विद्या भूषण रावत
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, और पंजाब में भारी बारिश के कारण हुई भयंकर तबाही केवल एक मौसमी त्रासदी नहीं है—यह प्रकृति की चेतावनी है। फिर भी, इस संकट की विशालता को मुख्यधारा के मीडिया में मुश्किल से ही जगह मिली है। यह चुप्पी चिंताजनक है। इन राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा, लापरवाह तथाकथित “विकास” परियोजनाओं को तत्काल रोकने और हमारे पहाड़ों के भविष्य के बारे में व्यापक लोकतांत्रिक बहस की मांग करता है। दुख की बात है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी, सभी दलों में, ऐसे मूलभूत सवालों से निपटने की कोई रुचि नहीं दिखाती। इसके बजाय, हमें केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे मंत्रियों की शर्महीन गौरवपूर्ण अनुभूति देखने को मिलते हैं, जो हिमालय की इस भयानक त्रासदी मे भी बड़े गर्व से केदारनाथ में रोपवे परियोजना की घोषणा करते हैं और पूरे क्षेत्र मे हो रही घटनाओ पर शर्मनाक तरीके से चुप रहते हैं और अपनी घोषणा को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे कि यह पहाड़ों की समस्या का कोई बहुत बड़ा समाधान हो। इस बीच, सरकार उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग को स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों की बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए चौड़ा करने की अनुमति दे चुकी है। इस तरह का व्यवहार और तथाकथित 'विकास' कार्यों का अहंकार पर्यावरणीय बुद्धिमत्ता और इन नाजुक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आवाजों के प्रति खतरनाक उपेक्षा को दर्शाता है जो लोकतंत्र और पर्यावरण दोनों के लिए शुभ नहीं है।
हिमालयी आपदा को केवल “जलवायु संकट” कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। बेशक, जलवायु परिवर्तन वास्तविक है और इसके लिए तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, लेकिन इसे एकमात्र बहाना बनाना हमारे अपने पापों को धो देना है। इसकी गहरी वजह विकास के नाम पर राज्य की उन नीतियों में निहित है जिसका एक मात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है चाहे पहाड़ों या यहा की नदियों और लोगों का जो भी कुछ हो। दुर्भाग्यवश, स्थानीय समुदायों और परम्पराओ को नजरंदाज कर ऐसी नीतिया पहाड़ों में लागू की जा रही हैं जिन्हे हम न केवल पहाड़ विरोधी कहेंगे अपितु सांस्कृतिक तौर पर भी पहाड़ी परम्पराओ को खोखला कर बाहर से आयातित गंदगी को संस्कृति के नाम पार थोपा जा रहा है। पर्यटन के 'राष्ट्रीयकरण' के चलते पहाड़ों मे बढ़ती संख्या और उनके लिए नई संशधनों की आवश्यकता ने पहाड़ों की प्रकृति पर भयानक दबाब डाला है। आखिर इन सबके लिए व्यवस्थाएं कैसी होंगी लेकिन सत्ताधारी इस पर बात करने के तैयार नहीं और हर एक समस्या पर अपने चालाकी के 'नुस्खे' बताकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। वही लोग नए समाधान के नाम पर ठेके ले रहे हैं जो यहा की समस्याओ के लिए जिम्मेदार हैं।
ये समझना आवश्यक है कि कैसे पहले 'विकास' का नाम लेकर हर एक काम किया गया। जो लोग इन सवालों को पूछ रहे थे उन्हे खलनायक बना दिया गया। कहा गया कि बांध बनाकर ऊर्जा प्रदेश बनेगा हालांकि ये भी सभी को पता है कि सारे गांवों मे आज भी बिजली नहीं पहुंची है। लेकिन विकास के नाम पर चलाई जा रही ऐसी नीतियां जिनमें ऊपरी हिमालय में बड़े बांधों का निर्माण शामिल है, जिन्हें “ऊर्जा अधिशेष” राज्य बनाने के नाम पर उचित ठहराया गया। ये परियोजनाएं लालच के अलावा और कुछ नहीं हैं क्योंकि इन्हे अपने 'प्रबंधकों' और 'ठेकेदारों' की कमाई का जरिया बनाया गया। अन्यथा हम सब जानते है कि ये सभी परियोजनाएं नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करती हैं और फिर प्राकृतिक प्रतिक्रिया को आमंत्रित करती हैं। आज घाटियों को चीरती नदियों की उग्रता हमें प्रकृति की बेजोड़ शक्ति की याद दिलाती है। तकनीक, चाहे कितनी भी उन्नत हो, प्रकृति के इस रौद्र रूप के र सामने असहाय नजर आती है। उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, जम्मू कश्मीर, लद्दाख की घटनाए अब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि सुधार जाओ और प्रकृति से दुश्मनी न करो। अब हमारे आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता हिमालय का सम्मान करना है, रुककर उन विनाशकारी विकास नीतियों पर पुनर्विचार करना है जो उन्हें केवल एक प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखती हैं जिसका उद्देश्य मात्र मुनाफा कमाना है। ऐसे सभी विचारों को अब छोड़ देना चाहिए क्योंकि हिमालय कि सुनामी मैदानी क्षेत्रों को भी नहीं छोड़ने वाली। ये प्रश्न केवल हिमालय का नहीं है। हमारी नदियों ने यदि अपना असली रूप दिखा दिया तो मैदान भी नहीं बचेंगे। इसलिए आज गंभीर चिंतन की जरूरत है। हिमालय और उससे निकलने वाली गाड़ गदेरो का सम्मान करना सीखो। शायद प्राचीन काल मे हमारे पुरखे नदियों, पहाड़ों, गदेरो को पूजते थे तो इसलिए क्योंकि उनकी जिंदगी इन्ही के दम पर थी। आज हमने उनको खत्म कर कमाई करने का धंधा बनाने की सोची और सभी ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया कि हमारी मशीन और सत्ता का नशा केवल असहाय दिखा। क्या अभी भी समझ नहीं आया।
डुखाद बात यह है कि हम आज एक “विकास माफिया” के उदय को देख रहे है, जो लोगों को झूठे सपने बेच रहा है और क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत को लूट रहा है। एक कल्याणकारी राज्य हिमालय को ए टी एम मशीन की तरह नहीं देख सकता। ये पहाड़ हमारे रक्षक हैं, उनकी नदियां हमें जीवन देती हैं, और उनके पारिस्थितिकी तंत्र पूरे भारत में जीवन को संतुलित करते हैं। फिर भी, हम नदियों को सुखाने, उनमें कचरा डालने, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को विस्फोट करने, और रेलवे लाइनों व मेगा-ब्रिजों का बोझ डालने में क्यों लगे हैं? आस्था के नाम पर लाखों तीर्थयात्रियों को, जो उनकी भारी संख्या मे उपस्थिति के पर्यावरणीय प्रभाव की परवाह नहीं करते, पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को अभिभूत करने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया जा रहा है? लाखों की संख्या मे तीर्थ यात्रियों का आना यहा के मौजूदा प्रबंधन को कैसे प्रभावित कर रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। आखिर एक दिन मे इन पर्वतीय क्षेत्रों मे लोगों के आने से हमारी नदियों, बुगयालों और अन्य स्थानों पर क्या असर पड़ रहा है?
यह तबाही केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं है। पंजाब की कृषि भूमि जलमग्न हो गई है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और आजीविका नष्ट हो गई है। अतिप्रवाह करने वाले बांधों ने भारत और सीमा पार पाकिस्तान में संकट को और बदतर कर दिया है। लंबे समय से बांधों को प्रगति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन बाढ़ को बढ़ाने में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बांध के गेट संकट के चरम पर ही क्यों खोले जाते हैं, जिससे नीचे की ओर तबाही बढ़ जाती है? इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए। विशेषज्ञों को यह आकलन करना चाहिए कि बड़े और छोटे बांधों जैसे कृत्रिम हस्तक्षेपों ने प्राकृतिक बाढ़ों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया है या नहीं। सबूत तेजी से यह सुझाव दे रहे हैं कि ऐसा ही है।
राज्य सरकारों के लिए सच्चाई का सामना करने का समय आ गया है: उनके लोगों का भविष्य सुरंगें खोदकर, पहाड़ों को विस्फोट करके, या नदियों को निजी हाथों को सौंपकर सुरक्षित नहीं किया जा सकता। मुख्यधारा का मीडिया इन असहज वास्तविकताओं पर बहस करने से कतराता हो , लेकिन नागरिकों को इस विनाशकारी मॉडल पर सवाल उठाते रहना चाहिए। हिमालयी राज्यों को ऐसा विकास चाहिए जो उनके स्थानीय और मूल निवासी समुदायों के सहयोग और भागीदारी के साथ हो । ऐसी कोई भी परियोजनाएं जो विकास के नाम पर पर्यावरण के नियमों की धज्जियां उड़ाएं और मुट्ठीभर ठेकेदारों, बिचौलियों और कॉरपोरेट मित्रों को समृद्ध करे, का जमकर विरोध होना चाहिए। अक्सर, बुनियादी ढांचे को ठीक करने के लिए दिए गए 'ठेके' राजनीतिक एहसानों के रूप में दिए जाते हैं, जिनके मुनाफेदार गुजरात और अन्य जगहों के व्यापारिक घरानों होते हैं, जबकि स्थानीय लोग पर्यावरणीय तबाही के अलावा और कुछ नहीं पाते। ऐसे ठेके बंद होने चाहिए। जनता को ये जानने का अधिकार है कि किन लोगों को 'विकास' ये ठेके दिए गए और क्या वे सभी सुरक्षित हैं और मानकों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। विकाय की ऐसी ऐसी नीतियां जिनमे स्थानीय मूल निवासियों की भूमिका न के बराबर है, न केवल यहा के पर्यावरण को नष्ट करती हैं बल्कि हिमालय की सांस्कृति और इतिहास को भी हानि पँहुचाती है। यदि लोकतंत्र का कोई अर्थ है, तो पहाड़ों के भविष्य के बारे में निर्णय वहां रहने वाले लोगों के साथ संवाद में लिए जाने चाहिए, न कि ऊपर से थोपे जाने चाहिए।
हिमालय की पहड़िया और घाटियां अब हमे चेतावनी दे रही हैं कि बंद करो उनका दोहन और शोषण । वो कह रही हैं कि यहा के मूल निवासी प्रकृति की पूजा करता था और उसके साथ सामंजस्य बना कर रहता था और अपनी सुकून भरी जिंदगी मे संतुष्ट था। अब 'विकास' की आंधी ने पहाड़ियों से पहाड़ छीन लिए और उसका गुस्सा भी देख रहे हैं। पहाड़ कह रहे हैं कि उनका सम्मान करो, अपनी परम्पराओ की ओर लौटो और 'विकास' के नाम पर विनाशकारी व्यवसायिक आदत बादलों। हमारी नदिया और पहाड़ हमारी संस्कृति और स्वाभिमान है, इन पर अब अपनी ललचाई नजर मत डालो। पहाड़ ये कह रहे हैं, सुधर जाओ, वापस अपने मूल पर आओ। ये समझ लीजिए कि जब तक हम अपना रास्ता नहीं बदलते, प्रकृति का रोष और अधिक गहरा होगा और लोगों को उसकी और भी अधिक विनाशकारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा। प्रकृति का सम्मान करें और उसके साथ तालमेल कर ही हम अपना जीवन संतोष के साथ जी सकेंगे।