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रविवार, 31 अगस्त 2025

हिमालय पर हम सभी के लिए एक गंभीर चिंतन का समय


विद्या भूषण रावत  


हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, और पंजाब में भारी बारिश के कारण हुई भयंकर तबाही केवल एक मौसमी त्रासदी नहीं है—यह प्रकृति की चेतावनी है। फिर भी, इस संकट की विशालता को मुख्यधारा के मीडिया में मुश्किल से ही जगह मिली है। यह चुप्पी चिंताजनक है। इन राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा, लापरवाह तथाकथित “विकास” परियोजनाओं को तत्काल रोकने और हमारे पहाड़ों के भविष्य के बारे में व्यापक लोकतांत्रिक बहस की मांग करता है। दुख की बात है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी, सभी दलों में, ऐसे मूलभूत सवालों से निपटने की कोई रुचि नहीं दिखाती।  इसके बजाय, हमें केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे  मंत्रियों की शर्महीन गौरवपूर्ण अनुभूति  देखने को मिलते हैं, जो हिमालय की इस भयानक त्रासदी मे भी बड़े गर्व से केदारनाथ में रोपवे परियोजना की घोषणा करते हैं और पूरे क्षेत्र मे हो रही घटनाओ पर शर्मनाक तरीके से चुप रहते हैं और अपनी घोषणा को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे कि यह पहाड़ों की समस्या का कोई  बहुत बड़ा समाधान हो। इस बीच, सरकार उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग को  स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों की बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए  चौड़ा करने की अनुमति दे चुकी  है। इस तरह का व्यवहार और  तथाकथित 'विकास' कार्यों का अहंकार पर्यावरणीय बुद्धिमत्ता और इन नाजुक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आवाजों के प्रति खतरनाक उपेक्षा को दर्शाता है जो लोकतंत्र और पर्यावरण दोनों के लिए शुभ नहीं है। 

हिमालयी आपदा को केवल “जलवायु संकट” कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। बेशक, जलवायु परिवर्तन वास्तविक है और इसके लिए तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, लेकिन इसे एकमात्र बहाना बनाना हमारे अपने पापों को धो देना है। इसकी गहरी वजह विकास के नाम पर राज्य की  उन नीतियों में निहित है जिसका एक मात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है चाहे पहाड़ों या यहा की नदियों और लोगों का जो भी कुछ हो। दुर्भाग्यवश, स्थानीय समुदायों और परम्पराओ को नजरंदाज कर ऐसी नीतिया पहाड़ों में लागू की जा रही हैं जिन्हे हम न केवल पहाड़ विरोधी कहेंगे अपितु सांस्कृतिक तौर पर भी पहाड़ी परम्पराओ को खोखला कर बाहर से  आयातित गंदगी को संस्कृति के नाम पार थोपा जा रहा है। पर्यटन के 'राष्ट्रीयकरण' के चलते पहाड़ों मे बढ़ती संख्या और उनके लिए नई संशधनों की आवश्यकता ने पहाड़ों की प्रकृति पर भयानक दबाब डाला है। आखिर इन सबके लिए व्यवस्थाएं कैसी होंगी लेकिन सत्ताधारी इस पर बात करने के तैयार नहीं और हर एक समस्या पर अपने चालाकी के 'नुस्खे' बताकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। वही लोग नए समाधान के नाम पर ठेके ले रहे हैं जो यहा की समस्याओ के लिए जिम्मेदार हैं। 

ये समझना आवश्यक है कि कैसे पहले 'विकास' का नाम लेकर हर एक काम किया गया। जो लोग इन सवालों को पूछ रहे थे उन्हे खलनायक बना दिया गया।  कहा गया कि बांध बनाकर ऊर्जा प्रदेश बनेगा हालांकि ये भी सभी को पता है कि सारे गांवों मे आज भी बिजली नहीं पहुंची है। लेकिन  विकास के नाम पर  चलाई जा रही ऐसी  नीतियां जिनमें ऊपरी हिमालय में बड़े बांधों का निर्माण शामिल है, जिन्हें “ऊर्जा अधिशेष” राज्य बनाने के नाम पर उचित ठहराया गया। ये परियोजनाएं लालच के अलावा और कुछ नहीं हैं क्योंकि इन्हे अपने 'प्रबंधकों' और 'ठेकेदारों' की कमाई का जरिया बनाया गया। अन्यथा हम सब जानते है कि ये सभी परियोजनाएं  नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करती हैं और फिर प्राकृतिक  प्रतिक्रिया को आमंत्रित करती हैं। आज घाटियों को चीरती नदियों की उग्रता हमें प्रकृति की बेजोड़ शक्ति की याद दिलाती है। तकनीक, चाहे कितनी भी उन्नत हो, प्रकृति के इस रौद्र रूप के  र सामने असहाय नजर आती है। उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, जम्मू कश्मीर, लद्दाख की घटनाए अब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि सुधार जाओ और प्रकृति से दुश्मनी न करो। अब हमारे आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता हिमालय का सम्मान करना है, रुककर उन विनाशकारी विकास नीतियों पर पुनर्विचार करना है जो उन्हें केवल  एक प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखती हैं जिसका उद्देश्य मात्र मुनाफा कमाना है। ऐसे सभी विचारों को अब छोड़ देना चाहिए क्योंकि हिमालय कि सुनामी मैदानी क्षेत्रों को भी नहीं छोड़ने वाली। ये प्रश्न केवल हिमालय का नहीं है। हमारी नदियों ने यदि अपना असली रूप दिखा दिया तो मैदान भी नहीं बचेंगे। इसलिए आज गंभीर चिंतन की जरूरत है। हिमालय और उससे निकलने वाली गाड़ गदेरो का सम्मान करना सीखो। शायद प्राचीन काल मे हमारे पुरखे नदियों, पहाड़ों, गदेरो को पूजते थे तो इसलिए क्योंकि उनकी जिंदगी इन्ही के दम पर थी। आज हमने उनको खत्म कर कमाई करने का धंधा बनाने की सोची और सभी ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया कि हमारी मशीन और सत्ता का नशा केवल असहाय दिखा। क्या अभी भी समझ नहीं आया। 

डुखाद बात यह है कि हम आज  एक “विकास माफिया” के  उदय को देख रहे  है, जो लोगों को झूठे सपने बेच रहा है और क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत को लूट रहा है। एक कल्याणकारी राज्य हिमालय को ए टी एम मशीन की तरह नहीं देख सकता। ये पहाड़ हमारे रक्षक हैं, उनकी नदियां हमें जीवन देती हैं, और उनके पारिस्थितिकी तंत्र पूरे भारत में जीवन को संतुलित करते हैं। फिर भी, हम नदियों को सुखाने, उनमें कचरा डालने, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को विस्फोट करने, और रेलवे लाइनों व मेगा-ब्रिजों का बोझ डालने में क्यों लगे हैं? आस्था के नाम पर लाखों तीर्थयात्रियों को, जो उनकी भारी संख्या मे उपस्थिति के पर्यावरणीय प्रभाव की परवाह नहीं करते, पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को अभिभूत करने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया जा रहा है? लाखों की संख्या मे तीर्थ यात्रियों का आना यहा के मौजूदा प्रबंधन को कैसे प्रभावित कर रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। आखिर एक दिन मे इन पर्वतीय क्षेत्रों मे लोगों के आने से हमारी नदियों, बुगयालों और अन्य स्थानों पर क्या असर पड़ रहा है?

यह तबाही केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं है। पंजाब की कृषि भूमि जलमग्न हो गई है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और आजीविका नष्ट हो गई है। अतिप्रवाह करने वाले बांधों ने भारत और सीमा पार पाकिस्तान में संकट को और बदतर कर दिया है। लंबे समय से बांधों को प्रगति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन बाढ़ को बढ़ाने में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बांध के गेट संकट के चरम पर ही क्यों खोले जाते हैं, जिससे नीचे की ओर तबाही बढ़ जाती है? इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए। विशेषज्ञों को यह आकलन करना चाहिए कि बड़े और छोटे बांधों जैसे कृत्रिम हस्तक्षेपों ने प्राकृतिक बाढ़ों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया है या नहीं। सबूत तेजी से यह सुझाव दे रहे हैं कि ऐसा ही है।

राज्य सरकारों के लिए सच्चाई का सामना करने का समय आ गया है: उनके लोगों का भविष्य सुरंगें खोदकर, पहाड़ों को विस्फोट करके, या नदियों को निजी हाथों  को सौंपकर सुरक्षित नहीं किया जा सकता। मुख्यधारा का मीडिया इन असहज वास्तविकताओं पर बहस करने से कतराता हो , लेकिन नागरिकों को इस विनाशकारी मॉडल पर सवाल उठाते रहना चाहिए। हिमालयी राज्यों को ऐसा विकास चाहिए जो उनके स्थानीय और मूल निवासी समुदायों के सहयोग और भागीदारी के साथ हो । ऐसी कोई भी परियोजनाएं जो विकास के नाम पर पर्यावरण के नियमों की धज्जियां उड़ाएं  और  मुट्ठीभर ठेकेदारों, बिचौलियों और कॉरपोरेट मित्रों को समृद्ध करे, का जमकर विरोध होना चाहिए।  अक्सर, बुनियादी ढांचे को ठीक करने के लिए दिए गए   'ठेके' राजनीतिक एहसानों के रूप में दिए जाते हैं, जिनके मुनाफेदार  गुजरात और अन्य जगहों के व्यापारिक घरानों होते हैं, जबकि स्थानीय लोग पर्यावरणीय तबाही के अलावा और  कुछ नहीं पाते। ऐसे ठेके बंद होने चाहिए। जनता को ये जानने का अधिकार है कि किन लोगों को 'विकास' ये ठेके दिए गए और क्या वे सभी सुरक्षित हैं और मानकों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। विकाय की ऐसी ऐसी नीतियां जिनमे स्थानीय मूल निवासियों की भूमिका न के बराबर है, न केवल यहा के पर्यावरण को नष्ट करती हैं बल्कि हिमालय की सांस्कृति और इतिहास को भी हानि पँहुचाती है।  यदि लोकतंत्र का कोई अर्थ है, तो पहाड़ों के भविष्य के  बारे में निर्णय वहां रहने वाले लोगों के साथ संवाद में लिए जाने चाहिए, न कि ऊपर से थोपे जाने चाहिए।

हिमालय की पहड़िया और घाटियां अब हमे चेतावनी दे रही हैं कि बंद करो उनका दोहन और  शोषण । वो कह रही हैं कि यहा के मूल निवासी प्रकृति की पूजा करता था और उसके साथ सामंजस्य बना कर रहता था और अपनी सुकून भरी जिंदगी मे संतुष्ट था। अब 'विकास' की आंधी ने पहाड़ियों से पहाड़ छीन लिए और उसका गुस्सा भी देख रहे हैं। पहाड़ कह रहे हैं कि उनका  सम्मान करो, अपनी परम्पराओ की ओर लौटो और 'विकास' के नाम पर विनाशकारी व्यवसायिक आदत बादलों। हमारी नदिया और पहाड़ हमारी संस्कृति और स्वाभिमान है, इन पर अब अपनी ललचाई नजर मत डालो। पहाड़ ये कह रहे हैं, सुधर जाओ, वापस अपने मूल पर आओ।  ये समझ लीजिए कि जब तक हम अपना रास्ता नहीं बदलते, प्रकृति का रोष और अधिक गहरा होगा और लोगों को उसकी और भी अधिक  विनाशकारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा। प्रकृति का सम्मान करें और उसके साथ तालमेल कर ही हम अपना जीवन संतोष के साथ जी सकेंगे। 

रविवार, 3 अगस्त 2025

हिमालयी क्षेत्रो की संवेदनशीलता को समझे सरकार

 विद्या भूषण रावत

"वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य गायब हो सकता है," भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह चेतावनी दी है। उन्होंने आगे कहा, "भारत सरकार का भी यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्य में पर्यावरणीय संतुलनऔर नहीं बिगड़े ताकि प्राकृतिक आपदाएँ न हों। हम राज्य सरकार और भारत सरकार को यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि राजस्व कमाना ही सब कुछ नहीं है। अगर चीजें वर्तमान की तरह ही आगे बढ़ती रहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से हवा में गायब हो सकता है।"

यह भयावह चेतावनी ऐसे समय में आई है जब हिमाचल प्रदेश और इसका पड़ोसी राज्य उत्तराखंड अभूतपूर्व आपदाओं से जूझ रहे हैं। अचानक बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने की घटनाएँ और बुनियादी ढाँचे का ढहना अब तकलीफदेह रूप से आम हो गया है। हालाँकि सरकारे इस कोशिश में हैं कि अब आपदाओं और उनसे होने वाली मौतों का सामान्यीकरण हो जाए और लोग इस पर गुस्सा होने के बजाये इसे अपने जीवन के हिस्से के तौर पर ले. इसीलिये इस वर्ष राज्य सरकारों की और से आपदाओं और उनसे होने वाली मौतों की कोई विशेष जानकारी नहीं है. आज के दौर में केवल एक ही आंकड़ा 'विश्वास' के साथ दिया जा रहा है और वो यह की कितने करोड़ लोगो ने चार धाम यात्रा की और हरिद्वार में कितने लाख कांवरिये आये और कैसे प्रशासन ने उनकी व्यवस्था की. मतलव पूरा प्रशासन अब इन यात्राओ के आगे नतमस्तक है और उत्तराखंड के मूलनिवासी अपनी आर्थिक सामजिक सांस्कृतिक हालातो से जूझ रहे हैं. अमूमन यही हाल हिमाचल का है.

हिमाचल प्रदेश के आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, हिमाचल प्रदेश को 20 जून से मानसून की शुरुआत के बाद से 1,539 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है। चौवन लोगों की जान जा चुकी है, और 36 लोग अभी भी लापता हैं। 1,350 से अधिक घर आंशिक या पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए हैं। एनडीटीवी ने 2 अगस्त, 2025 तक की रिपोर्ट में बताया कि हिमाचल प्रदेश में 173 लोगों की मृत्यु हो चुकी है, 37 लोग लापता हैं, और 115 घायल हुए हैं। 6 जुलाई तक 23 बाढ़ की घटनाएँ और 19 बादल फटने की घटनाएँ दर्ज की गईं। अधिकांश मौतें बारिश के चलते हुई हैं.

उत्तराखंड, जो अक्सर आपदा सुर्खियों में अग्रणी रहता है, में भी यही पैटर्न दिखाई देता है। 4 जुलाई तक, इसने 70 मौतें दर्ज कीं—20 प्राकृतिक आपदाओं के कारण और 50 सड़क दुर्घटनाओं से। कई लोग लापता हैं, और 177 लोग घायल हुए हैं। हालाँकि ये आंकड़े अखबारी हैं और इनमे निश्चित तौर पर बढ़ोतरी होगी. असल में दोनों राज्य सरकारों को पुरे राज्ये के इन आंकड़ो की विस्तृत जानकारी लोगो के साथ साझा की जानी चाहिए.

पिछले कुछ वर्षो में इन दोनों हिमालयी राज्यों को "देवभूमि"—देवताओं की भूमि—के रूप में चित्रित किया जाता रहा है, विशेषकर उत्तराखंड को जिसके चलते चार धाम यात्रा में लोगो की भागीदारी बेहद अधिक बढ़ गयी. सरकार की कोशिश है कि अधिक से अधिक तीर्थयात्री उत्तराखंड आ जाए हालाँकि ये भी हकीकत है कि इतनी बड़ी संख्या में बाहरी लोगो के आने और रुकने के लिए उत्तराखंड और हिमाचल दोनों प्रदेशो में न तो कोई ढांचा है और न ही वह संभव है. यदि मैदानी क्षेत्रो के लोगो के ऐसो आराम के लिए उनके 'घर' की तरह फाइव स्टार सुविधाएं देने की कोशिश की गयी तो ये इन दोनों प्रदेशो के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है और इसके परिणामभयानक हो सकते हैं. हम ये देख भी रहे है कि दोनों क्षेत्रो में लगातार भू स्खलन हो रहे हैं. जहां सरकारे अपने 'अतिथियो' के स्वागत में पलकपांवड़े बिछाने को तैयार बैठी है वही दोनों प्रदेशो में वहा के मूल निवासियों के आर्थिक सामाजिकहालत लगातार मुश्किल होते जा रहे हैं.

दोनों प्रदेशो के दूर दराज के गाँवों में रहने वाले लोग अभी भी स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा व्यवस्था से वंचित हैं. बड़ी संख्या में गाँवों तक पहुचने का कोई सडक मार्ग नहीं है और आज भी बच्चो को मानसून के समय उफनती नदियों को पार करके जाना पड़ता है. दोनों प्रदेशो में स्थानीय लोगो के लिए बना बुनियादी ढाँचा चरमरा गया है क्योंकि सत्ता की पूरी चिंता 'मेहमाननवाजी' की है जिसके चलते मेजबान 'असहाय' सा हो गया है.

हिमाचल और उत्तराखंड दोनों का उपयोग केंद्र सरकारों द्वारा निजी हितों को बढ़ावा देने के लिए किया गया है, जिसे जलविद्युत परियोजनाओं और सामूहिक धार्मिक पर्यटन के नाम पर किया जाता है, जबकि स्थानीय आबादी की जरूरतों और आवाज़ों को दरकिनार किया जाता है।

हर साल, ये नाजुक राज्य असहनीय पर्यटकों की भीड़ से अभिभूत हो जाते हैं, जो अक्सर उनके बुनियादी ढाँचे की क्षमता से अधिक होती है। यह जिम्मेदार पर्यटन नहीं है—यह लापरवाही भरा अति-शोषण है। पर्यटन विकास को बढ़ावा देते हैं का विश्लेषण करने की जरुरत है. पर्यटन आवश्यक है लेकिन अनियंत्रित पर्यटन हिमालयी राज्यों में कहर ढा रहा है. अभी तक तो इस पर्यटन से कोई विशेष विकास हुआ हो ऐसा दिखाई नहीं देता.

पहाड़ों से आने वाले एक व्यक्ति के रूप में, मैं गवाही दे सकता हूँ कि चार धाम यात्रा के नाम पर होने वाला यह सामूहिक पर्यटन स्थानीय परंपराओं को खतरनाक रूप से कमजोर कर रहा है और पहाड़ो के संवेदनशील प्राकृतिक तंत्र को बाधित कर रहा है। मुझे नहीं लगता की इससे पहाड़ो को बहुत अधिक लाभ हो रहा हो क्योंकि आज भी उत्तराखंड केंद्र के भरोसे अधिक है क्योंकि अभी भी यहाँ पर स्थानीय मूलनिवासी जनता के आर्थिक स्वावलंबन के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हुए हैं. पूरी राजनीती लफ्फाजी और तथाकथित राष्ट्रवाद पर हो रही है जिसमे पहाड़ी राष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई देता. हिंदुत्व के बड़े अजेंडे के अन्दर पहाड़ी अस्मिता को समाहित करने के प्रयास हो रहे हैं. मैदानी क्षेत्रो से आने वाले लोग जो अपनी शान शौकत और राजनितिक कनेक्शन, बड़ी गाडियों के साथ अपनी ताकत का भौंडा प्रदर्शन करते हुए दिखाई देते हैं . अपनी अकड में वे अक्सर इन स्थानों को अपने निजी खेल के मैदान के रूप में मानते हैं, स्थानीय लोगो की भावनाओं से बेपरवाह ये लोग पूरी बेशर्मी के साथ सार्वजनिक रूप से शराब पी रहे हैं , लडकियों से छेड़खानी की घटनाओं में वृद्धि हुई है और और गाँवों से लडकियों और युवाओं के गायब होने या अपहरण की सूचनाएं भी लगातार बढ़ रहे हैं. मै उस उत्तराखंड से आता हूँ जहा लोग अपने घरो पर ताले नहीं लगाते थे और पुलिस के अधिकारी वहा स्थानांतरण होने को अच्छा नहीं मानते थे क्योंकि उनकी कोई 'कमाई' नहीं थी.

आज हिमालय पर सांस्कृतिक हमला भी है और इसके परिणाम भी उतने ही चिंताजनक हैं। हिमालयी समाज ऐतिहासिक रूप से मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक समतावादी और आजाद ख्याल रहे हैं। स्थानीय खान-पान की आदतें, महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिका, और विकेन्द्रीकृत धार्मिक परंपराएँ एक बहुलवादी लोकाचार को दर्शाती हैं। आज, वे ही तत्व खतरे में हैं। धार्मिक एकरूपता को बाहर से थोपा जा रहा है, जो स्थानीय देवताओं और रीति-रिवाजों को कमजोर कर रहा है। इसमें उन क्षेत्रों में शाकाहारी मानदंडों का बढ़ता थोपना शामिल है, जहाँ परंपरागत रूप से पशु बलि धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा थी। खाडू और बुख्थ्या हमारी देवी देवताओं की परम्पराओ से जुड़े हुए हैं. पहाड़ो को शराब के नाम पर बदनाम किया जाता है लेकिन बहुत सी परम्पराए भौगोलिक परिशितियो के कारण भी होती है. शराब पीना पहाड़ी क्षेत्रो में सामान्य बात हो सकती है लेकिन वो यहाँ पर कभी समस्या नहीं रहा. देश के अन्य हिस्सों की तरह, उत्तराखंड और हिमाचल का सांस्कृतिक पारिद्रृश्य बिलकुल अलग है और नेपाल या उत्तर पूर्व के राज्यों से मिलता जुलता है, जहा लोग अपनी जिंदगी को उन्मुक्तता से जीते हैं और खान पान के सवालों को लेकर मध्य भारत का पोंगापंथी वैचारिक तंत्र पहाड़ो पर लादने के अच्छे परिणाम नहीं होंगे.

सभी दलों के राजनेता तीर्थयात्राओं के दौरान बढ़ती मृत्यु दर या पारिस्थितिकीय लागत को संबोधित किए बिना "रिकॉर्ड" पर्यटक संख्या का जश्न मनाते रहते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में अप्रैल में ही चार धाम यात्रा के दौरान 65 से अधिक मौतें हुईं, जो हृदयाघात, उच्च ऊँचाई की बीमारी और भूस्खलन जैसे कारणों से हुईं। हेलीकॉप्टर दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या भी नाजुक हवाई गलियारों पर असहनीय दबाव को दर्शाती है, जो सब कुछ मुनाफे के नाम पर है।

यदि सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में अपनी बात को गंभीरता से लेता है, तो अब कठोर कार्रवाई बहुत जरूरी है। सरकारों—राज्य और केंद्र दोनों—ने खराब नियोजित परियोजनाओं, अंधाधुंध निर्माण और अनियंत्रित पर्यटन के माध्यम से इस आपदा को और अधिक भयानक बनाया है। इससे भी बदतर, उन्होंने क्षेत्र के आध्यात्मिक चरित्र को बदल दिया है। ये पहाड़ कभी इस तरह के संगठित धार्मिक अनुष्ठानों का स्थान नहीं थे, जैसा कि अब देखा जा रहा है। प्रत्येक घाटी और गाँव का अपना देवता, अनुष्ठान और लय है—जो लाउडस्पीकर, डीजे, और विकास के बहाने उग आए विशाल सीमेंट संरचनाओं के साथ संरेखित नहीं है। पहाड़ो में स्थानीय देवी देवताओं का महत्त्व राष्ट्रीय दिखने वाले भगवानो से अधिक है. नंदा देवी राजजात यात्रा, महासू देवता, गोल्ज्यू देवता, ज्वाल्पा देवी, धारी देवी और अनेको तीर्थो का महत्त्व स्थानीय लोगो के लिए बहुत अधिक है. उनका महत्त्व उनके स्थानीय रूप में ही है और उन्हें मैदानी 'नैतिकता' के अनुसार बदलने की आवश्यकता नहीं है. हिमाचल प्रदेश में भी स्थानीय देवो का बहुत बड़ा महत्व है. असल में यमुना घाटी में तो महासू देवता हिमाचाल उत्तराखंड के संयुत्क संस्कृति का हिस्सा है.

पहाड़ो में आज भी पुराने मंदिर वहा की स्थापत्य कला का प्रतीक है. वे जैसे हैं उन्हें वैसे ही रहने दें. विकास के नाम पर वास्तुकला का 'गुजरातीकरण' न होने दे.। मैगी नूडल्स, ढोकला, आलू पराठा जैसे क्षेत्र के लिए विदेशी खाद्य पदार्थों की माँग ने पारंपरिक भोजन को पीछे छोड़ दिया है। आज पहाड़ के ढाबो में स्थानीय भोजन कम मिलता है. फान्दू, कफली, धबडी, चैसू आदि आपको मुश्किल से ही मिल पाएंगे. नदियाँ, जो कभी पूजनीय और संरक्षित थीं, अब उनके स्रोत पर ही प्रदूषित हो रही हैं। भक्त लोग मैदान से लायी अपनी गन्दगी पहाड़ो पर छोड़ कर आ रहे हैं. यमुनोत्री और अन्य स्थानों पर लोग नदियों पर नहाकर अपने वस्त्र वही बहा दे रहे हैं. असल में मैदानी क्षेत्रों के विपरीत, सामूहिक नदी स्नान हिमालयी रीति-रिवाजों का हिस्सा कभी नहीं रहा। गंगा स्नान की परंपराएँ हरिद्वार और वाराणसी की हैं, केदारनाथ या किसी भी अन्य हिमालयी क्षेत्र की नहीं है क्योंकि नदियों का वेग इतना तेज होता है कि आपको सीधे बहा ले जाएगी. पहाड़ो का नदियों से अध्यात्मिक और सांस्कृतिक रिश्ता है इसलिए कोई उन्हें गन्दा नहीं करता. नदियों किनारे मलमूत्र करने की परम्परा पहाड़ो में बहुत कम है.

इसी प्रकार कांवर यात्रा भी भी परम्पपरा पहाड़ों में नहीं है। अधिकांश कांवरिये मैदानी क्षेत्रों—हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली—से आते हैं और अपने साथ एक ऐसी संस्कृति लाते हैं जो स्थानीय लोकाचार से बिलकुल भिन्न है. पहाड़ो में धर्म के नाम पर कोई हिंसा या घृणा अमूमन नहीं सुनी जाती. स्थानीयता में विभिन्नता है और सभी अलग अलग अपनी अपनी परम्पराओं को मानते हैं.

यदि सर्वोच्च न्यायालय गंभीर है, तो उसे मूल पहाड़ी आबादी के अधिकारों, संस्कृतियों और पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए जोर देना चाहिए। विकास को स्थिरता, समता और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के माध्यम से पुनर्कल्पित करना होगा। हिमाचल और उत्तराखंड के लोग लंबे समय से अपने परिवेश के साथ सामंजस्य में रहते आए हैं। यदि भारत के इस नाजुक लेकिन महत्वपूर्ण हिस्से को बचाना है, तो नीति और नियोजन में उनकी भागीदारी अनिवार्य है।
अब समय है कि हम अनुष्ठानों के नाम पर हिमालय का दुरुपयोग बंद करें और इसके सच्चे स्वरूप—पवित्र, विविध और इसके लोगों में निहित—का सम्मान शुरू करें। यहाँ सतत विकास की शुरुआत स्थानीय समुदायों को स्वीकार करने और सशक्त बनाने से होनी चाहिए. अभी तक हिमालय में कैसा विकास हो और कैसी व्यवस्था हो इस विषय में यहाँ की मूलनिवासियो को छोड़ कर हर एक से पूछा जा रहा है. हिमालयी क्षेत्रो को रहस्यमयी बनाने से अधिक आवश्यक है की इन क्षेत्रो में रह रहे मूलनिवासियो के अधिकारों को बचाया जाए और विकास और पर्यटन के नाम पर शोषण का जो नया नेटवर्क चल रहा है उसे रोका जाए. पिछली आपदाओ का सबक यही है कि धर्म और विकास की इस अनियंत्रित होड़ पर लगाम लगाईं जाए और स्थानीय मूलनिवासियो से बात कर ऐसी व्यवस्था बने जिसमें लोगो के मूलअधिकार बने रहे और तभी हिमालय सुरक्षित रहेंगे. हिमालय का संरक्षण हमारी राष्ट्रीय जिम्मेवारी है लेकिन वो बिना स्थानीय लोगो की भागीदारी और सहयोग के असंभव है. एक और महत्वपूर्ण बात, हिमालय और गंगा सहित हमारी नदिया सभी नदिया हमारी सांस्कृतिक विरासत है और इन्हें 'संशाधन' समझ व्यापारियों की लूट का साधन न बनने दिया जाए तभी हम सब सुरक्षित रहेंगे.

पेरियार और उत्तर भारत के साथ उनका संबंध

  विद्या भूषण रावत    हालांकि पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं के बीच एक जाना-माना नाम है , लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के अधिकांश लो...