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रविवार, 31 अगस्त 2025

हिमालय पर हम सभी के लिए एक गंभीर चिंतन का समय


विद्या भूषण रावत  


हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, और पंजाब में भारी बारिश के कारण हुई भयंकर तबाही केवल एक मौसमी त्रासदी नहीं है—यह प्रकृति की चेतावनी है। फिर भी, इस संकट की विशालता को मुख्यधारा के मीडिया में मुश्किल से ही जगह मिली है। यह चुप्पी चिंताजनक है। इन राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा, लापरवाह तथाकथित “विकास” परियोजनाओं को तत्काल रोकने और हमारे पहाड़ों के भविष्य के बारे में व्यापक लोकतांत्रिक बहस की मांग करता है। दुख की बात है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी, सभी दलों में, ऐसे मूलभूत सवालों से निपटने की कोई रुचि नहीं दिखाती।  इसके बजाय, हमें केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे  मंत्रियों की शर्महीन गौरवपूर्ण अनुभूति  देखने को मिलते हैं, जो हिमालय की इस भयानक त्रासदी मे भी बड़े गर्व से केदारनाथ में रोपवे परियोजना की घोषणा करते हैं और पूरे क्षेत्र मे हो रही घटनाओ पर शर्मनाक तरीके से चुप रहते हैं और अपनी घोषणा को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे कि यह पहाड़ों की समस्या का कोई  बहुत बड़ा समाधान हो। इस बीच, सरकार उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग को  स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों की बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए  चौड़ा करने की अनुमति दे चुकी  है। इस तरह का व्यवहार और  तथाकथित 'विकास' कार्यों का अहंकार पर्यावरणीय बुद्धिमत्ता और इन नाजुक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आवाजों के प्रति खतरनाक उपेक्षा को दर्शाता है जो लोकतंत्र और पर्यावरण दोनों के लिए शुभ नहीं है। 

हिमालयी आपदा को केवल “जलवायु संकट” कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। बेशक, जलवायु परिवर्तन वास्तविक है और इसके लिए तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, लेकिन इसे एकमात्र बहाना बनाना हमारे अपने पापों को धो देना है। इसकी गहरी वजह विकास के नाम पर राज्य की  उन नीतियों में निहित है जिसका एक मात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है चाहे पहाड़ों या यहा की नदियों और लोगों का जो भी कुछ हो। दुर्भाग्यवश, स्थानीय समुदायों और परम्पराओ को नजरंदाज कर ऐसी नीतिया पहाड़ों में लागू की जा रही हैं जिन्हे हम न केवल पहाड़ विरोधी कहेंगे अपितु सांस्कृतिक तौर पर भी पहाड़ी परम्पराओ को खोखला कर बाहर से  आयातित गंदगी को संस्कृति के नाम पार थोपा जा रहा है। पर्यटन के 'राष्ट्रीयकरण' के चलते पहाड़ों मे बढ़ती संख्या और उनके लिए नई संशधनों की आवश्यकता ने पहाड़ों की प्रकृति पर भयानक दबाब डाला है। आखिर इन सबके लिए व्यवस्थाएं कैसी होंगी लेकिन सत्ताधारी इस पर बात करने के तैयार नहीं और हर एक समस्या पर अपने चालाकी के 'नुस्खे' बताकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। वही लोग नए समाधान के नाम पर ठेके ले रहे हैं जो यहा की समस्याओ के लिए जिम्मेदार हैं। 

ये समझना आवश्यक है कि कैसे पहले 'विकास' का नाम लेकर हर एक काम किया गया। जो लोग इन सवालों को पूछ रहे थे उन्हे खलनायक बना दिया गया।  कहा गया कि बांध बनाकर ऊर्जा प्रदेश बनेगा हालांकि ये भी सभी को पता है कि सारे गांवों मे आज भी बिजली नहीं पहुंची है। लेकिन  विकास के नाम पर  चलाई जा रही ऐसी  नीतियां जिनमें ऊपरी हिमालय में बड़े बांधों का निर्माण शामिल है, जिन्हें “ऊर्जा अधिशेष” राज्य बनाने के नाम पर उचित ठहराया गया। ये परियोजनाएं लालच के अलावा और कुछ नहीं हैं क्योंकि इन्हे अपने 'प्रबंधकों' और 'ठेकेदारों' की कमाई का जरिया बनाया गया। अन्यथा हम सब जानते है कि ये सभी परियोजनाएं  नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करती हैं और फिर प्राकृतिक  प्रतिक्रिया को आमंत्रित करती हैं। आज घाटियों को चीरती नदियों की उग्रता हमें प्रकृति की बेजोड़ शक्ति की याद दिलाती है। तकनीक, चाहे कितनी भी उन्नत हो, प्रकृति के इस रौद्र रूप के  र सामने असहाय नजर आती है। उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, जम्मू कश्मीर, लद्दाख की घटनाए अब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि सुधार जाओ और प्रकृति से दुश्मनी न करो। अब हमारे आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता हिमालय का सम्मान करना है, रुककर उन विनाशकारी विकास नीतियों पर पुनर्विचार करना है जो उन्हें केवल  एक प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखती हैं जिसका उद्देश्य मात्र मुनाफा कमाना है। ऐसे सभी विचारों को अब छोड़ देना चाहिए क्योंकि हिमालय कि सुनामी मैदानी क्षेत्रों को भी नहीं छोड़ने वाली। ये प्रश्न केवल हिमालय का नहीं है। हमारी नदियों ने यदि अपना असली रूप दिखा दिया तो मैदान भी नहीं बचेंगे। इसलिए आज गंभीर चिंतन की जरूरत है। हिमालय और उससे निकलने वाली गाड़ गदेरो का सम्मान करना सीखो। शायद प्राचीन काल मे हमारे पुरखे नदियों, पहाड़ों, गदेरो को पूजते थे तो इसलिए क्योंकि उनकी जिंदगी इन्ही के दम पर थी। आज हमने उनको खत्म कर कमाई करने का धंधा बनाने की सोची और सभी ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया कि हमारी मशीन और सत्ता का नशा केवल असहाय दिखा। क्या अभी भी समझ नहीं आया। 

डुखाद बात यह है कि हम आज  एक “विकास माफिया” के  उदय को देख रहे  है, जो लोगों को झूठे सपने बेच रहा है और क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत को लूट रहा है। एक कल्याणकारी राज्य हिमालय को ए टी एम मशीन की तरह नहीं देख सकता। ये पहाड़ हमारे रक्षक हैं, उनकी नदियां हमें जीवन देती हैं, और उनके पारिस्थितिकी तंत्र पूरे भारत में जीवन को संतुलित करते हैं। फिर भी, हम नदियों को सुखाने, उनमें कचरा डालने, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को विस्फोट करने, और रेलवे लाइनों व मेगा-ब्रिजों का बोझ डालने में क्यों लगे हैं? आस्था के नाम पर लाखों तीर्थयात्रियों को, जो उनकी भारी संख्या मे उपस्थिति के पर्यावरणीय प्रभाव की परवाह नहीं करते, पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को अभिभूत करने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया जा रहा है? लाखों की संख्या मे तीर्थ यात्रियों का आना यहा के मौजूदा प्रबंधन को कैसे प्रभावित कर रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। आखिर एक दिन मे इन पर्वतीय क्षेत्रों मे लोगों के आने से हमारी नदियों, बुगयालों और अन्य स्थानों पर क्या असर पड़ रहा है?

यह तबाही केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं है। पंजाब की कृषि भूमि जलमग्न हो गई है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और आजीविका नष्ट हो गई है। अतिप्रवाह करने वाले बांधों ने भारत और सीमा पार पाकिस्तान में संकट को और बदतर कर दिया है। लंबे समय से बांधों को प्रगति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन बाढ़ को बढ़ाने में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बांध के गेट संकट के चरम पर ही क्यों खोले जाते हैं, जिससे नीचे की ओर तबाही बढ़ जाती है? इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए। विशेषज्ञों को यह आकलन करना चाहिए कि बड़े और छोटे बांधों जैसे कृत्रिम हस्तक्षेपों ने प्राकृतिक बाढ़ों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया है या नहीं। सबूत तेजी से यह सुझाव दे रहे हैं कि ऐसा ही है।

राज्य सरकारों के लिए सच्चाई का सामना करने का समय आ गया है: उनके लोगों का भविष्य सुरंगें खोदकर, पहाड़ों को विस्फोट करके, या नदियों को निजी हाथों  को सौंपकर सुरक्षित नहीं किया जा सकता। मुख्यधारा का मीडिया इन असहज वास्तविकताओं पर बहस करने से कतराता हो , लेकिन नागरिकों को इस विनाशकारी मॉडल पर सवाल उठाते रहना चाहिए। हिमालयी राज्यों को ऐसा विकास चाहिए जो उनके स्थानीय और मूल निवासी समुदायों के सहयोग और भागीदारी के साथ हो । ऐसी कोई भी परियोजनाएं जो विकास के नाम पर पर्यावरण के नियमों की धज्जियां उड़ाएं  और  मुट्ठीभर ठेकेदारों, बिचौलियों और कॉरपोरेट मित्रों को समृद्ध करे, का जमकर विरोध होना चाहिए।  अक्सर, बुनियादी ढांचे को ठीक करने के लिए दिए गए   'ठेके' राजनीतिक एहसानों के रूप में दिए जाते हैं, जिनके मुनाफेदार  गुजरात और अन्य जगहों के व्यापारिक घरानों होते हैं, जबकि स्थानीय लोग पर्यावरणीय तबाही के अलावा और  कुछ नहीं पाते। ऐसे ठेके बंद होने चाहिए। जनता को ये जानने का अधिकार है कि किन लोगों को 'विकास' ये ठेके दिए गए और क्या वे सभी सुरक्षित हैं और मानकों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। विकाय की ऐसी ऐसी नीतियां जिनमे स्थानीय मूल निवासियों की भूमिका न के बराबर है, न केवल यहा के पर्यावरण को नष्ट करती हैं बल्कि हिमालय की सांस्कृति और इतिहास को भी हानि पँहुचाती है।  यदि लोकतंत्र का कोई अर्थ है, तो पहाड़ों के भविष्य के  बारे में निर्णय वहां रहने वाले लोगों के साथ संवाद में लिए जाने चाहिए, न कि ऊपर से थोपे जाने चाहिए।

हिमालय की पहड़िया और घाटियां अब हमे चेतावनी दे रही हैं कि बंद करो उनका दोहन और  शोषण । वो कह रही हैं कि यहा के मूल निवासी प्रकृति की पूजा करता था और उसके साथ सामंजस्य बना कर रहता था और अपनी सुकून भरी जिंदगी मे संतुष्ट था। अब 'विकास' की आंधी ने पहाड़ियों से पहाड़ छीन लिए और उसका गुस्सा भी देख रहे हैं। पहाड़ कह रहे हैं कि उनका  सम्मान करो, अपनी परम्पराओ की ओर लौटो और 'विकास' के नाम पर विनाशकारी व्यवसायिक आदत बादलों। हमारी नदिया और पहाड़ हमारी संस्कृति और स्वाभिमान है, इन पर अब अपनी ललचाई नजर मत डालो। पहाड़ ये कह रहे हैं, सुधर जाओ, वापस अपने मूल पर आओ।  ये समझ लीजिए कि जब तक हम अपना रास्ता नहीं बदलते, प्रकृति का रोष और अधिक गहरा होगा और लोगों को उसकी और भी अधिक  विनाशकारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा। प्रकृति का सम्मान करें और उसके साथ तालमेल कर ही हम अपना जीवन संतोष के साथ जी सकेंगे। 

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

धराली की चुनौती और ध्वस्त होता विकास का नैरेटिव

क्या पर्वतीय क्षेत्रो को अनुसूची ५ या ६ में डालकर उनके विशेष चरित्र को बचाया जा सकता है ?


विद्या भूषण रावत


5 अगस्त, 2025 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में धराली गांव को पूरी तरह से बहा ले जाने वाली हिमस्खलन ने भारत में मीडिया को गंभीर रूप से ध्रुवीकृत वर्ग के रूप में उजागर कर दिया है. साथ ही विभिन्न पार्टियों की राजनीतिक नेतृत्व को भी, जो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे यह पहली बार हुआ है और दोबारा नहीं होगा।  एक तरफ 'राष्ट्रीय मीडिया' है, जिसे मैं हमेशा जातिवादी मनुवादी मीडिया कहता हूं, जो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी का मुख पत्र  या प्रचार तंत्र के तौर पर व्यवहार कर रहा है और इस घटना को 'पीपली लाइव' की  तरह दिखा रहा है क्योंकि सामूहिक विनाश  की लाइव कहानियां भी  इन लाभ कमाने वाली कंपनियों के लिए टीआरपी लाती हैं। इन दिनों प्रचार मीडिया को हमेशा राष्ट्रीय  मीडिया पर प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वे सभी सुविधाओं के साथ जाते हैं और राज्य तंत्र भी उनका ख्याल रखता है ताकि वे 'ब्रेकिंग न्यूज' प्रसारित कर सकें। फोकस ज्यादातर 'एक्शन' को लाइव प्रसारित करने पर होता है। ज्यादातर समय, हम जेसीबी मशीन काम करते हुए या सेना के हेलीकॉप्टर लोगों को ले जाते हुए देखते हैं और फिर लोग सरकार और अधिकारियों को 'सहायता' प्रदान करने के लिए धन्यवाद देते हैं। इसलिए, सब कुछ इतना प्रभावशाली बना दिया जाता है कि किसी के पास सरकार से  कोई भी  प्रश्न पूछने का समय नहीं होता। निश्चित रूप से, यह अच्छा है कि सरकार लोगों को राहत प्रदान करने के लिए रात दिन एक कर रही है, लेकिन लापता  या मृत लोगों की सटीक संख्या का अधिकारिक आंकडा अभी तक क्यों नहीं आ पाया  है। सरकार स्थानीय मीडिया को घटना को कवर करने की अनुमति क्यों नहीं दे रही है। यह 'राष्ट्रीय' मीडिया को सभी 'सेवाएं' खुशी से क्यों प्रदान कर रही है। वास्तव में, देहरादून में स्थित कुछ 'स्थानीय' मीडिया को भी ऊपर से वीडियो शूट करने का अवसर मिला, लेकिन इस पूरे समय  में, सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वे लोग निभा रहे हैं जिन्हें हम 'यूट्यूबर' कहते हैं, जिन्हें बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया है, लेकिन यह वे हैं जिन्होंने पूरे क्षेत्र की अनसुनी कहानियों को लाने के लिए कठिन इलाके में पैदल यात्रा की। उन्होंने उत्तरकाशी से धराली तक खतरनाक परिस्थितियों में चलकर रिपोर्टिंग की। इनमें से अधिकांश साथी 'पत्रकार' भी नहीं कहलाते। वे उत्तरकाशी से धराली तक पैदल पहुंचने के अपने साहसी  प्रयासों के लिए प्रशंसा के पात्र हैं, खासकर जब बारिश जारी रही और राष्ट्रीय राजमार्ग नाम मात्र का रह गया और पूरी तरह से भागीरथी में समा गया। इन सोशल मीडिया रिपोर्टरों या प्रभावकों ने कथित राष्ट्रीय पीआर एजेंटों की तुलना में कहीं बेहतर रिपोर्टिंग की है, जिनके पास सरकार और अधिकारयो से  प्रश्न पूछने का समय नहीं था। बल्कि, हर मीडिया हाउस हमें बता रहा है कि उनके रिपोर्टर 'धराली' पहुंचने वालो में सबसे  'पहले' थे। एकमात्र असुविधाजनक प्रश्न जो पूछा जा रहा है, वह यह है कि स्थानीय लोगों ने नदी के किनारे पर कब्जा कर  घर और होटल बनाए और इसलिए यह हादसा  हुआ। सरकार की नीतियों के बारे में कुछ नहीं जो इस तरह की  मास टूरिज्म को बढ़ावा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस तरह का निर्माण हुआ। सवाल यह भी की ऐसे निर्माणों को  अधिकृत करने के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या ऐसे निर्माण की अनुमति देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी? क्या सरकार के हलकों में जलवायु संकट की बढ़ती चुनौती  के बारे में कोई बहस है और हमें जलवायु अनुकूल समाधानों की आवश्यकता क्यों  है। क्या वे हमारे पहाड़ो  की भारी ड्रिलिंग और खुदाई पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं? क्या इस पर बहस होगी कि  हमारी नदियों की क्या स्थिति है ? ये भी महत्वूर्ण है कि आखिर  'विकास की गंदगी' कहां जा रही है? यानि विकास से जो मलबा निकल रहा है उसका निष्पादन कैसे हो रहा है ? क्या वो हमारी पवित्र नदियों में नहीं फेंका जा रहा है ?  क्या हम व्यवसायिक धार्मिक पर्यटन पर कोई चिंतन करेंगे कि आखिर एक समय में उत्तराखंड कितने लोगो को संभाल सकता है. आखिर हमारे पर्वतीय क्षेत्र एक समय में कितने लोगो या भक्तो को झेल पाएंगे इसके लिए क्या कोई सीमा घोषित की गयी है ?  चारधाम से अब कितने टन मानव मल और अन्य कचरा बहता है? इन पर एक निष्पक्ष चर्चा की कल्पना करें। कोई भी उत्तराखंड और चारधाम के धार्मिक महत्व को नकार नहीं सकता, लेकिन उसका सम्मान किया जाना चाहिए। कोई भी योजना चाहे धार्मिक हो या गैर-धार्मिक, पर्यटन हो या विकास, स्थानीय परंपराओं, भावनाओं के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रश्नों की अनदेखी करके आगे नहीं बढनी चाहिए। आप धर्म के नाम पर मास टूरिज्म को बढ़ावा नहीं दे सकते जो क्षेत्र की पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी को और अधिक बोझिल और बाधित कर रहा है । हमें समझना चाहिए कि ये क्षेत्र केवल धार्मिक महत्व के नहीं हैं बल्कि भारत की जीवन रेखा भी हैं। हिमालय हमारी नदियों का श्रोत है और गंगा हमारी विरासत है जो हिमालय को सुंदरबन से जोड़ती है। इसके अलावा, उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है और एक नहीं बल्कि दो देशों- चीन और नेपाल के साथ जिससे इस क्षेत्र का सामरिक महत्त्व और भी अधिक हो जाता है. 

धाराली की त्रासदी से बहुत से सवाल खड़े हो गए हैं जिन पर सार्थक विमर्श की आवश्यकता है.  सबसे महत्वपूर्ण बात यह की आखिर मौसम के पूर्वानुमान में ऐसी खतरनाक घटनाओं की जानकारी क्यों नहीं प्राप्त हो रही है। हालांकि 2013 में केदारनाथ तबाही के बाद, हमने बहुत शोर सुना लेकिन कुछ भी ज्यादा नहीं हुआ सिवाय मौसम के बारे में कुछ चेतावनी संदेशों के। लेकिन ग्लेशियल झील के फटने या क्लाउड बर्स्ट की संभावना के बारे में लोगों को अग्रिम चेतावनी देने में यह क्यों विफल रहा। अधिकारियों ने खीरगाड़ के ऊपरी हिस्सों में संभावित ग्लेशियल झील के गठन की पप्रारंभिक जानकारी  प्राप्त करने में क्यों सक्षम नहीं हो सके। वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी गई। निश्चित रूप से इस झील का गठन एक दिन की बात नहीं थी? क्या इसे उत्तराखंड हिमालय के आसपास विशेषज्ञों की टीम द्वारा नियमित रूप से मॉनिटर नहीं किया जा सकता. क्या उत्तराखंड और अन्य हिमालयी क्षेत्रो में इस प्रकार की घटनाओ की पुनरावृति रोकने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय नहीं ली जा सकती या उन्हें  इस कार्य को  सेना के हेलीकॉप्टरों के माध्यम से लगातार मॉनिटर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती ? सैटेलाईट के फोटो महत्वपूर्ण  हैं लेकिन सरकार को इसे स्थानीय स्तर पर भी करना चाहिए। यह घटना हमें फरवरी 2021 की ऋषिगंगा-धौलीगंगा तबाही की याद दिलाती है जिसमें एक पावर प्रोजेक्ट के साथ-साथ उसमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर बह गए।

वास्तव में, धराली की घटना 'होने का इंतजार' कर रही थी.  यह न तो पहली है और न ही आखिरी, जिसका मतलब है कि हमने अतीत की घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखा और शायद हम अब भी कुछ नहीं सीखेंगे।  हर कोई होम स्टे  बनाना चाहता  है। बड़ी संख्या में रिजोर्ट भी बनने  शुरू हो गए हैं। हमारे गाँव गदेरो, नालो में बड़े होटल और रिजोर्ट आ चुके हैं. जहा हुम नहीं पहुँच पाए वहा दिल्ली का लाला पहुँच गया है . सभी उत्तराखंड में आने वाले टूरिस्ट को देख रहे हैं और ऐसे जगहों पर बनाये जा रहे हैं जो बिलकुल अलग थलग हैं ताकि आगंतुको को 'आराम' दिया जा सके. उसके ऊपर  जब करोड़ों लोग यात्रा के लिए राज्य में उमड़ पड़ेंगे तो छोटे बड़े होटलों और होमस्टे की जरुरत तो पड़ेगी ही. इसके लिए जिसके पास थोड़ा भी जगह है वो वहा पर होम स्टे बनाने की सोचता है. सरकार भी इसे ब्यापार और स्किल डेवलपमेंट का मॉडल सोचकर आगे बढ़ा रहे है. आखिर जब पर्यटकों के लिए सस्ते दरो पर यही सब चाहिए तो लोग अपने घर के ही आस पास की जमीन हथियाएँगे. उत्तराखंड का पर्यटन बारह मासा तो है नहीं. असल में मुश्किल से दो तीन महीने ही ये होता है और बारिस के बाद तो यात्री वहा रहते नहीं. दुसरे, धार्मिक पर्यटन ऐसा नहीं है जैसे वर्ल्ड कप फूटबाल के पर्यटक जो जहा जाते हैं खूब मस्ती करते हैं और खर्च भी करते हैं. यहाँ जिस राज्य से पर्यटक आते हैं वे उसी राज्य के ढाबे में जाना पसंद करते हैं. पंजाब से सबसे अधिक लोग आ रहे हैं लेकिन पता कीजिये की आम ढाबो में कितना खा रहे हैं ?  धार्मिक पर्यटन होना चाहिए लेकिन पर्यटकों की  सीमा निर्धारित होनी चाहिए और उसे व्यापार में बदलने की कोशिश ही उत्तराखंड में ये तबाही ला रही है. 

आज  हम इन तथाकथित आपदाओं के  कारणों और समाधानों पर चर्चा नहीं करते। इसके बजाय तथाकथित मीडिया  अन्य  त्रासदी को भी एक  भव्य तमाशा बनाने की कोशिश करते हैं  जिसमे फोकस कार्य कर रहे अधिकारियो , भारी मशीनरी, हेलीकॉप्टरों का उपयोग लोगों को ले जाने के लिए, स्निफर डॉग्स, बड़े नेता दौरा करते हुए आदि। ऐसा करते समय वे भूल भी जाते हैं की उनकी रिपोर्टिंग राहत का कार्य  कर रही संस्थाओं के काम में बाधा डाल रहा होता है.  बहुत से 'मीडिया कर्मी'  और दिल्ली  में उनक चैनलों के मार्केटिंग एजेंट बेशर्मी से येही बताते रहते हैं कि ;घटनास्थल; पर पहुँचने वाले वह पहले व्यक्ति है और उनका पहला काम सरकारी तंत्र के साथ जुगाड़ लगना होता है. अधिकारियों को भी पता है कि किसी खबर से वे 'राष्ट्रीय' चैनल पर होते हैं इसलिए वे भी इनकी आवभगत में लग जाते हैं. मीडिया फिर व्यवस्था का हौव्वा खडा कर धीरे धीरे 'संवेदनशील' होने का प्रयास करता है. फिर परिवारों से प्रश्न होते हैं : 'घटना कैसे घटी', क्या हुआ और कौन खो गया के बारे में पूछते हैं लेकिन उनकी कोई सहायता या उनके साथ क्या होगा के बारे में नहीं। कोशिश होती है कि थोड़ा सहानुभूति दिखाकर बड़े प्रश्नों को गायब कर दिया जाए. इसलिए ये कोई नहीं पूछता की इतने दिनों तक बड़े अधिकारी यहाँ क्यों नहीं पहुंचे.  

आज एक मित्र से धराली में बात हो रही थी और वह कह रहे थे कि यहाँ पर अब खाने पीने या रोजमर्रा की आवश्यकता वाली वस्तुओ की जरुरत नहीं है क्योंकि वो बहुत आ चुके हैं. अब आवश्यकता है लोगो को ढूंढ निकालने की, मृतकों और लापता लोगो के सही आंकड़ो की और लोगो की जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की. लोगो का सभी कुछ समाप्त हो चुंका है, उनकी चिंता तो यही है की आखिर जिंदगी को पटरी पर वापस कैसे लायें. सब जानते हैं कि दान के सहारे तो बहुत दिनों तो नहीं ज़िंदा रहे सकते हैं. लोगो ने मेहनत से अपने सपनो के आशियाने बनाए थे इसलिए उसे दोबारा लाने के लिए प्रयास करने होंगे. 

 दुर्भाग्यवश, ऐसे प्रश्न अब सत्ता से नहीं पूछे जाते कि लोग वहां अपना जीवन कैसे बनाएंगे। क्या उन लोगों के पुनर्वास की कोई योजना है जिन्होंने सब कुछ खो दिया या सरकार अपनी औद्योगिक, पर्यावरणीय या पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित अन्य नीतियों को बदलेगी। यही कारण है कि मीडिया को मालिक की सेवा में लगा दिया जाता है ताकि ये असुविधाजनक प्रश्न दबे रहें। उत्तराखंड की आपदाएं केवल प्राकृतिक नहीं हैं बल्कि विकास के नाम पर अपनाई जा रही लापरवाह विनाशकारी नीतियों का परिणाम भी हैं। क्या वह मॉडल टिकाऊ है? क्या हमें अपने पवित्र पर्वतों और नदियों की रक्षा और सम्मान के बारे में जोर से सोचना नहीं चाहिए। मैंने कई बार कहा है और कहता रहूंगा, ये पर्वत और नदियां, हमारे पहाड़, हमारी गंगा-गाड़-गदेरा हमारी पहचान और विरासत हैं, निश्चित रूप से उपयोग करने के लिए संसाधन नहीं। उन्हें संसाधन मानना बंद करें और अपनी व्यावसायिक लालच के लिए उनका शोषण करना बंद करें।

कुछ दिन पहले, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए एक कड़ी चेतावनी जारी की: “वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से गायब हो सकता है।”  अदालत ने ये बात साफ़ तौर पर कही कि हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण के मानको के अनुसार ही कार्य करने की आवश्यकता है. पिछले कुछ वर्षो से हिमाचल प्रदेश में भयानक तबाही हुई लेकिन अभी तक उस पर कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है क्योंकि इस तबाही के पीछे केवल मौसम नहीं है अपितु सीमेंट और कंक्रीट के बड़े बड़े महल, होटल रिसोर्ट आदि और राज्य में जल विद्युत् परियोजनाओं की बढती संख्या. 

हिमाचल प्रदेश को 2025 में मानसून से संबंधित आपदाओं से भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। राज्य आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, राज्य ने 20 जून, 2025 को मानसून शुरू होने के बाद से ₹1,539 करोड़ का नुकसान उठाया है। इसमें 94 मौतें, 36 लापता, और वर्षा से संबंधित घटनाओं में 1,352 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त शामिल हैं (इंडियन एक्सप्रेस, अगस्त 2025)। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट और भी गंभीर चित्र प्रस्तुत करती है, जिसमें 2 अगस्त, 2025 तक 173 मौतें, 37 लापता, और 115 घायल नोट किए गए हैं, जिसमें 6 जुलाई, 2025 तक 23 फ्लैश फ्लड और 19 क्लाउडबर्स्ट दर्ज किए गए हैं (एनडीटीवी, 2 अगस्त, 2025)। अधिकांश मौतें वर्षा से संबंधित थीं, जिसमें मंडी, कुल्लू और कांगड़ा जिलों ने सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, जहां 243 सड़कें अवरुद्ध थीं, 241 बिजली ट्रांसफार्मर बाधित थे, और 278 जल आपूर्ति योजनाएं गैर-कार्यात्मक हो गईं जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में है, 7 जुलाई, 2025)।

उत्तराखंड, जो अक्सर आपदाओं की आवृत्ति में हिमाचल से प्रतिस्पर्धा करता है, ने 4 जुलाई, 2025 तक 70 मौतें दर्ज कीं, जिसमें 20 प्राकृतिक आपदाओं (भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट और बाढ़) से और 50 सड़क दुर्घटनाओं से, 9 लापता (ज्यादातर उत्तरकाशी में) और 177 घायल (टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 जून, 2025)। पिछले कुछ हफ्तों में क्लाउड बर्स्ट और भूस्खलन की घटनाएं लगातार आ रही हैं जिसके परिणामस्वरूप चारधाम यात्रा कई दिनों तक बाधित रही लेकिन अब धाराली आपदा ने सब कुछ पीछे छोड़ दिया है। यह अभूतपूर्व है लेकिन हम सभी के लिए एक जागृति कॉल है। अब तक हमें मरने या लापता लोगों की सटीक संख्या नहीं पता है। असल में धराली के साथ अन्य बहुत से स्थानों पर भी इसी प्रकार की स्थितिया हैं लेकिन मीडिया को दूसरे स्थानों पर जाने का समय नहीं है. 

अनियंत्रित पर्यटन: एक सांस्कृतिक और पर्यावरणीय खतरा

दोनों हिमालयी राज्य, जिनकी छवि को देवभूमि  के रूप में गढ़ा गया है आज  मास टूरिज्म के बोझ तले कराह रहे हैं। उत्तराखंड ने 4 जुलाई, 2025 तक 3.96 करोड़ पर्यटकों का स्वागत किया, जिसमें 3.94 करोड़ घरेलू और 1.66 लाख अंतरराष्ट्रीय आगंतुक शामिल हैं, जिसमें चारधाम यात्रा के लिए 34.07 लाख तीर्थयात्री पंजीकृत हैं (13.58 लाख केदारनाथ, 11.52 लाख बद्रीनाथ, 4.97 लाख गंगोत्री, 3.99 लाख यमुनोत्री) (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025; आउटलुक इंडिया, 16 मई, 2025)। हिमाचल प्रदेश ने जुलाई 2025 तक 1.4 करोड़ पर्यटकों को दर्ज किया, जो शिमला और मनाली जैसे पहाड़ी स्टेशनों द्वारा संचालित है (हिंदुस्तान टाइम्स, जुलाई 2025)।  हालाँकि  ये संख्याएं स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देती हैं लेकिन वे यहाँ के  नाजुक भौगोलीय तंत्र और बुनियादी ढांचे पर दबाव डालती हैं, जो आपदा जोखिमों को बढ़ाती हैं।

चारधाम यात्रा जिसे उत्तराखंड के पर्यटन की आधारशिला भी कह सकते हैं आज  अनियंत्रित पर्यटन का  प्रतीक बन गई है। जुलाई 2025 तक, 169 तीर्थयात्रियों की मौत स्वास्थ्य समस्याओं जैसे हृदयाघात और उच्च रक्तचाप से हुई (78 केदारनाथ में, 44 बद्रीनाथ में, 24 गंगोत्री में, 22 यमुनोत्री में) (टाइम्स ऑफ इंडिया, जुलाई 2025)। अप्रैल 2025 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में छह तीर्थयात्रियों की मौत हो गई, जो ऑपरेटरों पर लाभ को सुरक्षा से ऊपर रखने के दबाव को दर्शाती है (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025)। हिमाचल में, कुल्लू-मनाली और शिमला में ओवर-टूरिज्म ने यातायात जाम और पर्यावरणीय गिरावट को जन्म दिया है, जहां पर्यटक नदियों में कचरा फेंकते हैं और स्थानीय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं ।

पहाड़  मैं पर्यटकों की आना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बहुत से लोग पहाड़ो को  अक्सर औपनिवेशिक नजरिये से  देखते है और उसका भौंडा प्रदर्शन भी करते हैं. वह हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को धमकी देते हुए अपने पैसे और रसूक के बल पर उसका मजाक भी उड़ाते हैं।  ऐसे युवा आगंतुक गंगा के किनारे अपनी थार लेकर  खुले में हुक्का और शराब पीते हैं और उसी नैतिकता का मजाक उड़ाते हैं जिसकी खातिर यहाँ आने का ढोंग करते हैं. उत्तराखंड में एक समय में गाँवों में घरो में ताले नहीं लगते थे और पुलिस का काम न के बराबर था क्योंकि कोई भी चोरी, डकैती या छेडछाड की घटनाएं नहीं होती थे लेकिन आज  छेड़छाड़ और लोगो के गायब या लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और ये स्थानीय लोगो के कारण नहीं हो रहा अपितु बेनियांत्रित पर्यटन के कारण हो रहा है। बाहरी सांस्कृतिक प्रथाओं का ऊपर से थोपा जाना बेहद चिंताजनक है. संस्कृति केवल पूजा पध्यती नहीं है, वो हमारे खान पान से भी निर्धारित होती है लेकिन आज  स्थानीय व्यंजनों की जगह पर ढाबो में  मैगी, पराठे आदि की मांग  बढ़ रही हैं वही  पहाड़ी ब्यंजनो जैसे धपड़ी, फाणु, कफली, चैन्सू, च्यूं. बन्स्किल, कन्दाली का साग आदि को अब के बच्चे तो जानते भी नहीं होंगे. संस्कृति को कोई शोर करके ख़त्म नहीं करता अपितु बाज़ार के जरिये नियंत्रण किया जाता है. जब पहाड़ी व्यंजनों की मांग ही नहीं होगी तो कोई उन्हें क्यों बनायेंगे तो वो बाज़ार से स्वयं ही गायब हो जायेंगे. ऐसे ही, हमारे तीर्थस्थलो पर हो रहे निर्माण कार्य में कोई भी बात हमारी संस्कृति और परम्पराओं को प्रदर्शित नहीं करती. ये सब पैसे का भोंडा प्रदर्शन कर हम पर निर्माण के नाम पर अहसान और हमारी संस्थानों पर कब्जे के अलावा कुछ भी नहीं है. ऐसे ही होटल और रिजोर्ट आदि से होता है. यानि आज के दौर में आप की संस्कृति बाज़ार निर्धारित करता है और बाज़ार पर जिसका नियंत्रण होता है वोही हावी होता है. उत्तराखंड में यदि बाज़ार के अनुसार चलने की कोशिश करेंगे तो वो खतरनाक होगा. 

कुछ बाहरी लोग, राजनीतिक एजेंडों द्वारा समर्थित, एक समरूप हिंदुत्व कथा को आगे बढ़ाते हैं, जो हिमाचल और उत्तराखंड के विशिष्ट पारंपरिक शैली  को नजरअंदाज करते हैं, जहां स्थानीय देवता और स्थाई  प्रथाएं लंबे समय से फल-फूल रही हैं । यह भी समझना होगा कि  धार्मिक भावनाये  व्यावसायिक लाभों से अलग है और यदि दोनों को जोड़ा गया तो उसके नतीजे भयावह होंगे। वास्तव में, पिछले कुछ दशकों में, भारत की सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने व्यावसायिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण किया है। स्पष्ट रूप से, भारत को एक धार्मिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया है जहां बाबाओं का फलना-फूलना और भक्ति और परंपराओं के नाम पर चमत्कारों के नए स्थानों का निर्माण हो रहा है। हिमालयी क्षेत्र अलग हैं और आप उन्हें मैदानी  इलाकों के साथ नहीं जोड़ सकते जहां आपके पास विशाल भूमि है और बुनियादी ढांचे के विकास से संबंधित कोई समस्या नहीं है। हिमालयी क्षेत्रों में, ये बुनियादी ढांचे का विकास हिमालय, हमारी पवित्र नदियों और यहाँ के  लोगों की कीमत पर आएगा। ऐसा कोई भी विकास हमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए जो हमें हमारी ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति परम्पराओ और हमारी अस्मिता से अलग थलग करता हो. 

जलविद्युत परियोजनाएं: प्रकृति की कीमत पर लाभ कमाना

केंद्र सरकार का जलविद्युत योजनाओं को लगातार जोर देना  जिसे हिमालय की “क्षमता” के रूप में ब्रांडेड किया गया है, पर्यावरणीय और सामाजिक मूल्यों  पर कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता देता है और अब यह  पूरी तरह से उजागर हो गया है क्योंकि दोनों राज्य भारी आपदाओं का सामना कर रहे हैं हालांकि आज भी पूरी कहानी को 'क्या हुआ और कब हुआ' तक सीमित रखने के प्रयास हैं  'क्यों हुआ' हमारे पूरे विश्लेषणों और राजनितिक चर्चाओं से गायब है. हिमाचल प्रदेश में 41 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं हैं और वहा पर भयानक बाढ़ के पीछे प्रकृति की मार नहीं वहा बने बांधो का पानी छोड़ना शामिल है. 

डाउन टू अर्थ मैगजीन में एक रिपोर्ट कहती है :  'उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में जलविद्युत परियोजनाएं स्थापित की जा रही हैं। राज्य के ये स्थान आने वाले वर्षों में भूकंपीय या जलवायु से संबंधित आपदाओं का शिकार हो सकते हैं। उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कम से कम 15 ऐसी परियोजनाएं हैं जिनमें लगभग 70,000 करोड़ रुपये का निवेश है। क्लाइमेट रिस्क होराइजन्स की रिपोर्ट नोट करती है कि उत्तराखंड में 25 मेगावाट से अधिक की 81 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं पाइपलाइन में हैं और 18 परियोजनाएं अभी पूरी तरह से एक्टिव हैं । जलवायु की 'अति'  संबंधित खतरे ने उनके भविष्य पर अनिश्चितता पैदा कर दी है।'

(https://www.downtoearth.org.in/dams/extreme-weather-events-can-completely-destroy-hydropower-projects-in-uttarakhand-report)

ईमानदारी से यदि विश्येलेषण करें तो ये पायेंगे कि ये  परियोजनाएं हमारी नदियों को नष्ट कर रही हैं क्योंकि मलबे को उनसे दूर रखने का कोई तरीका नहीं है। बड़े बोल्डर, पत्थर, कंक्रीट सब कुछ चुपचाप उनमें फेंका जा रहा है जो कई बार नदियों के प्रवाह को जोखिम में डालता है। वनों की कटाई, ब्लास्टिंग, और तलछट की बाधा उच्च पर्वतों में ढलानों को कमजोर और अस्थिर करती है जो अचानक फटने का जोखिम पैदा करती है जिसके परिणामस्वरूप धाराली जैसी आपदाएं होती हैं। क्या हम भूल गए हैं कि जोशीमठ में क्या हुआ जहां शहरं में स्थित सभी  भवनों और निर्माणों  में दरारें आ गईं। जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ो पर  की जा रही  ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग और टनलिंग से नुक्सान का खामियाजा नहीं भरा जा सकता है और ये अब  बहुत से विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा  अच्छी तरह से दस्तावेजित है हालांकि तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया अब इसे  ज्यादा रिपोर्ट नहीं करता. ऐसा लगता है कि हर कोई अब जोशीमठ को भूल गया है। रैनी गांव के ग्रामीणों ने अपने गांव को खतरे के खिलाफ अदालत का रुख किया लेकिन अदालत से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। वास्तव में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने लोगों सहित कार्यकर्ताओं को मामला दाखिल करने के लिए दस हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया।

धार्मिक पर्यटन के सामूहिकरण ने गंगा स्नान जैसी मैदानी  इलाकों की प्रथाओं को हिमालय में आयात किया है, जहां सामुदायिक स्नान दुर्लभ है, और नदियों की पूजा की जाती है, प्रदूषित नहीं । केदारनाथ में लाउडस्पीकर, डीजे, और ड्रम बजाना पवित्र शांति को बाधित करता है । गुजरात की वास्तुशिल्प शैली की नकल करने वाली सीमेंटेड संरचनाएं उत्तराखंड के अनोखे लकड़ी के मंदिरों की जगह ले रही हैं, जो न केवल  स्थानीय शिल्पकला और व्यवसायों को कमजोर कर रही हैं अपितु हमारी संस्कृति पर सीधे हमला है । आखिर ये सवाल तो करना पडेगा की बद्रीनाथ में ये सीमेंटेड कोरिडोर किस लिए बनाये जा रहे हैं. क्या 'देशी' बाबा और भक्तो को हमारे सबसे महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठाने के लिए यह एक नया प्रबंधन है. क्या उनके साथ और भी  लोगो को यहाँ का मूलनिवासी बनाने के लिए  ये प्रयास किये जा रहे हैं ?  अगर इतनी बड़ी संख्या में बाहर से लोगो को लाकर यहाँ फाइव स्टार सुविधाएं दी जाएँगी तो सरकार बताये कि इतने कूड़ा और मल मूत्र को किस प्रकार से निष्पादित किया जाएगा वो भी बताये. क्या भागीरथी और अलकनंदा को उनके श्रोतो से ही बदबूदार और प्रदूषित करने का कोई षड्यंत्र नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग जो बाहर से आ रहे हैं उन्हें पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ो की पवित्रता से कोई मतलब नहीं है. वे अपने भगवानो को प्रसन्न करने के वास्ते आते हैं और फिर अपना कूड़ा कबाड़ यहाँ छोड़कर चले जाते हैं।  इसलिए बद्रीनाथ केदारनाथ धामों में जो लोग  इस  तथाकथित मास्टर प्लान के खिलाफ विरोध कर रहे हैं,  जिनके दुकानों और घरों को ध्वस्त कर दिया है, उन्हें गलत कैसे कहा जा सकता है. क्या जो लोग हमारे धामों में पूरे पारंपरिक चरित्र को बदलने का विरोध कर रहे हैं उन्हें सुनना आवश्यक नहीं  है. आखिर  हम अपने निर्माण कार्य  को हिमालय की पर्यावरणीय उपयुक्तता के अनुसार क्यों नहीं बना सकते जिसमें पारंपरिक उत्तराखंडी छाप हो। क्या ये नए निर्माण  हमारी इतिहास, संस्कृति  और पारंपरिक  जीवन शैली को मिटाने का प्रयास नहीं है?


स्थाई और संतुलित  विकास के लिए एक अपील 

सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी सरकार से इस विषय में सकारात्कामक कार्यवाही की मांग करती है। सरकार की नीतियां-राजस्व के लिए मास टूरिज्म और जलविद्युत को बढ़ावा देना-इस संकट को बढ़ावा दे रही हैं। अगर अदालत गंभीर है, तो उसे पर्यटको संख्या को  नियंत्रित करना चाहिए,  स्थायी और संतुलित  विकास के लिए मूल पहाड़ी समुदायों को सभी प्रमुख प्रशासकीय और नीतिगत संस्थानों में  शामिल करके नए मॉडल की शुरुआत करनी चाहिए. पहाड़ो के  स्थानीय देवताओं, परंपराओं और पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है। हिमालय शोषण के लिए कॉलोनी नहीं हैं; वे एक पवित्र, नाजुक क्षेत्र हैं जिन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है। अब आवश्यक हो गया है कि गैरसैण को राजधानी बनाने के प्रश्न पर ईमानदारी से बहस हो और उसे राजधानी घोषित कर दिया जाए तभी इस प्रकार के अतिक्रमण आदि पर रोक लगेगी और उत्तराखंड अपने पहाड़ी परम्पराओं के लिए जाना जाएगा.  

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश दोनों को ही बहुत आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है. उन्हें अपना खुद का मॉडल विकसित करना होता और बाहर से 'विशेषज्ञों' का आयात बंद करना पडेगा क्योंकि ये  वास्तव में विकास के बहाने स्थानीय परंपराओं और हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजो के लिए खतरा हैं और  शोषणकारी और प्रकति के साथ हमारे रिश्तो के विरुद्ध  हैं।  मैं सभी जलविद्युत परियोजनाओं या मौजूदा चल रहे कार्यक्रमों को रोकने के लिए तो  नहीं कहूंगा लेकिन  मैं निश्चित रूप से इस प्रकार की  किसी भी भविष्य की योजना पर पुर्णतः रोक की मांग करूंगा जो हमारी नदियों और पर्वतों को हानि पहुंचाए और उनका अनियंत्रित शोषण की बुनियाद बने. 

धराली, मनाली, कुल्लू, मंडी, रैनी जैसी घटनाएं लगातार हो रही हैं और हम लोग उन्हें 'प्राकृतिक आपदाएं' कह रहे हैं लेकिन हकीकत है की हमने अपनी प्रकृति की न तो रक्षा की और न ही सम्मान किया और इसके नतीजे यह निकले कि हम सभी कि जिंदगी खतरे में आ गयी. यह भी हकीकत है कि हमारे पूर्वज इसी प्रकति के साथ  सामंजस्नय बनाकर रहे और हमें बड़ा किया. आपदाएं तब भी आती थी लेकिन उनके लिए इंसान दोषी नहीं होता था. पहाड़ी समाज मेहनत और ईमानदारी के बल पर जीता था. उसके पास इतना पैसा नहीं था लेकिन अपना स्वाभिमान और नैतिकता बची हुई थी . इसलिए आज का संकट असल में स्थानीय मूलनिवासियो द्वारा नहीं लाया गया अपितु  यह मै निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि  हिमालय में आज का संकट  राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा अपनाए जा रहे शोषणकारी विकास मॉडल के कारण जो लालची कॉर्पोरेट के साथ सांठगांठ में लोगों की धार्मिक भावनाओं का बेशर्मी से शोषण करता है. ये पूंजीपति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए वो सब कुछ करने को तैयार हैं  भले ही यह स्थानीय पर्यावरणीय, भौगोलिक और सांस्कृतिक परम्पराओ  को नुकसान पहुंचाए। उनके विकास के मॉडल में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा नहीं अपितु राष्ट्रीय संशाधनो का व्यक्तिगत हितो के लिए बेजां इस्तेमाल है. इसलिए आज आवश्यकता है की हम  हिमालय के इस बेमतलब शोषण को रोकें। शायद, इसके लिए एकमात्र तरीका है कि पहाड़ी क्षेत्रों को अनुसूची V या अनुसूची VI क्षेत्रों के तहत घोषित किया जाए ताकि भूमि को बाहरी लोगों को बेचने से रोका जा सके और इस व्यावसायिक लालच को रोका जा सके साथ ही स्थानीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जा सके। इस संकट का जलवायु अनुकूल समाधान केवल उत्तराखंड के मूल निवासियों के साथ समावेशी जुड़ाव से संभव है और किसी भी भविष्य की परियोजना को पूरी तरह से रोककर जो हिमालय, इसकी नदियों और समुदायों को खतरे में डालती है जो इसके आसपास रहते हैं और इसकी रक्षा करते हैं।

बुधवार, 6 अगस्त 2025

धराली की त्रासदी और उत्तराखंड में आपदाओं का प्रश्न

 

 विद्या भूषण रावत 



धराली में खीरगंगा की तबाही

कल ५ अगस्त २०२५ को  खीरगंगा गाड  में आई फ़्लैश फ्लड  ने उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में भयंकर तबाही मचाई, जो हृदयविदारक है। धराली, हर्षिल घाटी का  एक बेहद  खूबसूरत गांव था, जो गंगोत्री राजमार्ग पर स्थित था जो  #भागीरथी नदी तक के तट पर बसा हुआ था और अपने सेबो के बगान के लिए प्रसिद्ध था.  यह गांव #हर्सिल घाटी में पड़ता है, जो बर्फ से ढके पहाड़ों और भागीरथी के मनोरम दृश्यों से घिरा एक अत्यंत सुंदर क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कई छोटी धाराएँ भागीरथी में मिलती हैं।

धराली में एक छोटा सा बाजार था, जहाँ लोग #गंगोत्रीधाम जाते समय या वहाँ से लौटते समय रुककर भोजन करते थे। हालाँकि हर्सिल एक अधिक प्रसिद्ध गांव था, लेकिन धराली का स्थान और आसपास का प्राकृतिक सौंदर्य इसे और भी आकर्षक बनाता था। दोनों गांवों के बीच की दूरी लगभग 6 किलोमीटर है। नदी के किनारे की ओर एक प्राचीन मंदिर #कल्पकेदार भी है। साधारण दिखने वाली #खीरगंगा, जो वास्तव में एक गाड , गदेरा  या  एक प्राकृतिक धारा है जो ऊँचे पहाड़ों से निकलती है और अपने प्राकृतिक प्रवाह के माध्यम से भागीरथी में मिल जाती है। धराली से माँ गंगा का मायका मुख्बा एक झुला पुल के रस्ते पहुंचा जा सकता था. ये गाँव आमने सामने हैं. मुखबा थोड़ा उंचाई पर स्थित है और वहा से धराली और सामने बहती हुई भागीरथी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है. #हिमालयकीगंगा यात्रा के समय और उसके बाद भी मुझे हर्षिल और धराली में रुकने का अवसर मिला और मै यह कह सकता हूँ के दोनों स्थान अप्रतिम हैं. मुझे आशा है की धराली पुनः अपनी धरोहर को प्राप्त करेगा. 


इतिहास बताता है कि पहाड़ों में सबसे बड़ी तबाही हमेशा इन गाड  गदेरों के कारण होती है, क्योंकि ये ज्यादातर समय छोटी धाराओं जैसे दिखते हैं, जिसके कारण इनके आस पास के क्षेत्रो में व्यवसायिक केंद्र खुल जाते हैं, व्यापार चल पड़ता है और कंक्रीट के 'जंगल खड़े हो जाते हैं और ये बिना आधिकारिक या राजनितिक प्रश्रय के संभव नहीं है.  हिमालय में तेजी से बढ़ते निर्माण और #चारधामयात्रा का दबाव  भी उत्तराखंड पर भारी है, जहाँ बुनियादी ढांचे का विस्तार करना मुश्किल है। पर्यटक सस्ते और आरामदायक जगह  चाहते हैं. वैसे भी भारतीय पर्यटक मूलतः अपनी धार्मिक भावनाओं के चलते इस क्षेत्र में आते हैं जिसमे अधिकांश की स्थानीय जन भावनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही उसकी इस बात में कोई दिलचस्पी है की इस प्रकार के क्षेत्रो में हर प्रकार की सुविधाओं की उम्मीद नहीं की जा सकती.  भारतीय पर्यटक हर जगह अपने घर जैसी सुविधाएँ चाहते हैं, चाहे वे #केदारनाथ या #गंगोत्री जाएँ।  अगर समय पर कोई कार्य नहीं हुआ या रहने की जगह नहीं मिली तो वह भी दावा करते हैं कि उनकी वजह से ही #उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था चलती है। इस प्रकार का पर्यटन स्थानीय प्रशासन पर अनावश्यक दवाब बनाते हैं. 

धराली की घटना को पहले बदल फटने की घटना कहा गया लेकिन विशेषज्ञ यह कह रहे हैं की क्लाउड बर्स्ट  के





रूप में इस घटना को  स्वीकार नहीं किया जा रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया कि यह ग्लेशियललेकआउटबर्स्ट का मामला हो सकता है, जो आसपास के स्थानों के लिए सबसे खतरनाक स्थिति पैदा करता है। उत्तराखंड में लगभग 1266 हिमनदी झीलें हैं, जिनमें से 13 को उच्च जोखिम वाला माना जाता है। हर्सिल सेना बेस के पास भागीरथी पर एक कृत्रिम झील बनने की भी खबरें हैं, जो बाढ़ के कारण तबाह हो गया था। सेना वहाँ अपनी समस्याओं के बावजूद बचाव कार्य में सक्रिय है। २०१३ के केदारनाथ आपदा और २०२१ की ऋषि गंगा-धौली गंगा में आई आपदाएं असल में ग्लासियल लेक फार्मेशन के कारण ही हुई थी. इसलिए इस प्रकार की घटनाओ का पूर्वानुमान लगाने के लिए सेटेलाइट की मदद लेने की जरुरत है. 

धराली पूरी तरह से देश के बाकी हिस्सों से कट गया है। भेजी गई बचाव टीमें भूस्खलन और राष्ट्रीय राजमार्ग के विभिन्न स्थानों पर धंसने के कारण बीच में फंस गई हैं। हालाँकि मौसम में सुधार  के चलते सेना और वायुसेना के हेलीकाप्टर अब उड़ान भरने लगे हैं और अपने रेस्क्यू मिशन में लगे हैं. साधारण दिनों में खीर गंगा की तरफ लोगो का ध्यान भी नहीं जाता लेकिन आज उसकी तबाही रेनी गाँव में रिशिगंगा जैसी ही थी.







2024 में, सरकार ने सभी पर्यावरणीय नियमों के खिलाफ हर्सिल से गंगोत्री तक राजमार्ग को चौड़ा करने की अनुमति दी थी। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया था, क्योंकि हजारों देवदार के पेड़ों को काटने के लिए चिह्नित किया गया था।  ऐसा बताया गया की राष्ट्रीय राजमार्ग के चौडीकरण के लिए ४ हज़ार से ६ हज़ार देवदार के वृक्षों को काटने की योजना थी और बहुत से लोग बताते हैं की उनका चिन्हीकरण भी हो चुका है. हर्षिल से गंगोत्री का क्षेत्र बेहद संवेदनशील हैं और सरकार इन २०१२ में इसे इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित किया हुआ है लेकिन उसके बावजूद विकास के नाम पर बड़ी चट्टानों को काटने का 'कार्यक्रम' बनाया जा रहा है. गंगोत्री घाटी की पर्वत श्रृंखला बेहद महत्वपूर्ण और नाजुक है और हम सबकी भलाई इसी बात में है की हम इसके साथ न खेले नहीं तो इसके नतीजे और भी गंभीर हो सकते हैं.  २०२५ में अब तक उत्तराखंड में बहुत सी घटनाएं हुए हैं जो हमें इशारा कर रही हैं की समय है हम चेत जाएँ. 

  1. केदारनाथ में हेलीकॉप्टर दुर्घटना (15 जून, 2025): केदारनाथ धाम की ओर जा रहा एक हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें 5 लोगों की मृत्यु हो गई। यह घटना आपदा प्रबंधन में कमियों को उजागर करती है।

  2. चमोली और रुद्रप्रयाग में भारी बारिश और भूस्खलन (जुलाई-अगस्त 2025): मौसम विभाग ने 25 और 29 जुलाई को रुद्रप्रयाग, बागेश्वर, और उत्तरकाशी में भारी बारिश का ऑरेंज अलर्ट जारी किया था। भारी बारिश के कारण भूस्खलन और सड़क बंद होने की घटनाएँ हुईं, जिससे यात्रियों और स्थानीय लोगों को भारी परेशानी हुई।

  3. नैनीताल और भीमताल में बाढ़ (3 अगस्त, 2025): गौला नदी के उफान पर आने और बैराज से 10,000 क्यूसेक पानी छोड़े जाने के कारण नैनीताल और भीमताल में जलभराव और सड़क बंद होने की स्थिति बनी। एक बरसाती नाले में दो स्कूटी सवार बह गए, जिनमें से एक लापता हो गया।

  4. बद्रीनाथ राजमार्ग पर भूस्खलन (3 अगस्त, 2025): विष्णु प्रयाग के पास लगातार बारिश के कारण भूस्खलन हुआ, जिससे बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग अवरुद्ध हो गया। प्रशासन ने यात्रियों को सुरक्षित स्थानों पर रुकने की सलाह दी।

  5. ५ अगस्त को ही उत्तरकाशी के दो और स्थानों पर बादल फटने की घटनाएं हुई हैं. त्य्युनी में यमुना नदी में भयानक उफान दिखाई दे रहा है. मन्दाकिनी, पिंडर, अलकनंदाम, नयार, खो आदि सभी नदियों  में जबरदस्त बाढ़ है. उत्तराखंड के काली क्षेत्र की खबरे तो अभी अधिक नहीं आ रही लेकिन काली-शारदा-घाघरा का क्षेत्र उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और बिहार में सर्वाधिक आपदाओं वाला रहा है. मानसून में ये सभी अपनी 'सीमारेखा' के ऊपर ही बहती हैं.  हालाँकि उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएँ कोई नई बात नहीं हैं लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि उनसे कुछ सीखा जाए. ऐसा लगता है कि उनसे कोई भी सबक नहीं लिया जाता क्योंकि यदि ऐसा होता तो हमारी पर्यटन और विकास के मॉडल पर प्रश्न चिन्ह होते लेकिन वे अपने पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं .  पिछले कुछ दशकों में कई बड़ी घटनाएँ हुई हैं:

  • 1991 उत्तरकाशी भूकंप: 6.8 तीव्रता के भूकंप में 768 लोगों की मृत्यु हुई।
  • 1998 माल्पा भूस्खलन: पिथौरागढ़ में 255 लोग मारे गए, जिसमें 55 कैलाश मानसरोवर यात्री शामिल थे।
  • 2013 केदारनाथ आपदा : केदारनाथ में बादल फटने और भूस्खलन से 5,700 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
  • 2021 ऋषिगंगा आपदा: चमोली में हिमनदी झील के फटने से 204 लोग मारे गए, जिनमें से 124 लापता रहे।

पर्यावरण और नीतिगत चुनौतियाँ

केंद्र सरकार ने २०१० में उत्तराखंड में  उत्तरकाशी-गौमुख  के १३० किलोमीटर क्षेत्र को 2010 में पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया था, जिसकी अंतिम  अधिसूचना 2012 में आई।  नेताओं ने इसे विकास विरोधी कहा और हकीकत में इसका कभी ईमानदारी से पालन ही नहीं हुआ. फलस्वरूप  अनियोजित निर्माण, जलविद्युत परियोजनाएँ, और चारधाम यात्रा के लिए सड़क चौड़ीकरण जैसे कार्यों ने इस नाजुक क्षेत्र को और अधिक कमजोर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में चेतावनी दी थी कि यदि सरकार ने कार्रवाई नहीं की, तो हिमाचल प्रदेश  जैसे राज्य नक्शे से गायब हो सकते हैं हालाँकि उनकी टिपण्णी हिमाचल के सन्दर्भ में थी लेकिन यह बात उत्तराखंड जैसे राज्य पर भी वैसे ही लागू होती है. 

NGT के 2017 के आदेश के अनुसार उत्तराखंड में नदी तट से  १००  मीटर तक कोई निर्माण नहीं होना चाहिए, और 50-100 मीटर तक का क्षेत्र नियामक क्षेत्र माना जाना चाहिए। फिर भी, उत्तराखंड में नदी तटों पर होटल और रिसॉर्ट्स का निर्माण जारी है, जो आपदाओं को बढ़ावा देता है। खो नदी पर दुगड्डा लैंसडाउन मार्ग पर आप होटल और रिजोर्ट देख सकते हैं. कोटद्वार दुगड्डा मार्ग पर भी आपको ऐसा दिखाई देगा. ऋषिकेश देवप्रयाग मार्ग पर आपको शुरू से ही राफ्टिंग के लिए टेंट नदी पर ही लगे मिलेंगे. देहरादून में सोंग नदी क्षेत्र में भी लोगो का कब्जा बना रहता है. शहर के मध्य में रिप्सना नदी क्षेत्र में तो अब लोगो की कोलोनिया ही बन गयी है. आखिर ये सब लोग अपने आप तो नहीं कर सकते. बिना प्रशासन की शह या सत्ताधारियो के आशीर्वाद और खुले समर्थन के बिना ऐसा संभव नहीं है. आखिर क्यों हम अपनी नदियों और पहाडियों के प्रति संवेदनशील दिखाई दे रहे हैं ? पहाड़ और नदिया उत्तराखंड की संस्कृति और पहचान है और इनको बचाने की लड़ाई भी उत्तराखंड के मूलनिवासियो को ही लडनी पड़ेगी क्योंकि मैदान से आने वाले टूरिस्ट के लिए ये रील या सेल्फी से अधिक कुछ नहीं रह गया है. लोग अपने भगवानो से आशीर्वाद के लिए आते हैं, पहाड़ो से उन्हें कोई मतलब नहीं. वे तो चाहते हैं की उन्हें इतनी सुविधाए मिल जाएँ कि चलने में थोड़ा भी मेहनत न करनी पड़े और सरकार उन्हें वो सब देना चाहती है जो वो चाहते हैं.. 

उत्तराखंड में बढ़ती आपदाएँ केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय और नीतिगत कमियों का परिणाम भी हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि:

  • पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण पर सख्ती से रोक लगाए।
  • चारधाम यात्रा को नियंत्रित कर पर्यटकों की संख्या सीमित करे।
  • हिमनदी झीलों की निगरानी और आपदा प्रबंधन प्रणाली को मजबूत करे. 
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ाकर स्थाई  विकास को बढ़ावा दे जिससे स्थानीय लोगो को लाभ भी हो. 
  • जलवायु परिवर्तन के प्रश्न अब हमारे पाठ्यक्रमो में आना आवश्यक है और इसके साथ ही हमारे औद्योगिक नीति में भी ऐसे निर्माण और उद्योगों को ही प्रश्रय दिया जाए जो पर्यावरणीय मापदंडो और पहाड़ो की संवेदनशीलता के अनुसार हो. 
  • उत्तराखंड में अब और जल विद्युत् या रेलवे आदि की परियोजना पर विचार न करें. हम पुरानी परियोजनाओं को रोकने की बात नहीं कर रहे लेकिन भविष्य में ऐसी किसी परियोजना पर विचार न करें. 







हम धराली आपदा में पीड़ित सभी लोगों की सुरक्षा और संरक्षा की कामना करते हैं। जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोया, उनके प्रति हमारी गहरी संवेदनाएँ हैं। सशस्त्र बलों, NDRF, और SDRF के कार्यकर्ताओं को सलाम, जो दिन-रात लोगों की जान बचाने में जुटे हैं। उत्तराखंड के लोग बेहतर के हकदार हैं। सरकार को इस क्षेत्र की पर्यावरणीय संवेदनशीलता का सम्मान करते हुए अपनी नीतियाँ बनानी चाहिए। क्या सरकार विपक्ष, सामाजिक और नागरिक संगठनो, पर्यवारणविदो के साथ चर्चा कर उत्तराखंड के भविष्य पर कोई सार्थक पहल कर सकती है. ये समय है जब उत्तराखंड के चाहने वाले और हिमालय को प्यार करने वाले सभी लोगो को एक साथ आकर संयुक्त रूप से सोचने की और मिलबैठ कर संवाद करने की ताकि पहाड़ो को बचाया जा सके. पहाड़ बचेंगे तो उत्तराखंड की अस्मिता और पहचान भी ज़िंदा रहेगी. पहाड़ो के बिना पहाड़ी नहीं, ये बात याद रखने की है. 


रविवार, 3 अगस्त 2025

हिमालयी क्षेत्रो की संवेदनशीलता को समझे सरकार

 विद्या भूषण रावत

"वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य गायब हो सकता है," भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह चेतावनी दी है। उन्होंने आगे कहा, "भारत सरकार का भी यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्य में पर्यावरणीय संतुलनऔर नहीं बिगड़े ताकि प्राकृतिक आपदाएँ न हों। हम राज्य सरकार और भारत सरकार को यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि राजस्व कमाना ही सब कुछ नहीं है। अगर चीजें वर्तमान की तरह ही आगे बढ़ती रहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से हवा में गायब हो सकता है।"

यह भयावह चेतावनी ऐसे समय में आई है जब हिमाचल प्रदेश और इसका पड़ोसी राज्य उत्तराखंड अभूतपूर्व आपदाओं से जूझ रहे हैं। अचानक बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने की घटनाएँ और बुनियादी ढाँचे का ढहना अब तकलीफदेह रूप से आम हो गया है। हालाँकि सरकारे इस कोशिश में हैं कि अब आपदाओं और उनसे होने वाली मौतों का सामान्यीकरण हो जाए और लोग इस पर गुस्सा होने के बजाये इसे अपने जीवन के हिस्से के तौर पर ले. इसीलिये इस वर्ष राज्य सरकारों की और से आपदाओं और उनसे होने वाली मौतों की कोई विशेष जानकारी नहीं है. आज के दौर में केवल एक ही आंकड़ा 'विश्वास' के साथ दिया जा रहा है और वो यह की कितने करोड़ लोगो ने चार धाम यात्रा की और हरिद्वार में कितने लाख कांवरिये आये और कैसे प्रशासन ने उनकी व्यवस्था की. मतलव पूरा प्रशासन अब इन यात्राओ के आगे नतमस्तक है और उत्तराखंड के मूलनिवासी अपनी आर्थिक सामजिक सांस्कृतिक हालातो से जूझ रहे हैं. अमूमन यही हाल हिमाचल का है.

हिमाचल प्रदेश के आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, हिमाचल प्रदेश को 20 जून से मानसून की शुरुआत के बाद से 1,539 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है। चौवन लोगों की जान जा चुकी है, और 36 लोग अभी भी लापता हैं। 1,350 से अधिक घर आंशिक या पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए हैं। एनडीटीवी ने 2 अगस्त, 2025 तक की रिपोर्ट में बताया कि हिमाचल प्रदेश में 173 लोगों की मृत्यु हो चुकी है, 37 लोग लापता हैं, और 115 घायल हुए हैं। 6 जुलाई तक 23 बाढ़ की घटनाएँ और 19 बादल फटने की घटनाएँ दर्ज की गईं। अधिकांश मौतें बारिश के चलते हुई हैं.

उत्तराखंड, जो अक्सर आपदा सुर्खियों में अग्रणी रहता है, में भी यही पैटर्न दिखाई देता है। 4 जुलाई तक, इसने 70 मौतें दर्ज कीं—20 प्राकृतिक आपदाओं के कारण और 50 सड़क दुर्घटनाओं से। कई लोग लापता हैं, और 177 लोग घायल हुए हैं। हालाँकि ये आंकड़े अखबारी हैं और इनमे निश्चित तौर पर बढ़ोतरी होगी. असल में दोनों राज्य सरकारों को पुरे राज्ये के इन आंकड़ो की विस्तृत जानकारी लोगो के साथ साझा की जानी चाहिए.

पिछले कुछ वर्षो में इन दोनों हिमालयी राज्यों को "देवभूमि"—देवताओं की भूमि—के रूप में चित्रित किया जाता रहा है, विशेषकर उत्तराखंड को जिसके चलते चार धाम यात्रा में लोगो की भागीदारी बेहद अधिक बढ़ गयी. सरकार की कोशिश है कि अधिक से अधिक तीर्थयात्री उत्तराखंड आ जाए हालाँकि ये भी हकीकत है कि इतनी बड़ी संख्या में बाहरी लोगो के आने और रुकने के लिए उत्तराखंड और हिमाचल दोनों प्रदेशो में न तो कोई ढांचा है और न ही वह संभव है. यदि मैदानी क्षेत्रो के लोगो के ऐसो आराम के लिए उनके 'घर' की तरह फाइव स्टार सुविधाएं देने की कोशिश की गयी तो ये इन दोनों प्रदेशो के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है और इसके परिणामभयानक हो सकते हैं. हम ये देख भी रहे है कि दोनों क्षेत्रो में लगातार भू स्खलन हो रहे हैं. जहां सरकारे अपने 'अतिथियो' के स्वागत में पलकपांवड़े बिछाने को तैयार बैठी है वही दोनों प्रदेशो में वहा के मूल निवासियों के आर्थिक सामाजिकहालत लगातार मुश्किल होते जा रहे हैं.

दोनों प्रदेशो के दूर दराज के गाँवों में रहने वाले लोग अभी भी स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा व्यवस्था से वंचित हैं. बड़ी संख्या में गाँवों तक पहुचने का कोई सडक मार्ग नहीं है और आज भी बच्चो को मानसून के समय उफनती नदियों को पार करके जाना पड़ता है. दोनों प्रदेशो में स्थानीय लोगो के लिए बना बुनियादी ढाँचा चरमरा गया है क्योंकि सत्ता की पूरी चिंता 'मेहमाननवाजी' की है जिसके चलते मेजबान 'असहाय' सा हो गया है.

हिमाचल और उत्तराखंड दोनों का उपयोग केंद्र सरकारों द्वारा निजी हितों को बढ़ावा देने के लिए किया गया है, जिसे जलविद्युत परियोजनाओं और सामूहिक धार्मिक पर्यटन के नाम पर किया जाता है, जबकि स्थानीय आबादी की जरूरतों और आवाज़ों को दरकिनार किया जाता है।

हर साल, ये नाजुक राज्य असहनीय पर्यटकों की भीड़ से अभिभूत हो जाते हैं, जो अक्सर उनके बुनियादी ढाँचे की क्षमता से अधिक होती है। यह जिम्मेदार पर्यटन नहीं है—यह लापरवाही भरा अति-शोषण है। पर्यटन विकास को बढ़ावा देते हैं का विश्लेषण करने की जरुरत है. पर्यटन आवश्यक है लेकिन अनियंत्रित पर्यटन हिमालयी राज्यों में कहर ढा रहा है. अभी तक तो इस पर्यटन से कोई विशेष विकास हुआ हो ऐसा दिखाई नहीं देता.

पहाड़ों से आने वाले एक व्यक्ति के रूप में, मैं गवाही दे सकता हूँ कि चार धाम यात्रा के नाम पर होने वाला यह सामूहिक पर्यटन स्थानीय परंपराओं को खतरनाक रूप से कमजोर कर रहा है और पहाड़ो के संवेदनशील प्राकृतिक तंत्र को बाधित कर रहा है। मुझे नहीं लगता की इससे पहाड़ो को बहुत अधिक लाभ हो रहा हो क्योंकि आज भी उत्तराखंड केंद्र के भरोसे अधिक है क्योंकि अभी भी यहाँ पर स्थानीय मूलनिवासी जनता के आर्थिक स्वावलंबन के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हुए हैं. पूरी राजनीती लफ्फाजी और तथाकथित राष्ट्रवाद पर हो रही है जिसमे पहाड़ी राष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई देता. हिंदुत्व के बड़े अजेंडे के अन्दर पहाड़ी अस्मिता को समाहित करने के प्रयास हो रहे हैं. मैदानी क्षेत्रो से आने वाले लोग जो अपनी शान शौकत और राजनितिक कनेक्शन, बड़ी गाडियों के साथ अपनी ताकत का भौंडा प्रदर्शन करते हुए दिखाई देते हैं . अपनी अकड में वे अक्सर इन स्थानों को अपने निजी खेल के मैदान के रूप में मानते हैं, स्थानीय लोगो की भावनाओं से बेपरवाह ये लोग पूरी बेशर्मी के साथ सार्वजनिक रूप से शराब पी रहे हैं , लडकियों से छेड़खानी की घटनाओं में वृद्धि हुई है और और गाँवों से लडकियों और युवाओं के गायब होने या अपहरण की सूचनाएं भी लगातार बढ़ रहे हैं. मै उस उत्तराखंड से आता हूँ जहा लोग अपने घरो पर ताले नहीं लगाते थे और पुलिस के अधिकारी वहा स्थानांतरण होने को अच्छा नहीं मानते थे क्योंकि उनकी कोई 'कमाई' नहीं थी.

आज हिमालय पर सांस्कृतिक हमला भी है और इसके परिणाम भी उतने ही चिंताजनक हैं। हिमालयी समाज ऐतिहासिक रूप से मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक समतावादी और आजाद ख्याल रहे हैं। स्थानीय खान-पान की आदतें, महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिका, और विकेन्द्रीकृत धार्मिक परंपराएँ एक बहुलवादी लोकाचार को दर्शाती हैं। आज, वे ही तत्व खतरे में हैं। धार्मिक एकरूपता को बाहर से थोपा जा रहा है, जो स्थानीय देवताओं और रीति-रिवाजों को कमजोर कर रहा है। इसमें उन क्षेत्रों में शाकाहारी मानदंडों का बढ़ता थोपना शामिल है, जहाँ परंपरागत रूप से पशु बलि धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा थी। खाडू और बुख्थ्या हमारी देवी देवताओं की परम्पराओ से जुड़े हुए हैं. पहाड़ो को शराब के नाम पर बदनाम किया जाता है लेकिन बहुत सी परम्पराए भौगोलिक परिशितियो के कारण भी होती है. शराब पीना पहाड़ी क्षेत्रो में सामान्य बात हो सकती है लेकिन वो यहाँ पर कभी समस्या नहीं रहा. देश के अन्य हिस्सों की तरह, उत्तराखंड और हिमाचल का सांस्कृतिक पारिद्रृश्य बिलकुल अलग है और नेपाल या उत्तर पूर्व के राज्यों से मिलता जुलता है, जहा लोग अपनी जिंदगी को उन्मुक्तता से जीते हैं और खान पान के सवालों को लेकर मध्य भारत का पोंगापंथी वैचारिक तंत्र पहाड़ो पर लादने के अच्छे परिणाम नहीं होंगे.

सभी दलों के राजनेता तीर्थयात्राओं के दौरान बढ़ती मृत्यु दर या पारिस्थितिकीय लागत को संबोधित किए बिना "रिकॉर्ड" पर्यटक संख्या का जश्न मनाते रहते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में अप्रैल में ही चार धाम यात्रा के दौरान 65 से अधिक मौतें हुईं, जो हृदयाघात, उच्च ऊँचाई की बीमारी और भूस्खलन जैसे कारणों से हुईं। हेलीकॉप्टर दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या भी नाजुक हवाई गलियारों पर असहनीय दबाव को दर्शाती है, जो सब कुछ मुनाफे के नाम पर है।

यदि सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में अपनी बात को गंभीरता से लेता है, तो अब कठोर कार्रवाई बहुत जरूरी है। सरकारों—राज्य और केंद्र दोनों—ने खराब नियोजित परियोजनाओं, अंधाधुंध निर्माण और अनियंत्रित पर्यटन के माध्यम से इस आपदा को और अधिक भयानक बनाया है। इससे भी बदतर, उन्होंने क्षेत्र के आध्यात्मिक चरित्र को बदल दिया है। ये पहाड़ कभी इस तरह के संगठित धार्मिक अनुष्ठानों का स्थान नहीं थे, जैसा कि अब देखा जा रहा है। प्रत्येक घाटी और गाँव का अपना देवता, अनुष्ठान और लय है—जो लाउडस्पीकर, डीजे, और विकास के बहाने उग आए विशाल सीमेंट संरचनाओं के साथ संरेखित नहीं है। पहाड़ो में स्थानीय देवी देवताओं का महत्त्व राष्ट्रीय दिखने वाले भगवानो से अधिक है. नंदा देवी राजजात यात्रा, महासू देवता, गोल्ज्यू देवता, ज्वाल्पा देवी, धारी देवी और अनेको तीर्थो का महत्त्व स्थानीय लोगो के लिए बहुत अधिक है. उनका महत्त्व उनके स्थानीय रूप में ही है और उन्हें मैदानी 'नैतिकता' के अनुसार बदलने की आवश्यकता नहीं है. हिमाचल प्रदेश में भी स्थानीय देवो का बहुत बड़ा महत्व है. असल में यमुना घाटी में तो महासू देवता हिमाचाल उत्तराखंड के संयुत्क संस्कृति का हिस्सा है.

पहाड़ो में आज भी पुराने मंदिर वहा की स्थापत्य कला का प्रतीक है. वे जैसे हैं उन्हें वैसे ही रहने दें. विकास के नाम पर वास्तुकला का 'गुजरातीकरण' न होने दे.। मैगी नूडल्स, ढोकला, आलू पराठा जैसे क्षेत्र के लिए विदेशी खाद्य पदार्थों की माँग ने पारंपरिक भोजन को पीछे छोड़ दिया है। आज पहाड़ के ढाबो में स्थानीय भोजन कम मिलता है. फान्दू, कफली, धबडी, चैसू आदि आपको मुश्किल से ही मिल पाएंगे. नदियाँ, जो कभी पूजनीय और संरक्षित थीं, अब उनके स्रोत पर ही प्रदूषित हो रही हैं। भक्त लोग मैदान से लायी अपनी गन्दगी पहाड़ो पर छोड़ कर आ रहे हैं. यमुनोत्री और अन्य स्थानों पर लोग नदियों पर नहाकर अपने वस्त्र वही बहा दे रहे हैं. असल में मैदानी क्षेत्रों के विपरीत, सामूहिक नदी स्नान हिमालयी रीति-रिवाजों का हिस्सा कभी नहीं रहा। गंगा स्नान की परंपराएँ हरिद्वार और वाराणसी की हैं, केदारनाथ या किसी भी अन्य हिमालयी क्षेत्र की नहीं है क्योंकि नदियों का वेग इतना तेज होता है कि आपको सीधे बहा ले जाएगी. पहाड़ो का नदियों से अध्यात्मिक और सांस्कृतिक रिश्ता है इसलिए कोई उन्हें गन्दा नहीं करता. नदियों किनारे मलमूत्र करने की परम्परा पहाड़ो में बहुत कम है.

इसी प्रकार कांवर यात्रा भी भी परम्पपरा पहाड़ों में नहीं है। अधिकांश कांवरिये मैदानी क्षेत्रों—हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली—से आते हैं और अपने साथ एक ऐसी संस्कृति लाते हैं जो स्थानीय लोकाचार से बिलकुल भिन्न है. पहाड़ो में धर्म के नाम पर कोई हिंसा या घृणा अमूमन नहीं सुनी जाती. स्थानीयता में विभिन्नता है और सभी अलग अलग अपनी अपनी परम्पराओं को मानते हैं.

यदि सर्वोच्च न्यायालय गंभीर है, तो उसे मूल पहाड़ी आबादी के अधिकारों, संस्कृतियों और पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए जोर देना चाहिए। विकास को स्थिरता, समता और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के माध्यम से पुनर्कल्पित करना होगा। हिमाचल और उत्तराखंड के लोग लंबे समय से अपने परिवेश के साथ सामंजस्य में रहते आए हैं। यदि भारत के इस नाजुक लेकिन महत्वपूर्ण हिस्से को बचाना है, तो नीति और नियोजन में उनकी भागीदारी अनिवार्य है।
अब समय है कि हम अनुष्ठानों के नाम पर हिमालय का दुरुपयोग बंद करें और इसके सच्चे स्वरूप—पवित्र, विविध और इसके लोगों में निहित—का सम्मान शुरू करें। यहाँ सतत विकास की शुरुआत स्थानीय समुदायों को स्वीकार करने और सशक्त बनाने से होनी चाहिए. अभी तक हिमालय में कैसा विकास हो और कैसी व्यवस्था हो इस विषय में यहाँ की मूलनिवासियो को छोड़ कर हर एक से पूछा जा रहा है. हिमालयी क्षेत्रो को रहस्यमयी बनाने से अधिक आवश्यक है की इन क्षेत्रो में रह रहे मूलनिवासियो के अधिकारों को बचाया जाए और विकास और पर्यटन के नाम पर शोषण का जो नया नेटवर्क चल रहा है उसे रोका जाए. पिछली आपदाओ का सबक यही है कि धर्म और विकास की इस अनियंत्रित होड़ पर लगाम लगाईं जाए और स्थानीय मूलनिवासियो से बात कर ऐसी व्यवस्था बने जिसमें लोगो के मूलअधिकार बने रहे और तभी हिमालय सुरक्षित रहेंगे. हिमालय का संरक्षण हमारी राष्ट्रीय जिम्मेवारी है लेकिन वो बिना स्थानीय लोगो की भागीदारी और सहयोग के असंभव है. एक और महत्वपूर्ण बात, हिमालय और गंगा सहित हमारी नदिया सभी नदिया हमारी सांस्कृतिक विरासत है और इन्हें 'संशाधन' समझ व्यापारियों की लूट का साधन न बनने दिया जाए तभी हम सब सुरक्षित रहेंगे.

पेरियार और उत्तर भारत के साथ उनका संबंध

  विद्या भूषण रावत    हालांकि पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं के बीच एक जाना-माना नाम है , लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के अधिकांश लो...