क्या पर्वतीय क्षेत्रो को अनुसूची ५ या ६ में डालकर उनके विशेष चरित्र को बचाया जा सकता है ?
विद्या भूषण रावत
5 अगस्त, 2025 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में धराली गांव को पूरी तरह से बहा ले जाने वाली हिमस्खलन ने भारत में मीडिया को गंभीर रूप से ध्रुवीकृत वर्ग के रूप में उजागर कर दिया है. साथ ही विभिन्न पार्टियों की राजनीतिक नेतृत्व को भी, जो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे यह पहली बार हुआ है और दोबारा नहीं होगा। एक तरफ 'राष्ट्रीय मीडिया' है, जिसे मैं हमेशा जातिवादी मनुवादी मीडिया कहता हूं, जो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी का मुख पत्र या प्रचार तंत्र के तौर पर व्यवहार कर रहा है और इस घटना को 'पीपली लाइव' की तरह दिखा रहा है क्योंकि सामूहिक विनाश की लाइव कहानियां भी इन लाभ कमाने वाली कंपनियों के लिए टीआरपी लाती हैं। इन दिनों प्रचार मीडिया को हमेशा राष्ट्रीय मीडिया पर प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वे सभी सुविधाओं के साथ जाते हैं और राज्य तंत्र भी उनका ख्याल रखता है ताकि वे 'ब्रेकिंग न्यूज' प्रसारित कर सकें। फोकस ज्यादातर 'एक्शन' को लाइव प्रसारित करने पर होता है। ज्यादातर समय, हम जेसीबी मशीन काम करते हुए या सेना के हेलीकॉप्टर लोगों को ले जाते हुए देखते हैं और फिर लोग सरकार और अधिकारियों को 'सहायता' प्रदान करने के लिए धन्यवाद देते हैं। इसलिए, सब कुछ इतना प्रभावशाली बना दिया जाता है कि किसी के पास सरकार से कोई भी प्रश्न पूछने का समय नहीं होता। निश्चित रूप से, यह अच्छा है कि सरकार लोगों को राहत प्रदान करने के लिए रात दिन एक कर रही है, लेकिन लापता या मृत लोगों की सटीक संख्या का अधिकारिक आंकडा अभी तक क्यों नहीं आ पाया है। सरकार स्थानीय मीडिया को घटना को कवर करने की अनुमति क्यों नहीं दे रही है। यह 'राष्ट्रीय' मीडिया को सभी 'सेवाएं' खुशी से क्यों प्रदान कर रही है। वास्तव में, देहरादून में स्थित कुछ 'स्थानीय' मीडिया को भी ऊपर से वीडियो शूट करने का अवसर मिला, लेकिन इस पूरे समय में, सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वे लोग निभा रहे हैं जिन्हें हम 'यूट्यूबर' कहते हैं, जिन्हें बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया है, लेकिन यह वे हैं जिन्होंने पूरे क्षेत्र की अनसुनी कहानियों को लाने के लिए कठिन इलाके में पैदल यात्रा की। उन्होंने उत्तरकाशी से धराली तक खतरनाक परिस्थितियों में चलकर रिपोर्टिंग की। इनमें से अधिकांश साथी 'पत्रकार' भी नहीं कहलाते। वे उत्तरकाशी से धराली तक पैदल पहुंचने के अपने साहसी प्रयासों के लिए प्रशंसा के पात्र हैं, खासकर जब बारिश जारी रही और राष्ट्रीय राजमार्ग नाम मात्र का रह गया और पूरी तरह से भागीरथी में समा गया। इन सोशल मीडिया रिपोर्टरों या प्रभावकों ने कथित राष्ट्रीय पीआर एजेंटों की तुलना में कहीं बेहतर रिपोर्टिंग की है, जिनके पास सरकार और अधिकारयो से प्रश्न पूछने का समय नहीं था। बल्कि, हर मीडिया हाउस हमें बता रहा है कि उनके रिपोर्टर 'धराली' पहुंचने वालो में सबसे 'पहले' थे। एकमात्र असुविधाजनक प्रश्न जो पूछा जा रहा है, वह यह है कि स्थानीय लोगों ने नदी के किनारे पर कब्जा कर घर और होटल बनाए और इसलिए यह हादसा हुआ। सरकार की नीतियों के बारे में कुछ नहीं जो इस तरह की मास टूरिज्म को बढ़ावा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस तरह का निर्माण हुआ। सवाल यह भी की ऐसे निर्माणों को अधिकृत करने के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या ऐसे निर्माण की अनुमति देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी? क्या सरकार के हलकों में जलवायु संकट की बढ़ती चुनौती के बारे में कोई बहस है और हमें जलवायु अनुकूल समाधानों की आवश्यकता क्यों है। क्या वे हमारे पहाड़ो की भारी ड्रिलिंग और खुदाई पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं? क्या इस पर बहस होगी कि हमारी नदियों की क्या स्थिति है ? ये भी महत्वूर्ण है कि आखिर 'विकास की गंदगी' कहां जा रही है? यानि विकास से जो मलबा निकल रहा है उसका निष्पादन कैसे हो रहा है ? क्या वो हमारी पवित्र नदियों में नहीं फेंका जा रहा है ? क्या हम व्यवसायिक धार्मिक पर्यटन पर कोई चिंतन करेंगे कि आखिर एक समय में उत्तराखंड कितने लोगो को संभाल सकता है. आखिर हमारे पर्वतीय क्षेत्र एक समय में कितने लोगो या भक्तो को झेल पाएंगे इसके लिए क्या कोई सीमा घोषित की गयी है ? चारधाम से अब कितने टन मानव मल और अन्य कचरा बहता है? इन पर एक निष्पक्ष चर्चा की कल्पना करें। कोई भी उत्तराखंड और चारधाम के धार्मिक महत्व को नकार नहीं सकता, लेकिन उसका सम्मान किया जाना चाहिए। कोई भी योजना चाहे धार्मिक हो या गैर-धार्मिक, पर्यटन हो या विकास, स्थानीय परंपराओं, भावनाओं के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रश्नों की अनदेखी करके आगे नहीं बढनी चाहिए। आप धर्म के नाम पर मास टूरिज्म को बढ़ावा नहीं दे सकते जो क्षेत्र की पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी को और अधिक बोझिल और बाधित कर रहा है । हमें समझना चाहिए कि ये क्षेत्र केवल धार्मिक महत्व के नहीं हैं बल्कि भारत की जीवन रेखा भी हैं। हिमालय हमारी नदियों का श्रोत है और गंगा हमारी विरासत है जो हिमालय को सुंदरबन से जोड़ती है। इसके अलावा, उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है और एक नहीं बल्कि दो देशों- चीन और नेपाल के साथ जिससे इस क्षेत्र का सामरिक महत्त्व और भी अधिक हो जाता है.
धाराली की त्रासदी से बहुत से सवाल खड़े हो गए हैं जिन पर सार्थक विमर्श की आवश्यकता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह की आखिर मौसम के पूर्वानुमान में ऐसी खतरनाक घटनाओं की जानकारी क्यों नहीं प्राप्त हो रही है। हालांकि 2013 में केदारनाथ तबाही के बाद, हमने बहुत शोर सुना लेकिन कुछ भी ज्यादा नहीं हुआ सिवाय मौसम के बारे में कुछ चेतावनी संदेशों के। लेकिन ग्लेशियल झील के फटने या क्लाउड बर्स्ट की संभावना के बारे में लोगों को अग्रिम चेतावनी देने में यह क्यों विफल रहा। अधिकारियों ने खीरगाड़ के ऊपरी हिस्सों में संभावित ग्लेशियल झील के गठन की पप्रारंभिक जानकारी प्राप्त करने में क्यों सक्षम नहीं हो सके। वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी गई। निश्चित रूप से इस झील का गठन एक दिन की बात नहीं थी? क्या इसे उत्तराखंड हिमालय के आसपास विशेषज्ञों की टीम द्वारा नियमित रूप से मॉनिटर नहीं किया जा सकता. क्या उत्तराखंड और अन्य हिमालयी क्षेत्रो में इस प्रकार की घटनाओ की पुनरावृति रोकने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय नहीं ली जा सकती या उन्हें इस कार्य को सेना के हेलीकॉप्टरों के माध्यम से लगातार मॉनिटर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती ? सैटेलाईट के फोटो महत्वपूर्ण हैं लेकिन सरकार को इसे स्थानीय स्तर पर भी करना चाहिए। यह घटना हमें फरवरी 2021 की ऋषिगंगा-धौलीगंगा तबाही की याद दिलाती है जिसमें एक पावर प्रोजेक्ट के साथ-साथ उसमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर बह गए।
वास्तव में, धराली की घटना 'होने का इंतजार' कर रही थी. यह न तो पहली है और न ही आखिरी, जिसका मतलब है कि हमने अतीत की घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखा और शायद हम अब भी कुछ नहीं सीखेंगे। हर कोई होम स्टे बनाना चाहता है। बड़ी संख्या में रिजोर्ट भी बनने शुरू हो गए हैं। हमारे गाँव गदेरो, नालो में बड़े होटल और रिजोर्ट आ चुके हैं. जहा हुम नहीं पहुँच पाए वहा दिल्ली का लाला पहुँच गया है . सभी उत्तराखंड में आने वाले टूरिस्ट को देख रहे हैं और ऐसे जगहों पर बनाये जा रहे हैं जो बिलकुल अलग थलग हैं ताकि आगंतुको को 'आराम' दिया जा सके. उसके ऊपर जब करोड़ों लोग यात्रा के लिए राज्य में उमड़ पड़ेंगे तो छोटे बड़े होटलों और होमस्टे की जरुरत तो पड़ेगी ही. इसके लिए जिसके पास थोड़ा भी जगह है वो वहा पर होम स्टे बनाने की सोचता है. सरकार भी इसे ब्यापार और स्किल डेवलपमेंट का मॉडल सोचकर आगे बढ़ा रहे है. आखिर जब पर्यटकों के लिए सस्ते दरो पर यही सब चाहिए तो लोग अपने घर के ही आस पास की जमीन हथियाएँगे. उत्तराखंड का पर्यटन बारह मासा तो है नहीं. असल में मुश्किल से दो तीन महीने ही ये होता है और बारिस के बाद तो यात्री वहा रहते नहीं. दुसरे, धार्मिक पर्यटन ऐसा नहीं है जैसे वर्ल्ड कप फूटबाल के पर्यटक जो जहा जाते हैं खूब मस्ती करते हैं और खर्च भी करते हैं. यहाँ जिस राज्य से पर्यटक आते हैं वे उसी राज्य के ढाबे में जाना पसंद करते हैं. पंजाब से सबसे अधिक लोग आ रहे हैं लेकिन पता कीजिये की आम ढाबो में कितना खा रहे हैं ? धार्मिक पर्यटन होना चाहिए लेकिन पर्यटकों की सीमा निर्धारित होनी चाहिए और उसे व्यापार में बदलने की कोशिश ही उत्तराखंड में ये तबाही ला रही है.
आज हम इन तथाकथित आपदाओं के कारणों और समाधानों पर चर्चा नहीं करते। इसके बजाय तथाकथित मीडिया अन्य त्रासदी को भी एक भव्य तमाशा बनाने की कोशिश करते हैं जिसमे फोकस कार्य कर रहे अधिकारियो , भारी मशीनरी, हेलीकॉप्टरों का उपयोग लोगों को ले जाने के लिए, स्निफर डॉग्स, बड़े नेता दौरा करते हुए आदि। ऐसा करते समय वे भूल भी जाते हैं की उनकी रिपोर्टिंग राहत का कार्य कर रही संस्थाओं के काम में बाधा डाल रहा होता है. बहुत से 'मीडिया कर्मी' और दिल्ली में उनक चैनलों के मार्केटिंग एजेंट बेशर्मी से येही बताते रहते हैं कि ;घटनास्थल; पर पहुँचने वाले वह पहले व्यक्ति है और उनका पहला काम सरकारी तंत्र के साथ जुगाड़ लगना होता है. अधिकारियों को भी पता है कि किसी खबर से वे 'राष्ट्रीय' चैनल पर होते हैं इसलिए वे भी इनकी आवभगत में लग जाते हैं. मीडिया फिर व्यवस्था का हौव्वा खडा कर धीरे धीरे 'संवेदनशील' होने का प्रयास करता है. फिर परिवारों से प्रश्न होते हैं : 'घटना कैसे घटी', क्या हुआ और कौन खो गया के बारे में पूछते हैं लेकिन उनकी कोई सहायता या उनके साथ क्या होगा के बारे में नहीं। कोशिश होती है कि थोड़ा सहानुभूति दिखाकर बड़े प्रश्नों को गायब कर दिया जाए. इसलिए ये कोई नहीं पूछता की इतने दिनों तक बड़े अधिकारी यहाँ क्यों नहीं पहुंचे.
आज एक मित्र से धराली में बात हो रही थी और वह कह रहे थे कि यहाँ पर अब खाने पीने या रोजमर्रा की आवश्यकता वाली वस्तुओ की जरुरत नहीं है क्योंकि वो बहुत आ चुके हैं. अब आवश्यकता है लोगो को ढूंढ निकालने की, मृतकों और लापता लोगो के सही आंकड़ो की और लोगो की जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की. लोगो का सभी कुछ समाप्त हो चुंका है, उनकी चिंता तो यही है की आखिर जिंदगी को पटरी पर वापस कैसे लायें. सब जानते हैं कि दान के सहारे तो बहुत दिनों तो नहीं ज़िंदा रहे सकते हैं. लोगो ने मेहनत से अपने सपनो के आशियाने बनाए थे इसलिए उसे दोबारा लाने के लिए प्रयास करने होंगे.
दुर्भाग्यवश, ऐसे प्रश्न अब सत्ता से नहीं पूछे जाते कि लोग वहां अपना जीवन कैसे बनाएंगे। क्या उन लोगों के पुनर्वास की कोई योजना है जिन्होंने सब कुछ खो दिया या सरकार अपनी औद्योगिक, पर्यावरणीय या पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित अन्य नीतियों को बदलेगी। यही कारण है कि मीडिया को मालिक की सेवा में लगा दिया जाता है ताकि ये असुविधाजनक प्रश्न दबे रहें। उत्तराखंड की आपदाएं केवल प्राकृतिक नहीं हैं बल्कि विकास के नाम पर अपनाई जा रही लापरवाह विनाशकारी नीतियों का परिणाम भी हैं। क्या वह मॉडल टिकाऊ है? क्या हमें अपने पवित्र पर्वतों और नदियों की रक्षा और सम्मान के बारे में जोर से सोचना नहीं चाहिए। मैंने कई बार कहा है और कहता रहूंगा, ये पर्वत और नदियां, हमारे पहाड़, हमारी गंगा-गाड़-गदेरा हमारी पहचान और विरासत हैं, निश्चित रूप से उपयोग करने के लिए संसाधन नहीं। उन्हें संसाधन मानना बंद करें और अपनी व्यावसायिक लालच के लिए उनका शोषण करना बंद करें।
कुछ दिन पहले, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए एक कड़ी चेतावनी जारी की: “वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से गायब हो सकता है।” अदालत ने ये बात साफ़ तौर पर कही कि हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण के मानको के अनुसार ही कार्य करने की आवश्यकता है. पिछले कुछ वर्षो से हिमाचल प्रदेश में भयानक तबाही हुई लेकिन अभी तक उस पर कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है क्योंकि इस तबाही के पीछे केवल मौसम नहीं है अपितु सीमेंट और कंक्रीट के बड़े बड़े महल, होटल रिसोर्ट आदि और राज्य में जल विद्युत् परियोजनाओं की बढती संख्या.
हिमाचल प्रदेश को 2025 में मानसून से संबंधित आपदाओं से भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। राज्य आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, राज्य ने 20 जून, 2025 को मानसून शुरू होने के बाद से ₹1,539 करोड़ का नुकसान उठाया है। इसमें 94 मौतें, 36 लापता, और वर्षा से संबंधित घटनाओं में 1,352 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त शामिल हैं (इंडियन एक्सप्रेस, अगस्त 2025)। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट और भी गंभीर चित्र प्रस्तुत करती है, जिसमें 2 अगस्त, 2025 तक 173 मौतें, 37 लापता, और 115 घायल नोट किए गए हैं, जिसमें 6 जुलाई, 2025 तक 23 फ्लैश फ्लड और 19 क्लाउडबर्स्ट दर्ज किए गए हैं (एनडीटीवी, 2 अगस्त, 2025)। अधिकांश मौतें वर्षा से संबंधित थीं, जिसमें मंडी, कुल्लू और कांगड़ा जिलों ने सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, जहां 243 सड़कें अवरुद्ध थीं, 241 बिजली ट्रांसफार्मर बाधित थे, और 278 जल आपूर्ति योजनाएं गैर-कार्यात्मक हो गईं जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में है, 7 जुलाई, 2025)।
उत्तराखंड, जो अक्सर आपदाओं की आवृत्ति में हिमाचल से प्रतिस्पर्धा करता है, ने 4 जुलाई, 2025 तक 70 मौतें दर्ज कीं, जिसमें 20 प्राकृतिक आपदाओं (भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट और बाढ़) से और 50 सड़क दुर्घटनाओं से, 9 लापता (ज्यादातर उत्तरकाशी में) और 177 घायल (टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 जून, 2025)। पिछले कुछ हफ्तों में क्लाउड बर्स्ट और भूस्खलन की घटनाएं लगातार आ रही हैं जिसके परिणामस्वरूप चारधाम यात्रा कई दिनों तक बाधित रही लेकिन अब धाराली आपदा ने सब कुछ पीछे छोड़ दिया है। यह अभूतपूर्व है लेकिन हम सभी के लिए एक जागृति कॉल है। अब तक हमें मरने या लापता लोगों की सटीक संख्या नहीं पता है। असल में धराली के साथ अन्य बहुत से स्थानों पर भी इसी प्रकार की स्थितिया हैं लेकिन मीडिया को दूसरे स्थानों पर जाने का समय नहीं है.
अनियंत्रित पर्यटन: एक सांस्कृतिक और पर्यावरणीय खतरा
दोनों हिमालयी राज्य, जिनकी छवि को देवभूमि के रूप में गढ़ा गया है आज मास टूरिज्म के बोझ तले कराह रहे हैं। उत्तराखंड ने 4 जुलाई, 2025 तक 3.96 करोड़ पर्यटकों का स्वागत किया, जिसमें 3.94 करोड़ घरेलू और 1.66 लाख अंतरराष्ट्रीय आगंतुक शामिल हैं, जिसमें चारधाम यात्रा के लिए 34.07 लाख तीर्थयात्री पंजीकृत हैं (13.58 लाख केदारनाथ, 11.52 लाख बद्रीनाथ, 4.97 लाख गंगोत्री, 3.99 लाख यमुनोत्री) (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025; आउटलुक इंडिया, 16 मई, 2025)। हिमाचल प्रदेश ने जुलाई 2025 तक 1.4 करोड़ पर्यटकों को दर्ज किया, जो शिमला और मनाली जैसे पहाड़ी स्टेशनों द्वारा संचालित है (हिंदुस्तान टाइम्स, जुलाई 2025)। हालाँकि ये संख्याएं स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देती हैं लेकिन वे यहाँ के नाजुक भौगोलीय तंत्र और बुनियादी ढांचे पर दबाव डालती हैं, जो आपदा जोखिमों को बढ़ाती हैं।
चारधाम यात्रा जिसे उत्तराखंड के पर्यटन की आधारशिला भी कह सकते हैं आज अनियंत्रित पर्यटन का प्रतीक बन गई है। जुलाई 2025 तक, 169 तीर्थयात्रियों की मौत स्वास्थ्य समस्याओं जैसे हृदयाघात और उच्च रक्तचाप से हुई (78 केदारनाथ में, 44 बद्रीनाथ में, 24 गंगोत्री में, 22 यमुनोत्री में) (टाइम्स ऑफ इंडिया, जुलाई 2025)। अप्रैल 2025 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में छह तीर्थयात्रियों की मौत हो गई, जो ऑपरेटरों पर लाभ को सुरक्षा से ऊपर रखने के दबाव को दर्शाती है (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025)। हिमाचल में, कुल्लू-मनाली और शिमला में ओवर-टूरिज्म ने यातायात जाम और पर्यावरणीय गिरावट को जन्म दिया है, जहां पर्यटक नदियों में कचरा फेंकते हैं और स्थानीय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं ।
पहाड़ मैं पर्यटकों की आना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बहुत से लोग पहाड़ो को अक्सर औपनिवेशिक नजरिये से देखते है और उसका भौंडा प्रदर्शन भी करते हैं. वह हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को धमकी देते हुए अपने पैसे और रसूक के बल पर उसका मजाक भी उड़ाते हैं। ऐसे युवा आगंतुक गंगा के किनारे अपनी थार लेकर खुले में हुक्का और शराब पीते हैं और उसी नैतिकता का मजाक उड़ाते हैं जिसकी खातिर यहाँ आने का ढोंग करते हैं. उत्तराखंड में एक समय में गाँवों में घरो में ताले नहीं लगते थे और पुलिस का काम न के बराबर था क्योंकि कोई भी चोरी, डकैती या छेडछाड की घटनाएं नहीं होती थे लेकिन आज छेड़छाड़ और लोगो के गायब या लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और ये स्थानीय लोगो के कारण नहीं हो रहा अपितु बेनियांत्रित पर्यटन के कारण हो रहा है। बाहरी सांस्कृतिक प्रथाओं का ऊपर से थोपा जाना बेहद चिंताजनक है. संस्कृति केवल पूजा पध्यती नहीं है, वो हमारे खान पान से भी निर्धारित होती है लेकिन आज स्थानीय व्यंजनों की जगह पर ढाबो में मैगी, पराठे आदि की मांग बढ़ रही हैं वही पहाड़ी ब्यंजनो जैसे धपड़ी, फाणु, कफली, चैन्सू, च्यूं. बन्स्किल, कन्दाली का साग आदि को अब के बच्चे तो जानते भी नहीं होंगे. संस्कृति को कोई शोर करके ख़त्म नहीं करता अपितु बाज़ार के जरिये नियंत्रण किया जाता है. जब पहाड़ी व्यंजनों की मांग ही नहीं होगी तो कोई उन्हें क्यों बनायेंगे तो वो बाज़ार से स्वयं ही गायब हो जायेंगे. ऐसे ही, हमारे तीर्थस्थलो पर हो रहे निर्माण कार्य में कोई भी बात हमारी संस्कृति और परम्पराओं को प्रदर्शित नहीं करती. ये सब पैसे का भोंडा प्रदर्शन कर हम पर निर्माण के नाम पर अहसान और हमारी संस्थानों पर कब्जे के अलावा कुछ भी नहीं है. ऐसे ही होटल और रिजोर्ट आदि से होता है. यानि आज के दौर में आप की संस्कृति बाज़ार निर्धारित करता है और बाज़ार पर जिसका नियंत्रण होता है वोही हावी होता है. उत्तराखंड में यदि बाज़ार के अनुसार चलने की कोशिश करेंगे तो वो खतरनाक होगा.
कुछ बाहरी लोग, राजनीतिक एजेंडों द्वारा समर्थित, एक समरूप हिंदुत्व कथा को आगे बढ़ाते हैं, जो हिमाचल और उत्तराखंड के विशिष्ट पारंपरिक शैली को नजरअंदाज करते हैं, जहां स्थानीय देवता और स्थाई प्रथाएं लंबे समय से फल-फूल रही हैं । यह भी समझना होगा कि धार्मिक भावनाये व्यावसायिक लाभों से अलग है और यदि दोनों को जोड़ा गया तो उसके नतीजे भयावह होंगे। वास्तव में, पिछले कुछ दशकों में, भारत की सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने व्यावसायिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण किया है। स्पष्ट रूप से, भारत को एक धार्मिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया है जहां बाबाओं का फलना-फूलना और भक्ति और परंपराओं के नाम पर चमत्कारों के नए स्थानों का निर्माण हो रहा है। हिमालयी क्षेत्र अलग हैं और आप उन्हें मैदानी इलाकों के साथ नहीं जोड़ सकते जहां आपके पास विशाल भूमि है और बुनियादी ढांचे के विकास से संबंधित कोई समस्या नहीं है। हिमालयी क्षेत्रों में, ये बुनियादी ढांचे का विकास हिमालय, हमारी पवित्र नदियों और यहाँ के लोगों की कीमत पर आएगा। ऐसा कोई भी विकास हमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए जो हमें हमारी ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति परम्पराओ और हमारी अस्मिता से अलग थलग करता हो.
जलविद्युत परियोजनाएं: प्रकृति की कीमत पर लाभ कमाना
केंद्र सरकार का जलविद्युत योजनाओं को लगातार जोर देना जिसे हिमालय की “क्षमता” के रूप में ब्रांडेड किया गया है, पर्यावरणीय और सामाजिक मूल्यों पर कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता देता है और अब यह पूरी तरह से उजागर हो गया है क्योंकि दोनों राज्य भारी आपदाओं का सामना कर रहे हैं हालांकि आज भी पूरी कहानी को 'क्या हुआ और कब हुआ' तक सीमित रखने के प्रयास हैं 'क्यों हुआ' हमारे पूरे विश्लेषणों और राजनितिक चर्चाओं से गायब है. हिमाचल प्रदेश में 41 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं हैं और वहा पर भयानक बाढ़ के पीछे प्रकृति की मार नहीं वहा बने बांधो का पानी छोड़ना शामिल है.
डाउन टू अर्थ मैगजीन में एक रिपोर्ट कहती है : 'उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में जलविद्युत परियोजनाएं स्थापित की जा रही हैं। राज्य के ये स्थान आने वाले वर्षों में भूकंपीय या जलवायु से संबंधित आपदाओं का शिकार हो सकते हैं। उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कम से कम 15 ऐसी परियोजनाएं हैं जिनमें लगभग 70,000 करोड़ रुपये का निवेश है। क्लाइमेट रिस्क होराइजन्स की रिपोर्ट नोट करती है कि उत्तराखंड में 25 मेगावाट से अधिक की 81 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं पाइपलाइन में हैं और 18 परियोजनाएं अभी पूरी तरह से एक्टिव हैं । जलवायु की 'अति' संबंधित खतरे ने उनके भविष्य पर अनिश्चितता पैदा कर दी है।'
(https://www.downtoearth.org.in/dams/extreme-weather-events-can-completely-destroy-hydropower-projects-in-uttarakhand-report)
ईमानदारी से यदि विश्येलेषण करें तो ये पायेंगे कि ये परियोजनाएं हमारी नदियों को नष्ट कर रही हैं क्योंकि मलबे को उनसे दूर रखने का कोई तरीका नहीं है। बड़े बोल्डर, पत्थर, कंक्रीट सब कुछ चुपचाप उनमें फेंका जा रहा है जो कई बार नदियों के प्रवाह को जोखिम में डालता है। वनों की कटाई, ब्लास्टिंग, और तलछट की बाधा उच्च पर्वतों में ढलानों को कमजोर और अस्थिर करती है जो अचानक फटने का जोखिम पैदा करती है जिसके परिणामस्वरूप धाराली जैसी आपदाएं होती हैं। क्या हम भूल गए हैं कि जोशीमठ में क्या हुआ जहां शहरं में स्थित सभी भवनों और निर्माणों में दरारें आ गईं। जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ो पर की जा रही ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग और टनलिंग से नुक्सान का खामियाजा नहीं भरा जा सकता है और ये अब बहुत से विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अच्छी तरह से दस्तावेजित है हालांकि तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया अब इसे ज्यादा रिपोर्ट नहीं करता. ऐसा लगता है कि हर कोई अब जोशीमठ को भूल गया है। रैनी गांव के ग्रामीणों ने अपने गांव को खतरे के खिलाफ अदालत का रुख किया लेकिन अदालत से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। वास्तव में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने लोगों सहित कार्यकर्ताओं को मामला दाखिल करने के लिए दस हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया।
धार्मिक पर्यटन के सामूहिकरण ने गंगा स्नान जैसी मैदानी इलाकों की प्रथाओं को हिमालय में आयात किया है, जहां सामुदायिक स्नान दुर्लभ है, और नदियों की पूजा की जाती है, प्रदूषित नहीं । केदारनाथ में लाउडस्पीकर, डीजे, और ड्रम बजाना पवित्र शांति को बाधित करता है । गुजरात की वास्तुशिल्प शैली की नकल करने वाली सीमेंटेड संरचनाएं उत्तराखंड के अनोखे लकड़ी के मंदिरों की जगह ले रही हैं, जो न केवल स्थानीय शिल्पकला और व्यवसायों को कमजोर कर रही हैं अपितु हमारी संस्कृति पर सीधे हमला है । आखिर ये सवाल तो करना पडेगा की बद्रीनाथ में ये सीमेंटेड कोरिडोर किस लिए बनाये जा रहे हैं. क्या 'देशी' बाबा और भक्तो को हमारे सबसे महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठाने के लिए यह एक नया प्रबंधन है. क्या उनके साथ और भी लोगो को यहाँ का मूलनिवासी बनाने के लिए ये प्रयास किये जा रहे हैं ? अगर इतनी बड़ी संख्या में बाहर से लोगो को लाकर यहाँ फाइव स्टार सुविधाएं दी जाएँगी तो सरकार बताये कि इतने कूड़ा और मल मूत्र को किस प्रकार से निष्पादित किया जाएगा वो भी बताये. क्या भागीरथी और अलकनंदा को उनके श्रोतो से ही बदबूदार और प्रदूषित करने का कोई षड्यंत्र नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग जो बाहर से आ रहे हैं उन्हें पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ो की पवित्रता से कोई मतलब नहीं है. वे अपने भगवानो को प्रसन्न करने के वास्ते आते हैं और फिर अपना कूड़ा कबाड़ यहाँ छोड़कर चले जाते हैं। इसलिए बद्रीनाथ केदारनाथ धामों में जो लोग इस तथाकथित मास्टर प्लान के खिलाफ विरोध कर रहे हैं, जिनके दुकानों और घरों को ध्वस्त कर दिया है, उन्हें गलत कैसे कहा जा सकता है. क्या जो लोग हमारे धामों में पूरे पारंपरिक चरित्र को बदलने का विरोध कर रहे हैं उन्हें सुनना आवश्यक नहीं है. आखिर हम अपने निर्माण कार्य को हिमालय की पर्यावरणीय उपयुक्तता के अनुसार क्यों नहीं बना सकते जिसमें पारंपरिक उत्तराखंडी छाप हो। क्या ये नए निर्माण हमारी इतिहास, संस्कृति और पारंपरिक जीवन शैली को मिटाने का प्रयास नहीं है?
स्थाई और संतुलित विकास के लिए एक अपील
सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी सरकार से इस विषय में सकारात्कामक कार्यवाही की मांग करती है। सरकार की नीतियां-राजस्व के लिए मास टूरिज्म और जलविद्युत को बढ़ावा देना-इस संकट को बढ़ावा दे रही हैं। अगर अदालत गंभीर है, तो उसे पर्यटको संख्या को नियंत्रित करना चाहिए, स्थायी और संतुलित विकास के लिए मूल पहाड़ी समुदायों को सभी प्रमुख प्रशासकीय और नीतिगत संस्थानों में शामिल करके नए मॉडल की शुरुआत करनी चाहिए. पहाड़ो के स्थानीय देवताओं, परंपराओं और पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है। हिमालय शोषण के लिए कॉलोनी नहीं हैं; वे एक पवित्र, नाजुक क्षेत्र हैं जिन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है। अब आवश्यक हो गया है कि गैरसैण को राजधानी बनाने के प्रश्न पर ईमानदारी से बहस हो और उसे राजधानी घोषित कर दिया जाए तभी इस प्रकार के अतिक्रमण आदि पर रोक लगेगी और उत्तराखंड अपने पहाड़ी परम्पराओं के लिए जाना जाएगा.
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश दोनों को ही बहुत आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है. उन्हें अपना खुद का मॉडल विकसित करना होता और बाहर से 'विशेषज्ञों' का आयात बंद करना पडेगा क्योंकि ये वास्तव में विकास के बहाने स्थानीय परंपराओं और हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजो के लिए खतरा हैं और शोषणकारी और प्रकति के साथ हमारे रिश्तो के विरुद्ध हैं। मैं सभी जलविद्युत परियोजनाओं या मौजूदा चल रहे कार्यक्रमों को रोकने के लिए तो नहीं कहूंगा लेकिन मैं निश्चित रूप से इस प्रकार की किसी भी भविष्य की योजना पर पुर्णतः रोक की मांग करूंगा जो हमारी नदियों और पर्वतों को हानि पहुंचाए और उनका अनियंत्रित शोषण की बुनियाद बने.
धराली, मनाली, कुल्लू, मंडी, रैनी जैसी घटनाएं लगातार हो रही हैं और हम लोग उन्हें 'प्राकृतिक आपदाएं' कह रहे हैं लेकिन हकीकत है की हमने अपनी प्रकृति की न तो रक्षा की और न ही सम्मान किया और इसके नतीजे यह निकले कि हम सभी कि जिंदगी खतरे में आ गयी. यह भी हकीकत है कि हमारे पूर्वज इसी प्रकति के साथ सामंजस्नय बनाकर रहे और हमें बड़ा किया. आपदाएं तब भी आती थी लेकिन उनके लिए इंसान दोषी नहीं होता था. पहाड़ी समाज मेहनत और ईमानदारी के बल पर जीता था. उसके पास इतना पैसा नहीं था लेकिन अपना स्वाभिमान और नैतिकता बची हुई थी . इसलिए आज का संकट असल में स्थानीय मूलनिवासियो द्वारा नहीं लाया गया अपितु यह मै निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि हिमालय में आज का संकट राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा अपनाए जा रहे शोषणकारी विकास मॉडल के कारण जो लालची कॉर्पोरेट के साथ सांठगांठ में लोगों की धार्मिक भावनाओं का बेशर्मी से शोषण करता है. ये पूंजीपति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए वो सब कुछ करने को तैयार हैं भले ही यह स्थानीय पर्यावरणीय, भौगोलिक और सांस्कृतिक परम्पराओ को नुकसान पहुंचाए। उनके विकास के मॉडल में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा नहीं अपितु राष्ट्रीय संशाधनो का व्यक्तिगत हितो के लिए बेजां इस्तेमाल है. इसलिए आज आवश्यकता है की हम हिमालय के इस बेमतलब शोषण को रोकें। शायद, इसके लिए एकमात्र तरीका है कि पहाड़ी क्षेत्रों को अनुसूची V या अनुसूची VI क्षेत्रों के तहत घोषित किया जाए ताकि भूमि को बाहरी लोगों को बेचने से रोका जा सके और इस व्यावसायिक लालच को रोका जा सके साथ ही स्थानीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जा सके। इस संकट का जलवायु अनुकूल समाधान केवल उत्तराखंड के मूल निवासियों के साथ समावेशी जुड़ाव से संभव है और किसी भी भविष्य की परियोजना को पूरी तरह से रोककर जो हिमालय, इसकी नदियों और समुदायों को खतरे में डालती है जो इसके आसपास रहते हैं और इसकी रक्षा करते हैं।
तत्काल इस क्षेत्र को अनुसूची 5 और अनुसूची 6में डाला जाना चाहिए।में
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