शुरुआत ऐसे ही की जाती है. यह सर्बियाई प्लम ब्रांडी 'ताकोवो श्लिजोविका' थी, जिसे नट्स या चॉकलेट के साथ लिया जाता
है। इसे पानी या सोडा के साथ नहीं मिलाया जाता। मॉन्टेनेग्रो की 'मेडुश्का' नामक हनी ब्रांडी भी थी।
मुझे मेरे मित्र मिलन की यह पहल बहुत
पसंद आई। पिछले 35 वर्षों
में कई देशों की यात्रा करने के बावजूद, मुझे नई चीजें सीखने और अलग-अलग खानपान आजमाने की उत्सुकता बनी
रहती है। मैं स्थानीय और मूलनिवासी समुदाय के साथ उत्सव मनाना पसंद करता हूँ। भारत
मे भी झारखंड से लेकर तेलंगाना, केरल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश के बहुत से ऐसे
क्षेत्रों मे जाकर, उनके खान पान मे बिना लाग लपेट के रहकर ही हम ईमानदारी से उनकी
समस्याओ को समझ सकते हैं. खान पान की दूरिया असल में दिलो की दूरिया बन जाती हैं. कई
बार आपको यदि कोई चीज पसंद भी नहीं है तो कुछ और के लिए कह सकते हैं. जैसे अक्सर
गाँवों में हर जगह पर चाय पीने से मुझे इसलिए परेशानी होती है की ना करते करते भी
लोग उसमे दूध और चीनी की मात्रा बहुत डाल देते हैं ऐसे में यदि हम उनसे कोई
स्थानीय पेय जैसे सत्तू आदि मांगे तो शायद या मकई, बाजरे की रोटी या
कोई अन्य आसानी से उपलब्ध खाद्य मांगे तो लोग बहुत खुश होकर वो लायेंगे और यदि
नहीं भी है तो वो समझ जायेंगे की आप उन्हें साथ खाना न खाने के लिए बहाना नहीं कर
रहे. भारत में तो बड़े बड़े लोग ऐसे अवसरों पर ‘आज ब्रत है’, अभी खाकर आ रहे हैं, पेट ख़राब है और बहुत
से बहाने ढूंढते हैं जो सभी लोग समझ जाते हैं. फिर वह आपके साथ हकीकत में दिल से
भी बात नहीं कर पाते. .
अमेजन क्षेत्र के आगुआ बोनिता गाँव में स्थानीय
मूलनिवासियो ने जिस तरह कार्यक्रम आयोजित किया, वह मुझे बहुत पसंद आया। पूरी परम्परा
में गाँव के बुजुर्गों को विशेष सम्मान दिया जाता है और सभी समारोह उनकी उपस्थिति
में शुरू होते हैं। वे पानी आग और हरियाली, फल जिसमे मक्का, केला आदि होता है की पूजा करते हैं और फिर किसी स्थानीय
हरियाली से आपके ऊपर पानी छिडकते हैं और धुंवा भी सूंघते हैं. पूरी मूलनिवासी
परम्परा में पानी, आग, हरियाली और सूर्य का
बहुत महत्वपूर्ण है और उन्हें से आशीर्वाद मांगा जाता हैं। शहरी 'शिक्षित' लोग इसे अंधविश्वास कह सकते हैं,
लेकिन वनाश्रित मूलनिवासी समुदायों का
प्रकृति से रिश्ता में इनकी आवश्यकता होती है जिसे हमें समझने की जरूरत है। उनकी
सामुदायिक जिंदगी और परिवार के प्रति प्रेम हमें बहुत कुछ सिखाता है। हमें अपनी
पहचान और सांस्कृतिक विरासत को 'संसाधन'
मानकर शोषण करने के बजाय संरक्षित करना
चाहिए।
आगुआ बोनिता में मैंने जो सबसे
स्वादिष्ट भोजन खाया, वह
था 'प्लाटो मोजार्रा रोजा
पेस्काडो दे लागो'—ग्रिल्ड
मछली, चावल, नींबू-प्याज की सलाद के साथ। यह
अमेजोनियन झीलों या नदियों में पाई जाने
वाली मोजार्रा मछली थी। असल में इस क्षेत्र में ताजे पानी की मछलियों को ही पसंद
किया जाता है क्योंकि उनकी ही उपलब्धता होती है. यहाँ पर ओर्तेगुआ और सैन पेद्रो
नदियों में ये मछिलया बड़ी संख्या में पायी जाती हैं. यहाँ लोगों के व्यंजनों में
तेल का उपयोग नहीं था, फिर
भी वे लाजवाब थे। हर दिन अलग-अलग व्यंजन परोसे गए, जो यहाँ की खाद्यान और भोजन विविधता को
दिखाते हैं। कॉफी, शहद,
मक्का, केला और अन्य स्थानीय उत्पादों से बने
व्यंजन भी थे। कई फलो का जूस पीने को भी मिला.
आगुआ बोनिता एक छोटा गाँव है, लेकिन वहां एक बार भी है जिसके सामने एक
फुटबॉल का मैदान भी है। लड़कियों को
फुटबॉल खेलते देखना अद्भुत था। बार में पुरुष और महिलाएं एक साथ नाचते-गाते थे,
जो हमारे यहाँ के 'पुरुष-प्रधान' स्थानों से बिल्कुल अलग था।यहाँ बार में
आपको गाँव के बुजुर्ग भी दिखाई देंगे लेकिन मैंने देखा यही के युवा महिलायें और
पुरुष उन्हें कंपनी दे रहे थे और उनका ख्याल रख रहे थे ताकि उन्हें अकेलापन न
महसूस हो. शहरी संस्कृति में व्यक्ति अलग थलग हो गया है लेकिन पारंपरिक व्यवस्था
में रिश्ते महत्वपूर्ण होते हैं. शहरों में आकर हमें ये चुभने लगे हैं फिर भी इनका
भी एक अपना ही मज़ा है. आज़ादी और आधुनिकता के नाम पर कर एक पुरानी परम्परा को रिजेक्ट
करने से कूछ हासिल होने वाला नहीं है.
इसलिए मैं कहता हूँ, जीवन विविध और सुंदर है। दूसरों की
संस्कृति को छोटा या बेकार न समझे। दुनिया की सुंदरता और आनंद उसकी विविधता में
है। अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने की जरूरत नहीं। दूसरों की संस्कृति को
अपनाएं और उसकी सराहना करें, भले
ही आपको सब कुछ खाना या पीना न पड़े फिर भी उन बहुत से चीजो में कोई तो ऐसी होगी
जो आप खा सकते हैं. दो सप्ताह की यात्रा में ही हमें अपने घर की याद आने लगती है.
अगर हम हर जगह अपने घर का खाना ढूंढेंगे, तो यात्रा का कोई मतलब नहीं। यात्रा का उद्देश्य केवल सेल्फी
लेना या सोशल मीडिया पर पोस्ट करना नहीं, बल्कि समुदायों और समाजों को समझना है जो उनके साथ बैठे और खाए
पिए बिना संभव नहीं है.
.jpg)



कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें