लोकायत में आप सभी का अभिनन्दन. सहमति में असहमति और असहमत होने की सहमति मजबूत लोकतान्त्रिक ढांचे का प्रतीक है. आज के समय लोकायत की मानववादी सोच के सर्वाधिक आवश्यकता. साथ जुड़ने के लिए आभार.
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, और पंजाब में भारी बारिश के कारण हुई भयंकर तबाही केवल एक मौसमी त्रासदी नहीं है—यह प्रकृति की चेतावनी है। फिर भी, इस संकट की विशालता को मुख्यधारा के मीडिया में मुश्किल से ही जगह मिली है। यह चुप्पी चिंताजनक है। इन राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा, लापरवाह तथाकथित “विकास” परियोजनाओं को तत्काल रोकने और हमारे पहाड़ों के भविष्य के बारे में व्यापक लोकतांत्रिक बहस की मांग करता है। दुख की बात है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी, सभी दलों में, ऐसे मूलभूत सवालों से निपटने की कोई रुचि नहीं दिखाती। इसके बजाय, हमें केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे मंत्रियों की शर्महीन गौरवपूर्ण अनुभूति देखने को मिलते हैं, जो हिमालय की इस भयानक त्रासदी मे भी बड़े गर्व से केदारनाथ में रोपवे परियोजना की घोषणा करते हैं और पूरे क्षेत्र मे हो रही घटनाओ पर शर्मनाक तरीके से चुप रहते हैं और अपनी घोषणा को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे कि यह पहाड़ों की समस्या का कोई बहुत बड़ा समाधान हो। इस बीच, सरकार उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग को स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों की बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए चौड़ा करने की अनुमति दे चुकी है। इस तरह का व्यवहार और तथाकथित 'विकास' कार्यों का अहंकार पर्यावरणीय बुद्धिमत्ता और इन नाजुक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आवाजों के प्रति खतरनाक उपेक्षा को दर्शाता है जो लोकतंत्र और पर्यावरण दोनों के लिए शुभ नहीं है।
हिमालयी आपदा को केवल “जलवायु संकट” कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। बेशक, जलवायु परिवर्तन वास्तविक है और इसके लिए तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, लेकिन इसे एकमात्र बहाना बनाना हमारे अपने पापों को धो देना है। इसकी गहरी वजह विकास के नाम पर राज्य की उन नीतियों में निहित है जिसका एक मात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है चाहे पहाड़ों या यहा की नदियों और लोगों का जो भी कुछ हो। दुर्भाग्यवश, स्थानीय समुदायों और परम्पराओ को नजरंदाज कर ऐसी नीतिया पहाड़ों में लागू की जा रही हैं जिन्हे हम न केवल पहाड़ विरोधी कहेंगे अपितु सांस्कृतिक तौर पर भी पहाड़ी परम्पराओ को खोखला कर बाहर से आयातित गंदगी को संस्कृति के नाम पार थोपा जा रहा है। पर्यटन के 'राष्ट्रीयकरण' के चलते पहाड़ों मे बढ़ती संख्या और उनके लिए नई संशधनों की आवश्यकता ने पहाड़ों की प्रकृति पर भयानक दबाब डाला है। आखिर इन सबके लिए व्यवस्थाएं कैसी होंगी लेकिन सत्ताधारी इस पर बात करने के तैयार नहीं और हर एक समस्या पर अपने चालाकी के 'नुस्खे' बताकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। वही लोग नए समाधान के नाम पर ठेके ले रहे हैं जो यहा की समस्याओ के लिए जिम्मेदार हैं।
ये समझना आवश्यक है कि कैसे पहले 'विकास' का नाम लेकर हर एक काम किया गया। जो लोग इन सवालों को पूछ रहे थे उन्हे खलनायक बना दिया गया। कहा गया कि बांध बनाकर ऊर्जा प्रदेश बनेगा हालांकि ये भी सभी को पता है कि सारे गांवों मे आज भी बिजली नहीं पहुंची है। लेकिन विकास के नाम पर चलाई जा रही ऐसी नीतियां जिनमें ऊपरी हिमालय में बड़े बांधों का निर्माण शामिल है, जिन्हें “ऊर्जा अधिशेष” राज्य बनाने के नाम पर उचित ठहराया गया। ये परियोजनाएं लालच के अलावा और कुछ नहीं हैं क्योंकि इन्हे अपने 'प्रबंधकों' और 'ठेकेदारों' की कमाई का जरिया बनाया गया। अन्यथा हम सब जानते है कि ये सभी परियोजनाएं नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करती हैं और फिर प्राकृतिक प्रतिक्रिया को आमंत्रित करती हैं। आज घाटियों को चीरती नदियों की उग्रता हमें प्रकृति की बेजोड़ शक्ति की याद दिलाती है। तकनीक, चाहे कितनी भी उन्नत हो, प्रकृति के इस रौद्र रूप के र सामने असहाय नजर आती है। उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, जम्मू कश्मीर, लद्दाख की घटनाए अब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि सुधार जाओ और प्रकृति से दुश्मनी न करो। अब हमारे आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता हिमालय का सम्मान करना है, रुककर उन विनाशकारी विकास नीतियों पर पुनर्विचार करना है जो उन्हें केवल एक प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखती हैं जिसका उद्देश्य मात्र मुनाफा कमाना है। ऐसे सभी विचारों को अब छोड़ देना चाहिए क्योंकि हिमालय कि सुनामी मैदानी क्षेत्रों को भी नहीं छोड़ने वाली। ये प्रश्न केवल हिमालय का नहीं है। हमारी नदियों ने यदि अपना असली रूप दिखा दिया तो मैदान भी नहीं बचेंगे। इसलिए आज गंभीर चिंतन की जरूरत है। हिमालय और उससे निकलने वाली गाड़ गदेरो का सम्मान करना सीखो। शायद प्राचीन काल मे हमारे पुरखे नदियों, पहाड़ों, गदेरो को पूजते थे तो इसलिए क्योंकि उनकी जिंदगी इन्ही के दम पर थी। आज हमने उनको खत्म कर कमाई करने का धंधा बनाने की सोची और सभी ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया कि हमारी मशीन और सत्ता का नशा केवल असहाय दिखा। क्या अभी भी समझ नहीं आया।
डुखाद बात यह है कि हम आज एक “विकास माफिया” के उदय को देख रहे है, जो लोगों को झूठे सपने बेच रहा है और क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत को लूट रहा है। एक कल्याणकारी राज्य हिमालय को ए टी एम मशीन की तरह नहीं देख सकता। ये पहाड़ हमारे रक्षक हैं, उनकी नदियां हमें जीवन देती हैं, और उनके पारिस्थितिकी तंत्र पूरे भारत में जीवन को संतुलित करते हैं। फिर भी, हम नदियों को सुखाने, उनमें कचरा डालने, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को विस्फोट करने, और रेलवे लाइनों व मेगा-ब्रिजों का बोझ डालने में क्यों लगे हैं? आस्था के नाम पर लाखों तीर्थयात्रियों को, जो उनकी भारी संख्या मे उपस्थिति के पर्यावरणीय प्रभाव की परवाह नहीं करते, पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को अभिभूत करने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया जा रहा है? लाखों की संख्या मे तीर्थ यात्रियों का आना यहा के मौजूदा प्रबंधन को कैसे प्रभावित कर रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। आखिर एक दिन मे इन पर्वतीय क्षेत्रों मे लोगों के आने से हमारी नदियों, बुगयालों और अन्य स्थानों पर क्या असर पड़ रहा है?
यह तबाही केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं है। पंजाब की कृषि भूमि जलमग्न हो गई है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और आजीविका नष्ट हो गई है। अतिप्रवाह करने वाले बांधों ने भारत और सीमा पार पाकिस्तान में संकट को और बदतर कर दिया है। लंबे समय से बांधों को प्रगति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन बाढ़ को बढ़ाने में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बांध के गेट संकट के चरम पर ही क्यों खोले जाते हैं, जिससे नीचे की ओर तबाही बढ़ जाती है? इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए। विशेषज्ञों को यह आकलन करना चाहिए कि बड़े और छोटे बांधों जैसे कृत्रिम हस्तक्षेपों ने प्राकृतिक बाढ़ों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया है या नहीं। सबूत तेजी से यह सुझाव दे रहे हैं कि ऐसा ही है।
राज्य सरकारों के लिए सच्चाई का सामना करने का समय आ गया है: उनके लोगों का भविष्य सुरंगें खोदकर, पहाड़ों को विस्फोट करके, या नदियों को निजी हाथों को सौंपकर सुरक्षित नहीं किया जा सकता। मुख्यधारा का मीडिया इन असहज वास्तविकताओं पर बहस करने से कतराता हो , लेकिन नागरिकों को इस विनाशकारी मॉडल पर सवाल उठाते रहना चाहिए। हिमालयी राज्यों को ऐसा विकास चाहिए जो उनके स्थानीय और मूल निवासी समुदायों के सहयोग और भागीदारी के साथ हो । ऐसी कोई भी परियोजनाएं जो विकास के नाम पर पर्यावरण के नियमों की धज्जियां उड़ाएं और मुट्ठीभर ठेकेदारों, बिचौलियों और कॉरपोरेट मित्रों को समृद्ध करे, का जमकर विरोध होना चाहिए। अक्सर, बुनियादी ढांचे को ठीक करने के लिए दिए गए 'ठेके' राजनीतिक एहसानों के रूप में दिए जाते हैं, जिनके मुनाफेदार गुजरात और अन्य जगहों के व्यापारिक घरानों होते हैं, जबकि स्थानीय लोग पर्यावरणीय तबाही के अलावा और कुछ नहीं पाते। ऐसे ठेके बंद होने चाहिए। जनता को ये जानने का अधिकार है कि किन लोगों को 'विकास' ये ठेके दिए गए और क्या वे सभी सुरक्षित हैं और मानकों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। विकाय की ऐसी ऐसी नीतियां जिनमे स्थानीय मूल निवासियों की भूमिका न के बराबर है, न केवल यहा के पर्यावरण को नष्ट करती हैं बल्कि हिमालय की सांस्कृति और इतिहास को भी हानि पँहुचाती है। यदि लोकतंत्र का कोई अर्थ है, तो पहाड़ों के भविष्य के बारे में निर्णय वहां रहने वाले लोगों के साथ संवाद में लिए जाने चाहिए, न कि ऊपर से थोपे जाने चाहिए।
हिमालय की पहड़िया और घाटियां अब हमे चेतावनी दे रही हैं कि बंद करो उनका दोहन और शोषण । वो कह रही हैं कि यहा के मूल निवासी प्रकृति की पूजा करता था और उसके साथ सामंजस्य बना कर रहता था और अपनी सुकून भरी जिंदगी मे संतुष्ट था। अब 'विकास' की आंधी ने पहाड़ियों से पहाड़ छीन लिए और उसका गुस्सा भी देख रहे हैं। पहाड़ कह रहे हैं कि उनका सम्मान करो, अपनी परम्पराओ की ओर लौटो और 'विकास' के नाम पर विनाशकारी व्यवसायिक आदत बादलों। हमारी नदिया और पहाड़ हमारी संस्कृति और स्वाभिमान है, इन पर अब अपनी ललचाई नजर मत डालो। पहाड़ ये कह रहे हैं, सुधर जाओ, वापस अपने मूल पर आओ। ये समझ लीजिए कि जब तक हम अपना रास्ता नहीं बदलते, प्रकृति का रोष और अधिक गहरा होगा और लोगों को उसकी और भी अधिक विनाशकारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा। प्रकृति का सम्मान करें और उसके साथ तालमेल कर ही हम अपना जीवन संतोष के साथ जी सकेंगे।
27 अगस्त 1976 को डेट्रायट (अमेरिका) में हजारों की संख्या में लोग मुकेश और लता मंगेशकर के शो में उन्हें सुनने के लिए एकत्र हुए थे लेकिन कॉन्सर्ट के दौरान ही समाचार मिला कि मुकेश को दिल का दौरा पड़ा है तो सारे लोग अस्पताल की ओर चल पड़े। मुकेश को शायद अहसास था और इसीलिए वह अपने बेटे नितिन मुकेश से कह रहे थे कि यदि उनका गला नासाज है तो वह लता जी के साथ उनकी जगह पर गाना गाए और इसके लिए उन्होंने लता मंगेशकर को मना भी लिया था। उनके बेटे नितिन मुकेश बताते हैं : हमें उनकी तबीयत के विषय में पहले से कुछ पता नहीं था। हम अमेरिका मेंलताजी के साथ एक कॉन्सर्ट टूर पर थे। वह मेरे साथ कुछ समय बिताना चाहते थे इसलिए मुझे छुट्टी पर ले गए। संगीत कार्यक्रम से पहले उन्होंने असहज महसूस किया और लताजी से पूछा कि क्या मैं इसमें शामिल हो सकता हूं। उनके साथ गाना गाना मेरे लिए एक सपने के सच होने जैसा था। वह सहज ही मान गईं। वह बहुत खुश हुए जब दर्शकों ने मेरे गायन को पसंद किया और दोहराना चाहा। खुशी के मारे उनकी आँखों में आँसू थे। डेट्रॉयट में एक शो था और उन्हें सर्दी-जुकाम हो गया था। शो से पहले वह उठे और मुझे जगाने के लिए कुछ पंक्तियां गाईं और फिर नहाने के लिए बाथरूम चले गए लेकिन फिर बाहर निकले तो बेहोश हो गए। वह रामायण से प्यार करते थे और यह पुस्तक उनके पास हमेशा रहती थी। वह समर्पित थे। हमने उन्हें अस्पताल पहुंचाया। उनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा था। उन्होंने मुझे रोते हुए देखा और मुझे सांत्वना दी। उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया लेकिन अस्पताल के अंदर घुसने के कुछ मिनट बाद उनकी मौत हो गई। वह उनका पांचवां दिल का दौरा था। वह मधुमेह के रोगी थे लेकिन बहुत सक्रिय थे। ( द हिन्दू अखबार को दिए उनके इंटरव्यू से )
नितिन ने कार्यक्रम में मुकेश के अमर गीत को वहां पर गाया जो राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर से था I
इस दिल के आशिया में अब,/तेरे ख्याल ही रह गए,/तोड़ के दिल वो चल दिए,/हम फिर अकेले/रह गए/
जाने कहा गए वो दिन,/कहते थे तेरी राह में,/नज़रों को हम बिछाएंगे,/चाहे कहीं भी तुम रहो,/चाहेंगे तुम को उम्र भर/
तुमको न भूल पाएंगे।
मुकेश चंद्र माथुर का जन्म पुरानी दिल्ली के इलाके मे 22 जुलाई 1923 को हुआ था। उनके पिता जोरावर चंद और माँ चंद्राणी माथुर थीं। दस भाई-बहनों के परिवार में उनका छठवाँ नंबर था। उनके घर पर संगीत के एक अध्यापक उनकी बहन को संगीत सिखाने आते थे और मुकेश भी धीरे-धीरे उनसे संगीत की शिक्षा लेने लगे। उस जमाने के प्रसिद्ध अभिनेता मोतीलाल की नजर एक कार्यक्रम में मुकेश पर पड़ी और फिर वह उन्हें बम्बई ले आए। 1941 में उन्हें फिल्म निर्दोषमें बतौर अभिनेता लिया गया जहा उन्होंने स्वयं के लिएदिल ही बुझा हुआ तोगीत गाया जो उनके जीवन का प्रथम गीत माना जाता है। मुकेश का एक्टिंग का करिअर तो ज्यादा नहीं चल पाया लेकिन अभिनेता मोतीलाल ने उन्हें 1945 में अपनी फिल्मपहली नजर के लिए संगीतकारअनिल विश्वासके निर्देशन मेंदिल जलता है तो जलने दे, आँसू न बहाफ़रियाद न कर गाया जो बेहद लोकप्रिय हुआ। इस गाने में लोगों ने मुकेश में उस दौर के नामी गायक कुंदनलाल सहगल की छवि देखी। मुकेश की आवाज बेहतरीन थी लेकिन उनकी समझ में आ गया कि यदि अपनी कोई स्वतंत्र आवाज नहीं बनी तो वे बहुत दूर तक नहीं चल पाएंगे। दरअसल उस दौर में के एल सहगल सभी कलाकारों के हीरो होते थे और जो भी नया गायक बम्बई आता वह सहगल साहब की आवाज की ही ‘नकल’ करता। मुकेश तो छोड़िए, किशोर कुमार तक के पसंदीदा गायक कलाकार सहगल ही रहे और उन्होंने भी प्रारंभ में सहगल की नकल करने की कोशिश की।
मुकेश की आवाज को स्वतंत्र अभिव्यक्ति प्रदान कराने वालों में सबसे पहले आए नौशाद, जिनकी 1948 में आई फिल्ममेलाने उन्हें लोगों में लोकप्रिय बना दिया। इस फिल्म का गीत गाए जा गीत मिलन के, तू अपनी लगन के, सजन घरजाना है ने मुकेश की आवाज को घर-घर पहुंचा दिया। 1948 मे ही आई फिल्मअनोखी अदा में पुनः मुकेश की आवाज ने नौशाद के संगीत निर्देशन में धूम मचाई। इसका गीत मंजिल की धुन में झूमते गाते चले चलो, बिछड़े हुए दिलों कोमिलाते चले चलो और ये प्यार की बाते, ये सफर भूल न जाना बहुत लोकप्रिय हुए। मुकेश लोकप्रियता को छू रहे थे और इसीलिए 1949 महबूब खान की फिल्मअंदाजमें संगीतकार नौशाद की धुनों पर मुकेश की आवाज ने सभी जगह धूम मचा दी। इस फिल्म में दिलीप कुमार और राजकपूर पहली बार साथ आए और यह उनकी एकमात्र फिल्म रही। हालांकि फिल्म में मोहम्मद रफी की आवाज भी थी लेकिन इस फिल्म के मुकेश के गाए सभी गीत जबरदस्त हिट रहे।झूम-झूम के नाचो आज, गाओ आज, गाओ खुशी के गीत, आज किसी की हार हुई है, आज किसी की जीत रे, गाओ खुशी के गीत रे औरतू कहे अगर, तू कहे अगर जीवन भर, मैं गीत सुनाता जाऊं, मन बीन बजाता जाऊं लोकप्रियता के पायदान पर बहुत आगे चले गए।
राजकपूर की आवाज
हालांकि राजकपूर की पहली फिल्म नील कमल में मुकेश ने प्लैबैक दिया था,लेकिन वह राजकपूर की फिल्म आग से जिसका गीत ‘जिंदा हूँ इस तरह कि गमे-जिंदगी नहीं, जलता हुआ दिया हूँ मगर रौशनी नहीं लोगों के दिलों में पहुँच गया। लेकिन राज कपूर और मुकेश का चोली-दामन का रिश्ता बना, 1949 में आई राजकपूर की फिल्म बरसात से, जिसमे मुकेश का लता मंगेशकर के साथ का गीत छोड़ गए बालम, हाये प्यार भरा दिल तोड़ गए में लोगों ने उनकी आवाज को सराहा। धीरे-धीरे मुकेश ने राजकपूर के लिए गाए गीत इतने लोकप्रिय हुए कि दोनों को एक दूसरे के बिना पहचानना संभव नहीं था और मुकेश को राजकपूर ने अपने बाहर की फिल्मों में भी प्लैबैक के लिए आमंत्रित किया। 1950 की फिल्म बावरे नैन में उनका ये गीत बेहद खुबसूरत है : तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, वापस बुला ले, मैं सजदे गिरा हूँ, मुझे ए मालिक उठा ले।
1951 में राज कपूर की फिल्म आवारा ने मुकेश के गायन को एक नई ऊंचाई दी। न केवल उनकी फिल्म आवारा विश्व पटल पर छा गई अपितु फिल्म का गीत, आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ’ भी रूस, चीन और बहुत से अन्य देशों में बेहद लोकप्रिय हुआ। यह कह सकते हैं कि यह गीत भारत का पहला अंतर्राष्ट्रीय गीत बन गया। इसी फिल्म में राज कपूर पर फिल्माया मुकेश का एकल गीत हम तुझसे मुहब्बत करके सनम, रोते भी रहे, हँसते भी रहे बहुत चला लेकिन जो दूसरा गीत मुकेश और लता मंगेशकर ने गया वह तो आज भी प्रेम का बेहतरीन नमूना है : दम भर जो उधर मुंह फेरे, ओचन्दा, /मैं उनसे प्यार कर लूँगा, नजरे तो चार कर लूँगा। राज कपूर के लिए मुकेश ने बेहद संजीदा गीत गाए। श्री चार सौबीस में मेरा जूता है जापानी, फिल्म आह में आजा रे, अब मेरा दिल पुकार, रो-रो के गम भी हारा, फिल्म संगम में मेरे मनकी गंगा और तेरे मन की जमना का, बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं, दोस्त-दोस्त न रहा, प्यार-प्यार न रहा, जिंदगीहमें तेरा, एतबार न रहा, ओ महबूबा, ओ महबूबा,तेरे दिल के पास ही मेरी मंज़िले मकसूद, वो कौन सी महफ़िल है जहाँ तू नहीं मौजूद ।
राजकपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है में भी मुकेश ने अपनी सुरीली आवाज का जादू बिखेरा। शैलेन्द्र का लिखा होंठों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है ने देश के मन की बात समझी और उसकी भावनाओं को प्रकट किया और यह मुकेश के स्वर में ही सफल होता है और सच्चा लगता है, जब वह गाते हैं कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं, ये पूरब है, पूरब वाले, हर जान की कीमत जानते हैं, हर जान की कीमत जानते हैं, मिल जुल के रहो और प्यार करो, एक चीज यही जो रहती है, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।
जिस देश मे गंगा बहती है में मुकेश अपने पूरे शबाब पर थे। शैलेन्द्र, शंकर जयकिशन, मुकेश और राजकपूर ने अपने सार्थक गीतों, संगीत और आवाज से एक नई उम्मीद पैदा की। राज कपूर पर फिल्माया गया आ अब लौट चलें, नैन बिछाए,बाहें पसारे, तुझको पुकारे देश तेरा…. और इस गीत की इन पंक्तियों को जैसे शैलेन्द्र ने लिखा और मुकेश ने स्वर दिया वह अप्रतिम है : ‘आँख हमारी मंजिल पर है,/ दिल में खुशी की मस्त लहर है,/लाख लुभाए महल पराए,/अपना घर तो अपना घर है।
यह आज भी हम सबके लिए एक ऐसा सच है जिसे जब परदेश में होते है तब समझते हैं।
राजकपूर के लिए मुकेश ने आर के बैनर्स के बाहर भी बहुत से खूबसूरत गीत गाए। फिल्म अनाड़ी में सब कुछ सीखा हमने,न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी , या लता मंगेशकर के साथ दिल की नजर से गीत बहुत पसंद आए लेकिन इस फिल्म का शैलेन्द्र का लिखा एक गीत मुकेश की इमॉर्टल आवाज ने अमर कर दिया —
किसी कि मुस्कुराहटों पे हो निसार,/किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,/किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,/जीना इसी का नाम है।
राजकपूर की एक गुमनाम फिल्म थी दूल्हा-दुल्हन जिसके लिए कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में मुकेश ने इतनी खूबसूरती से गाया कि आज भी हम उस दर्द को महसूस करते हैं —
हमने तुझको प्यार किया है जितना,/कौन करेगा उतना,/रोए भी तो दिल ही दिल में/महफ़िल में मुस्काए,/तुझसे ही हम,/तेरा ही गम,/बरसों रहे छुपाये,/प्यार में तेरे चुपके -चुपके,/जलते रहे हम जितना,/कौन जलेगाइतना।
ऐसा नहीं था कि मुकेश ने केवल राजकपूर के लिए ही गीत गाए। दिलीप कुमार के लिए भी उन्होंने बहुत हिट गीत दिए। फिल्म यहूदी में ये मेरा दीवानापन है, या मोहब्बत का सुरूर, तू न पहचाने तो है ये, तेरी नजरों का कुसूर, उस भाव को बेहतरीन तरीके से व्यक्त करता है जिसके लिए दिलीप कुमार पहचाने जाते थे। बाद में सलिल चौधरी के संगीत में मुकेश ने मधुमती फिल्म के लिए अपनी आवाज दी और उनके सभी गीत उस दौर में सुपर-डूपर हिट हुए। सुहाना सफर और ये मौसम हंसीं, हमें डर है हम खो न जाए कहीं….. या दिल तड़प-तड़प के कह रहा है आ भी जा, तू हमसे आँख न चुरा, तुझे कसमहै आ भी जा…. ने लोकप्रियता के नए आयाम कायम किए।
संगीतकारों में मुकेश ने सबसे ज्यादा गीत शंकर-जयकिशन के लिए गाए। उनकी जोड़ी तो अमर थी लेकिन उसके अलावा उन्होंने कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में भी बहुत गीत गाए।
दर्द में आनंद की अनुभूति थे मुकेश
वैसे मुकेश ने देवानंद के लिए कोई गीत नहीं गाया लेकिन उनकी एक फिल्म बंबई का बाबू के लिए मुकेश का एक गीत जो बैकग्राउंड में फिल्माया गया था अमर हो गया हालांकि बंबई का बाबू नामक फिल्म को आज कोई याद नहीं रखता लेकिन चल री सजनी, अब क्या सोचे, कजरा न बह जाए रोते रोते अभी भी लोगों में उस दौर के दर्द गहरे स्वर का एहसास दिलाता है।
1959 मे आई फिल्म छोटी बहन जिसमें शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में उन्होंने हसरत जयपुरी के बोल को बेहद खूबसूरत तरीके से गया। यह गीत था —
जाऊं कहाँ बता ऐ दिल/ दुनिया बड़ी है संगदिल,/चाँदनी आई घर जलाने,/सूझे न कोई मंजिल….
इसी वर्ष 1959 में उन्होंने राजकपूर के लिए फिल्म कन्हैया के लिए गाया — याद आई आधी रात को,/कल रात की तौबा,/दिल पूछता है झूम के,/किस बात की तौबा….
इस फिल्म का जो गीत बहुत हिट हुआ वह बहुत हल्का-फुल्का गाना था
रुक जा ओ जाने वाली रुक जा,/मैंतो राही तेरी मंजिल का,/नज़रों में तेरी मैं बुरा सही,/आदमी बुरा नहीं मैं दिल का ….
1959 में ही मुकेश का एक गीत और बेहद लोकप्रिय हुआ जो उन्होंने राजकपूर के लिए गाया था, फिल्म थी मैं नशे में हूँ —
जाहिद शराब पीने दे,/मस्जिद में बैठ कर,/या वो जगह बता दे ,/जहाँ पर खुदा न हो,/ मुझको यारो माफ करना,/मैं नशे में हूँ…..
दरअसल दर्द मुकेश की सबसे बड़ी ताकत थी। उनके स्वर के दर्द को लोग रूह से महसूस करते थे इसलिए अगर उनके मीठे गीत थे तो उनके भी दर्द के सुर थे और कल्याणजी-आनंदजी की संगीत में वह बेहतरी से आया। 1960 में आई फिल्म दिलभी तेरा हम भी तेरे का गीत मुझको इस रात की तनहाई में आवाज न दो, आवाज न दो, आवाज न दो …जिसकी आवाजरुला दे मुझे वो साज न दो, आवाज न दो ….. अभी भी उनके सबसे खूबसूरत दर्द भरे गीतों में से एक है। हिमालय की गोदमें फिल्म के लिए उन्होंने मनोज कुमार के लिए बेहद भावपूर्ण गीत गाए। मैं तो एक ख्वाब हूँ, इस ख्वाब से तू प्यार न कर,प्यार हो जाए तो प्यार का इजहार न कर या तेरी याद दिल से भुलाने चला हूँ, मै खुद अपनी हस्ती मिटाने चला हूँ’, या चाँदसी महबूबा हो मेरी कब, ऐसा मैंने सोचा था, हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था। मनोज कुमार की फिल्म उपकार के लिए कल्याणजी-आनंदजी के निर्देशन में उन्होंने दीवानों से ये मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है गाया। कल्याणजी भाई के संगीत में उन्होंने ऐसे गीत दिए जिन्हें कोई भूल नहीं सकता। खुश रहो हर खुशी है तुम्हारे लिए फिल्म सुहागरात,चांदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया … फिल्म विश्वास, कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जबकोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए, फिल्म पूरब और पश्चिम, दर्पण को देखा, तूने जब जब किया सिंगार फिल्म उपासना,जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे और क्या खूब लगती हो, फिल्म सफर, वक्त करता जो वफा आप हमारे होते, हम भी औरों की तरह आपको प्यारे होते फिल्म दिल ने पुकारा।
अपने समकालीन कलाकारों में मुकेश की आवाज की एक सीमा थी लेकिन इसके बावजूद यह हकीकत है कि जितना उन्होंने गाया उनके हिट गानों का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। सभी गायक कलाकारों ने अपने समय में बहुत से बेहूदा और बकवास गाने गाए, लेकिन मुकेश के संदर्भ में यह कहना पड़ेगा कि अपने अंत तक ऐसे गीतों की संख्या केवल उंगली पर गिनी जा सकती थी। कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में सरस्वतीचंद्र फिल्म के लिए उनके दो गाने आज भी हमारे दिलों पर राज करते हैं — चन्दन सा बदन, चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना, मुझे दोष न देना जग वालों, हो जाऊ अगर मैंदीवाना और दूसरा गीत लता मंगेशकर के साथ फूल तुम्हें भेजा है खत में बेहद मधुर हैं। 1963 की फिल्म फूल बने अंगारे में कल्याणजी-आनंदजी ने मुकेश के साथ एक और जबरदस्त धुन बनाई। यह गीत था चाँद आहे भरेगा, फूल दिल थाम लेंगे, हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे। ऐसे कितने ही गीत हैं जो मुकेश के मीठे गले से अमर हो गए चाहे फिल्म चली हो या न चली हो।
हम छोड़ चले हैं, महफ़िल को याद आए कभी तो मत रोना फिल्म जी चाहता है,आया है मुझे अब याद वो जालिम, गुजरा-जमाना बचपन का …. फिल्म देवर, डम डम डिगा डिगा, मौसम भीगा भीगा, बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, फिल्म छलिया। इसी फिल्म का एक और खूबसूरत गीत मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे कि तेरा हाल क्या है । पुरानी फिल्म रानी रूपमती को शायद ही कोई याद रखे लेकिन इसका एक गीत मुकेश ने अमर कर दिया और वह है आ लौट केआज मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं। फिल्म संजोग 1961 में आई जिसका संगीत मदन मोहन ने दिया और राजेन्द्र कृष्ण के इस गीत में मुकेश की आवाज ने जो अभिव्यक्ति दी वो किसी दूसरे के बस की बात नहीं —
दामन में लिए बैठा हूँ,/टूटे हुए तारे,/कब तक रहूँगा मैं यूँ ही,/ख्वाबों के सहारे,/दीवाना हूँ,/अब और न दीवाना बनाओ,/अब चैन से रहने दो,/मेरे पास न आओ,/भूली हुई यादों,/मुझे इतना न सताओ
इसमें कोई शक नहीं कि गीत के बोल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन उतना ही महत्व का होता है गायक की समझ, उसके उच्चारण और बोल के भावों पर उतार-चढ़ाव का। इस गीत को सुन लीजिए या फिर 1963 मे बनी फिल्म बंदिनी के इस गीत को जिसे एस डी बर्मन ने संगीतबद्ध किया तब पता चलेगा कि दर्द में मुकेश का कोई सानी नहीं था —
दे दे के ये आवाज कोई,/हर घड़ी बुलाए,/फिर जाए जो उस पार/ कभी लौट के न आए,/है भेद ये कैसा कोई,/कुछ तो बताना,/जाने वाले हो सके तो/लौट के आना।
मुकेश की आवाज में वो कशिश थी जो उन्हे दूसरों से अलग करती थी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने दर्द के अलावा कुछ नहीं गाया। उनके अल्हड़पन के गीत भी बहुत खूबसूरत हैं। उन्होंने जो भी गाए, उनमें एक मिठास थी, एहसास था। मुकेश का यह एहसास का पक्ष बहुत ताकतवर रहा है और इसीलिए बहुत बड़े-बड़े क्लासिकल संगीत के दिग्गज गायकों के बावजूद, बहुत कम गाने पर भी, उन्हें लोग आज भी भारत के तीन सर्वश्रेष्ठ गायक कलाकारों में एक मानते है, ये हैं — मोहम्मद रफी मुकेश और किशोर कुमार।
मुकेश ने जो युगल गीत गाए वे भी बेहद मिठास लिए हुए हैं। लता मंगेशकर के साथ उनके अधिकांश युगल गीत बेहद हिट हुए। राजकपूर की फिल्मों के लिए तो उनके बहुत सारे युगल गीत हिट हुए ही लेकिन बाद के दौर में भी सुनीलदत्त, मनोज कुमार, जितेंद्र, धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना जैसे नायकों के लिए भी उन्होंने बहुत ही मीठे और भावपूर्ण नगमे दिए। सुनीलदत्त और नूतन की फिल्म मिलन का सावन का महीना पवन करे शोर तो आज भी सबसे लोकप्रिय गीतों में है लेकिन इसी फिल्म का दूसरा गीत सीधे दिल पर उतर जाता है वह है — राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निंदिया तोहे मिल जाए, मै जागू तू सो जाए’।
1972 में आई फिल्म शोर के लिए संतोष आनंद द्वारा लिखित एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी औरकुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है को मुकेश की दिल छू लेने वाली आवाज ने अमर कर दिया। इसमे कोई शक नहीं कि संतोष जी ने इस गीत में पूरे जीवन का मंत्र भर दिया पर मुकेश की दिलकश वाणी ने इसे और अधिक अमर कर दिया। जब भी इस गीत की धुन बजती है और मुकेश का स्वर आता है तो वह क्षण सबकी आँखों मे आँसू ला सकता है।
तू धार है नदिया की/मैं तेरा किनारा हूँ/तू मेरा सहारा है/मैं तेरा सहारा हूँ/आँखों में समंदर है/आशाओं का पानी है/ज़िंदगी और कुछ भी नहीं/तेरी मेरी कहानी है/एक प्यार का नगमा है….
मुकेश के युगल गीत लता मंगेशकर के अलावा आशा भोंसले और गीतादत्त के साथ भी हैं। लता के साथ, एक मंजिल राहीदो, फिर प्यार न कैसे हो …. जाने न नजर, पहचाने जिगर, ये कौन जो दिल में समाया, मुझे रोज-रोज तड़पाया…. आ जा रे अब मेरा दिल पुकारा, रो-रो के गम भी हारा, बदनाम न हो दिल मेरा…
आशा भोंसले के साथ मुकेश ने कुछ बेहद खास गीत गाए। 1961 में आई फिल्म कांच की गुड़िया में साथ हो तुम और रातजवाँ…. आपके दिल में प्यार की ताकत का अहसास कराता है। 1961 की ही फिल्म प्यार का सागर का टाइटल सॉन्ग भी आशा जी के साथ गया है। 1961 में शंकर-जयकिशन के संगीत में जंगली का गाना नैन तुम्हारे मजेदार, ओ जनाब ए आली आदि हैं।
ऐसे ही गीतादत्त के साथ उनके कुछ गीत बेहद लोकप्रिय हुए। 1950 की फिल्म बावरे नैन में खयालों में किसी के इस तरहआया नहीं करते, किसी को बेवफा आ-आ के तड़पाया नहीं करते, 1960 की फिल्म अपना घर में , तुमसे ही मेरी जिंदगीमेरी बहार तुम, अपने ही दिल से पूछ लो, किसका हो प्यार तुम आदि हैंI इतने युगल गीतों के बावजूद मुकेश सबसे अच्छे और भावपूर्ण अपने एकल गायन में लगते है, हालांकि युगल गीतों में भी उन्होंने अपने दिल से गाया है।
एक हकीकत यह है कि बंबई सिनेमा में मुकेश के स्वर से सबसे खूबसूरत और अमर गीत निकले और यह मान सकते हैं कि कोई दूसरा कोई उन्हें नहीं गा सकता था। उनकी तमाम सीमाओं के बावजूद मुकेश की आवाज में जो कशिश और दर्द था वह एक सुखद अनुभूति देता था। वह हर रोमांस के अंदर एक अलग किस्म की मिठास पैदा करता था। कभी-कभी के लिए खैय्याम के संगीत निर्देशन में उनके गीत आज तक संगीत के शिखर पर हैं।
कभी कभी मेरे दिल मे/ख्याल आता है,/कि जैसे तुझको बनाया गया है/मेरे लिए….
और साहिर के इन खूबसूरत बोलों को मुकेश ने कैसे अमर किया देखिए —
कल और आएंगे,/सुख दुख की/मीठी कालिया चुनने वाले,/मुझसे बेहतर कहने वाले,/तुमसे बेहतर सुनने वाले,/कल कोई मुझको याद करे,/क्यों कोई मुझको याद करे,/बेदर्द जमाना मेरे लिए,/क्यूँ वक्त अपना बर्बाद करें/मैं पल दो पल का शायर हूँ,/पल दो पल मेरी कहानी है,/पल दो पल मेरी हस्ती है,/पल दो पल मेरी जवानी है ….
भावपूर्ण गीत गाने में मुकेश का कोई सानी नहीं था। शैलेन्द्र भी उस बात को जानते थे और राजकपूर भी। शैलेन्द्र की फिल्म तीसरी कसम में उन्होंने जो गीत गाये वे आज भी हमारे होंठों पर हैं —
दुनिया बनाने वाले,/क्या तेरे मन मे समाई,/काहे को दुनिया बनाई
या
तुम्हारे महल चौबारे,/यही रह जाएंगे प्यारे,/अकड़ किस बात की प्यारे,/अकड़ किस बात की प्यारे,/ये सर फिर भी झुकाना है,/सजन रे झूठ मत बोलो,/खुदा के पास जाना है,/न हाथी है, न घोड़ा है,/वहाँ पैदल ही जाना है । इसी फिल्म में जो अन्य गीत हमारे दिलों पर उतरा वो था विरह का गीत —
सजनवा बैरी हो गए हमार,/चिठिया हो तो बाँचे कोई,/भाग न बाँचे कोय,/करमवा बैरी हो गए हमार …
1958 में राजकपूर की आर के बैनर्स से बाहर की फिल्म फिर सुबह होगी में गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे और म्यूजिक खैयाम का था जिसके गीतों को मुकेश ने इतनी संजीदगी और भावपूर्ण तरीके से गाया कि वे आज भी हमारे होंठों पर होते हैं। साहिर की खूबसूरत नज़मों को मुकेश के सुरीले गले ने अमर कर दिया और ये गीत आज भी हमें उम्मीद देते हैं। वोसुबह कभी तो आएगी हर दौर के लिए एक आशा का संदेश देने वाला गीत बना। हमारे समाज की हकीकत को बयाँ करता एक और गीत था —
चीनो अरब हमारा,/हिंदोस्ता हमारा,/रहने को घर नहीं है/सारा जहाँ हमारा।
मुकेश ने एक हजार के लगभग गीत गाए जो उनके समकालीन कलाकारों की तुलना में बहुत कम है, लेकिन जो भी गीत उन्होंने गाए वो क्वालिटी गीत थे और उनमें उन्होंने अपना पूरा जिगर खोल के रख दिया इसलिए उनके हिट गीतों का प्रतिशत ज्यादा है।
राजेश खन्ना के उस दौर में जब वे किशोर कुमार का ही गाना लेते थे तब मुकेश ने अपनी आवाज से ऐसे गीत दिए कि कोई उन्हें भुला नहीं सकता। फिल्म आनंद में योगेश के गीतों को सलिल चौधरी के संगीत में जिस प्रकार मुकेश ने गाया वह अप्रतिम है और फिल्म की सफलता में इसके गीतों का बहुत बड़ा योगदान है। मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने,सपने सुरीले सपने और कहीं दूर जब दिन ढल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए।
1968 में आई अनोखी रात फिल्म का संजीव कुमार पर फिल्माया गीत ओ रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागरमें, सागर मिले कौन से जल में, कोई जाने ना हो या 1967 में जितेंद्र की बूंद जो बन गए मोती फिल्म का भरत व्यास का लिखा ये दिल को छू लेने वाला गीत —
हरी-हरी वसुंधरा पे,/नीला-नीला ये गगन,/कि जिसके बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन,/दिशाएं देखो रंगभरी/चमक रहीं उमंग भरी/ये किस ने फूल-फूल पे किया सिंगार है/ये कौन चित्रकार है/ये कौन चित्रकार है/ये कौन चित्रकार है…
ऐसा ही एक अन्य खूबसूरत गीत जिसे मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा और मुकेश की आवाज ने अमर कर दिया — तारों में सजके, अपने सूरज से/ देखो धरती चली मिलने
मुकेश की आवाज ने हम सबको प्रभावित किया। शैलेन्द्र और राजकपूर के लिए उन्होंने जो गाया वो गीत उनकी आवाज के बिना वैसे ही रहते शायद कहना मुश्किल होगा। लेकिन एक बात सत्य है कि मुकेश की गहरी आवाज, जिसे पहले लोग ये कह देते थे कि नाक से गाया है, उनकी सबसे बड़ी ताकत बनी।उनका भोलापन और सादगी उनके गानों में झलकती है। राजकपूर की फिल्म धरम करम का ये गीत आज भी हम सबको जीवन का संदेश देता है—
एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल,/जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल/दूजे को होंठों को देकर अपने गीत,/कोई निशानी छोड़, फिर दुनिया से डोल….,
मुकेश हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपने गीतों से वो हमें प्यार और आशा का संदेश देते रहते हैं। मुकेश कभी मरते नहीं हैं, वे तो लोगों को जीवन देते हैं। भारतीय क्रिकेट की स्पिन तिकड़ी के सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ भागवत चंद्रशेखर कर्नाटक से आते थे और हिन्दी से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था लेकिन मुकेश की आवाज का जादू इतना था कि चंद्रशेखर उनके गानों से नई ऊर्जा लेते थे। मुकेश के निधन के बाद चंद्रशेखर की भी खेल मे दिलचस्पी कम हो गई और उन्होंने खेल से अवकाश ले लिया। मुकेश की मधुर आवाज ने हम सबको संगीत के जरिए जीने की कला दी, निराशा में आशा का संचार किया। ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने दिल से गाया और लोगों ने उन्हे सर-आँखों पर बिठाया। मुकेश ऐसे ही थे और अपने गीतों के जरिए हमेशा हमारे बीच रहेंगे — कल खेल में हम हों न हों,/गर्दिश में तारे रहेंगे सदा,/भूलेंगे वो ,भूलोगे तुम/ पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा/रहेंगे यहीं अपने निशां/इसके सिवा जाना कहाँ
नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्रतिष्ठित नायको में से एक हैं। आज भी, उनके साहसिक और देशभक्ति से भरे किस्से सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हालांकि, भारतीय राजनीतिक वर्ग ने उनके विचारों और उद्देश्यों के विषय में हमेशा भ्रम की स्थिति रखी जिसके परिणामस्वरूप दक्षिणपंथी 'कथावाचकों' द्वारा उनके विचारों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई है। नेताजी भाररतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे जीवंत पक्ष की और इशारा करते हैं लेकिन उनके जापान और जर्मनी जाने के फलस्वरूप 'उदारवादी' ओर 'वामपंथी' दोनों ही किस्म के इतिहासकारों ने उनके संघर्ष को इतिहास के पन्नो से गायब करने की कोशिश की है. आज इतने वर्षो बाद लोगो के केवल उनके बलिदान को याद करने को कहा जाता है लेकिन उनके जीवन मूल्यों को गायब कर दिया गया है. खैर, इन प्रश्नों पर मै कभी विस्तार पूर्वक बात रखूंगा लेकिन इस समय तो केवल लेफ्टिनेंट आशा सहाय चोधरी और उनकी वार डायरी को याद करने का है. आशा जी का गत १३ अगस्त २०२५ को पटना के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया. वह ९७ वर्ष की थी.
आशा जी को हम 'नेताजी के एक अनुयायी और रानी झांसी रेजिमेंट की सदस्य के रूप में जानते हैं और अधिकांश लोगो को वह आशा सान या लेफ्टिनेंट भारती आशा सहाय के नाम से जाना जाता है. बात यह नहीं थी की उन्होंने १५ वर्ष की आयु में नेताजी से मिलकर आज़ाद हिन्द फौज में शामिल होने की इच्छा ब्यक्त की अपितु १९४३ से १९४७ के मध्य यानी जिस दौर में नेताजी जापान में थे और अपने जीवन और हमारे इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण कालखंड में थे, उसके महत्वपूर्ण पालो को हर रोज एक डायरी के तौर पर आशा जी ने लिखा और सहेज कर रखा. आशा जी पटना में रहती थीं मैं उनसे मिलना चाहता था, लेकिन मुझे कभी नहीं पता था कि वे पटना में रह रही थीं और अभी जीवित थीं। फिर भी, मैं उन्हें उनकी युद्ध डायरी 'द वॉर डायरी ऑफ आशा-सान' के माध्यम से याद करता हूँ, जो 2022 में हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित की गई थी और इसका अंग्रेजी अनुवाद तन्वी श्रीवास्तव ने किया था। ये डायरी बेहद महत्वपूर्ण है जो नेताजी के अंतिम दिनों और जापान के सरेंडर के बाद वहा मौजूद हालातो की जानकारी देता है.
आशा सान की युद्ध डायरी वास्तव में नेताजी के अंतिम दिनों के बारे में रहस्य बनाए रखने वालों और जवाहरलाल नेहरू द्वारा उनके करीबी लोगों के साथ किए गए व्यवहार के बारे में कई बातें उजागर करती है। सबसे आकर्षक हिस्सा 1945 में जापान के आत्मसमर्पण के तुरंत बाद की स्थिति और नेताजी के निधन की खबर का जीवंत वर्णन है, जिसे आज तक जनता ने स्वीकार नहीं किया है, हालांकि नेताजी के परिवार के अधिकांश लोगो ने 18 अगस्त, 1945 को उनकी 'गायब होने' की तारीख को ही उनके निधन के रूप में स्वीकार कर लिया है जिसमे उनके पुत्री अनीता बोस फाफ भी शामिल है. यह युद्ध डायरी वास्तव में 1943 से 1947 तक की अवधि को कवर करती है और इसमें उल्लिखित कई बातें भारत के साहित्य और इतिहास के क्षेत्र को लोगो में अनजानी ही रही है. आश्चर्य की बात यह है की नेताजी की मृत्यु को रहस्यात्मक बनाने में सरकार और राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा योगदान है लेकिन अब इस बात से पर्दा हटाकर उनकी पवित्र रख को जापान से भारत लाने की बात करनी चाहिए.
आशा जी की डायरी के अनुसार, उन्होंने 23 अगस्त, 1945 की सुबह नेताजी की मृत्यु की खबर सुनी, लेकिन उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया। उनके अनुसार, उन्होंने नेताजी का 14 अगस्त को दिया गया भाषण सूना था, जिसमें उन्होंने कहा था, "कॉमरेड, शोनन और अन्य जगहों पर अब तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं, जिनमें से एक यह है कि युद्धविराम हो गया है। इनमें से अधिकांश अफवाहें या तो झूठी हैं या बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण हैं।"
15 अगस्त, 1945 को नेताजी ने कहा, "हमारे देश की आजादी के लिए हमने कई बाधाओं का सामना किया है और आगे भी करते रहेंगे। हमारा संघर्ष इसलिए खत्म नहीं होता क्योंकि जापान ने सफेद झंडा उठा लिया है या परमाणु बम गिराए गए हैं। दिल्ली तक जाने के कई रास्ते हैं और हमें अपने कर्तव्य को कभी नहीं भूलना चाहिए। हमें देशभक्त के रूप में अपने कर्तव्य को दृढ़ता के साथ पूरा करना होगा।"
फिरलेकिन धीरे धीरे आज़ाद हिन्द फौज और सरकार के सभी लोगो ने उनकी मृत्यु को स्वीकार कर लिया और उसकी जानकारी के विषय में आशा जी ने अपनी डायरी में जीवंत रूप से वर्णन किया गया है कि कैसे लोगों ने उनके निधन की दुखद खबर को स्वीकार किया। दुखद बात यह है कि आज तक भारत सरकार ने नेताजी के निधन को स्वीकार नहीं किया है, भले ही उनके अधिकांश परिवारजनों ने 18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना की कहानी को स्वीकार कर लिया है।
आशा का जन्म 2 फ़रवरी 1928 में जापान के शहर कोबे में हुआ था। उनके पिता आनंद सहाय भागलपुर से थे और डॉ. राजेंद्र प्रसाद और महात्मा गांधी के साथ जुड़े हुए थे। बाद में वे जापान में रास बिहारी बोस के संपर्क में आए और इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के गठन में मदद की। इस प्रकार आनंद सहाय इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के संस्थापक सचिव बने. नेताजी सुभाष चंद्र बोस जापान पहुंचे, तो आनंद सहाय उनके करीबी हो गए और नेताजी द्वारा गठित आजाद हिंद की अस्थायी सरकार का हिस्सा बने। उनकी मां सती सेन सहाय देशबंधु चित्तरंजन दास की भतीजी थीं। अपने परिवार के सदस्यों की तरह आशा भी नेताजी से बहुत प्रभावित थी और आजाद हिन्द फौज का हिस्सा बनना चाहती थी लेकिन १५ वर्ष की आयु में नेताजी ने उन्हें आजाद हिन्द में शामिल करने के इनकार कर दिया और दो वर्ष इंतज़ार करने को कहा. फिर मै १९४५ में वह नेताजी से फिर से जापान में मिली तो उन्हें आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त हुआ था और तब से वह लेफ्टिनेंटभारती आशा सहाय के नाम से जानी जाने लगी. अपने जीवन के लगभग १९ वर्ष उन्होंने जापान में व्यतीत किये इसलिए उनकी मात्र भाषा जापानी ही थी हालाँकि वह हिंदी से भी अच्छे से वाकिफ थी क्योंकि आज़ाद हिन्द फौज की नीति भी हिन्दुस्तानी को आगे बढाने की थी.
लेफ्टिनेंट आशा सेन सहाय ने एक प्रेरणादायक जीवन जिया और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपनी युद्ध डायरी के माध्यम से हमारे राष्ट्रीय इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय को, जो औपनिवेशिकता के खिलाफ हमारे संगर्ष का एक बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसे अक्सर इतिहासकारों ने नजरंदाज किया है। हमें इतिहास को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखने की जरूरत है, न कि केवल अपनी स्थिर दृष्टि से जो सत्ताधारियो की अवसरवादिता के अनुसार हो.
आजाद हिन्द सरकार और फौज के अधिकांश सदस्य जापान और सिंगापूर में गिरफ्तार किये जा चुके थे और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और विशेषकर जवाहर लाल नेहरु के प्रयासों और हस्तक्षेप के बाद वे रिहा किये गए. इनमे से बहुत से लोगो को नेहरु ने विभिन्न पदों और मंत्रालयों में महत्वपूर्ण हिम्मेवारिया दी. इस पर कभी बाद में चर्चा करूंगा.
मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आदर्शवाद को अपनाने से भारत को बहुत लाभ होगा। वे शानदार विचारों और राष्ट्र के प्रति गहरी निष्ठा के व्यक्ति थे। हमारे समय में कोई अन्य राजनीतिक हस्ती ऐसी नहीं थी, जिसने अपने द्वारा बनाई गई हर संरचना में इतनी विविधता को शामिल किया हो। नेताजी की आजाद हिंद सरकार वास्तव में विविधता की शक्ति को दर्शाती थी। उनका समाजवाद का दृष्टिकोण भी हम सभी के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है।
,लेफ्टिनेंट भारती आशा सेन सहाय को हमारी विनम्र श्रीधांजलि.
क्या पर्वतीय क्षेत्रो को अनुसूची ५ या ६ में डालकर उनके विशेष चरित्र को बचाया जा सकता है ?
विद्या भूषण रावत
5 अगस्त, 2025 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में धराली गांव को पूरी तरह से बहा ले जाने वाली हिमस्खलन ने भारत में मीडिया को गंभीर रूप से ध्रुवीकृत वर्ग के रूप में उजागर कर दिया है. साथ ही विभिन्न पार्टियों की राजनीतिक नेतृत्व को भी, जो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे यह पहली बार हुआ है और दोबारा नहीं होगा। एक तरफ 'राष्ट्रीय मीडिया' है, जिसे मैं हमेशा जातिवादी मनुवादी मीडिया कहता हूं, जो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी का मुख पत्र या प्रचार तंत्र के तौर पर व्यवहार कर रहा है और इस घटना को 'पीपली लाइव' की तरह दिखा रहा है क्योंकि सामूहिक विनाश की लाइव कहानियां भी इन लाभ कमाने वाली कंपनियों के लिए टीआरपी लाती हैं। इन दिनों प्रचार मीडिया को हमेशा राष्ट्रीय मीडिया पर प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वे सभी सुविधाओं के साथ जाते हैं और राज्य तंत्र भी उनका ख्याल रखता है ताकि वे 'ब्रेकिंग न्यूज' प्रसारित कर सकें। फोकस ज्यादातर 'एक्शन' को लाइव प्रसारित करने पर होता है। ज्यादातर समय, हम जेसीबी मशीन काम करते हुए या सेना के हेलीकॉप्टर लोगों को ले जाते हुए देखते हैं और फिर लोग सरकार और अधिकारियों को 'सहायता' प्रदान करने के लिए धन्यवाद देते हैं। इसलिए, सब कुछ इतना प्रभावशाली बना दिया जाता है कि किसी के पास सरकार से कोई भी प्रश्न पूछने का समय नहीं होता। निश्चित रूप से, यह अच्छा है कि सरकार लोगों को राहत प्रदान करने के लिए रात दिन एक कर रही है, लेकिन लापता या मृत लोगों की सटीक संख्या का अधिकारिक आंकडा अभी तक क्यों नहीं आ पाया है। सरकार स्थानीय मीडिया को घटना को कवर करने की अनुमति क्यों नहीं दे रही है। यह 'राष्ट्रीय' मीडिया को सभी 'सेवाएं' खुशी से क्यों प्रदान कर रही है। वास्तव में, देहरादून में स्थित कुछ 'स्थानीय' मीडिया को भी ऊपर से वीडियो शूट करने का अवसर मिला, लेकिन इस पूरे समय में, सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वे लोग निभा रहे हैं जिन्हें हम 'यूट्यूबर' कहते हैं, जिन्हें बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया है, लेकिन यह वे हैं जिन्होंने पूरे क्षेत्र की अनसुनी कहानियों को लाने के लिए कठिन इलाके में पैदल यात्रा की। उन्होंने उत्तरकाशी से धराली तक खतरनाक परिस्थितियों में चलकर रिपोर्टिंग की। इनमें से अधिकांश साथी 'पत्रकार' भी नहीं कहलाते। वे उत्तरकाशी से धराली तक पैदल पहुंचने के अपने साहसी प्रयासों के लिए प्रशंसा के पात्र हैं, खासकर जब बारिश जारी रही और राष्ट्रीय राजमार्ग नाम मात्र का रह गया और पूरी तरह से भागीरथी में समा गया। इन सोशल मीडिया रिपोर्टरों या प्रभावकों ने कथित राष्ट्रीय पीआर एजेंटों की तुलना में कहीं बेहतर रिपोर्टिंग की है, जिनके पास सरकार और अधिकारयो से प्रश्न पूछने का समय नहीं था। बल्कि, हर मीडिया हाउस हमें बता रहा है कि उनके रिपोर्टर 'धराली' पहुंचने वालो में सबसे 'पहले' थे। एकमात्र असुविधाजनक प्रश्न जो पूछा जा रहा है, वह यह है कि स्थानीय लोगों ने नदी के किनारे पर कब्जा कर घर और होटल बनाए और इसलिए यह हादसा हुआ। सरकार की नीतियों के बारे में कुछ नहीं जो इस तरह की मास टूरिज्म को बढ़ावा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप इस तरह का निर्माण हुआ। सवाल यह भी की ऐसे निर्माणों को अधिकृत करने के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या ऐसे निर्माण की अनुमति देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी? क्या सरकार के हलकों में जलवायु संकट की बढ़ती चुनौती के बारे में कोई बहस है और हमें जलवायु अनुकूल समाधानों की आवश्यकता क्यों है। क्या वे हमारे पहाड़ो की भारी ड्रिलिंग और खुदाई पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं? क्या इस पर बहस होगी कि हमारी नदियों की क्या स्थिति है ? ये भी महत्वूर्ण है कि आखिर 'विकास की गंदगी' कहां जा रही है? यानि विकास से जो मलबा निकल रहा है उसका निष्पादन कैसे हो रहा है ? क्या वो हमारी पवित्र नदियों में नहीं फेंका जा रहा है ? क्या हम व्यवसायिक धार्मिक पर्यटन पर कोई चिंतन करेंगे कि आखिर एक समय में उत्तराखंड कितने लोगो को संभाल सकता है. आखिर हमारे पर्वतीय क्षेत्र एक समय में कितने लोगो या भक्तो को झेल पाएंगे इसके लिए क्या कोई सीमा घोषित की गयी है ? चारधाम से अब कितने टन मानव मल और अन्य कचरा बहता है? इन पर एक निष्पक्ष चर्चा की कल्पना करें। कोई भी उत्तराखंड और चारधाम के धार्मिक महत्व को नकार नहीं सकता, लेकिन उसका सम्मान किया जाना चाहिए। कोई भी योजना चाहे धार्मिक हो या गैर-धार्मिक, पर्यटन हो या विकास, स्थानीय परंपराओं, भावनाओं के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रश्नों की अनदेखी करके आगे नहीं बढनी चाहिए। आप धर्म के नाम पर मास टूरिज्म को बढ़ावा नहीं दे सकते जो क्षेत्र की पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी को और अधिक बोझिल और बाधित कर रहा है । हमें समझना चाहिए कि ये क्षेत्र केवल धार्मिक महत्व के नहीं हैं बल्कि भारत की जीवन रेखा भी हैं। हिमालय हमारी नदियों का श्रोत है और गंगा हमारी विरासत है जो हिमालय को सुंदरबन से जोड़ती है। इसके अलावा, उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है और एक नहीं बल्कि दो देशों- चीन और नेपाल के साथ जिससे इस क्षेत्र का सामरिक महत्त्व और भी अधिक हो जाता है.
धाराली की त्रासदी से बहुत से सवाल खड़े हो गए हैं जिन पर सार्थक विमर्श की आवश्यकता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह की आखिर मौसम के पूर्वानुमान में ऐसी खतरनाक घटनाओं की जानकारी क्यों नहीं प्राप्त हो रही है। हालांकि 2013 में केदारनाथ तबाही के बाद, हमने बहुत शोर सुना लेकिन कुछ भी ज्यादा नहीं हुआ सिवाय मौसम के बारे में कुछ चेतावनी संदेशों के। लेकिन ग्लेशियल झील के फटने या क्लाउड बर्स्ट की संभावना के बारे में लोगों को अग्रिम चेतावनी देने में यह क्यों विफल रहा। अधिकारियों ने खीरगाड़ के ऊपरी हिस्सों में संभावित ग्लेशियल झील के गठन की पप्रारंभिक जानकारी प्राप्त करने में क्यों सक्षम नहीं हो सके। वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी गई। निश्चित रूप से इस झील का गठन एक दिन की बात नहीं थी? क्या इसे उत्तराखंड हिमालय के आसपास विशेषज्ञों की टीम द्वारा नियमित रूप से मॉनिटर नहीं किया जा सकता. क्या उत्तराखंड और अन्य हिमालयी क्षेत्रो में इस प्रकार की घटनाओ की पुनरावृति रोकने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय नहीं ली जा सकती या उन्हें इस कार्य को सेना के हेलीकॉप्टरों के माध्यम से लगातार मॉनिटर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती ? सैटेलाईट के फोटो महत्वपूर्ण हैं लेकिन सरकार को इसे स्थानीय स्तर पर भी करना चाहिए। यह घटना हमें फरवरी 2021 की ऋषिगंगा-धौलीगंगा तबाही की याद दिलाती है जिसमें एक पावर प्रोजेक्ट के साथ-साथ उसमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर बह गए।
वास्तव में, धराली की घटना 'होने का इंतजार' कर रही थी. यह न तो पहली है और न ही आखिरी, जिसका मतलब है कि हमने अतीत की घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखा और शायद हम अब भी कुछ नहीं सीखेंगे। हर कोई होम स्टे बनाना चाहता है। बड़ी संख्या में रिजोर्ट भी बनने शुरू हो गए हैं। हमारे गाँव गदेरो, नालो में बड़े होटल और रिजोर्ट आ चुके हैं. जहा हुम नहीं पहुँच पाए वहा दिल्ली का लाला पहुँच गया है . सभी उत्तराखंड में आने वाले टूरिस्ट को देख रहे हैं और ऐसे जगहों पर बनाये जा रहे हैं जो बिलकुल अलग थलग हैं ताकि आगंतुको को 'आराम' दिया जा सके. उसके ऊपर जब करोड़ों लोग यात्रा के लिए राज्य में उमड़ पड़ेंगे तो छोटे बड़े होटलों और होमस्टे की जरुरत तो पड़ेगी ही. इसके लिए जिसके पास थोड़ा भी जगह है वो वहा पर होम स्टे बनाने की सोचता है. सरकार भी इसे ब्यापार और स्किल डेवलपमेंट का मॉडल सोचकर आगे बढ़ा रहे है. आखिर जब पर्यटकों के लिए सस्ते दरो पर यही सब चाहिए तो लोग अपने घर के ही आस पास की जमीन हथियाएँगे. उत्तराखंड का पर्यटन बारह मासा तो है नहीं. असल में मुश्किल से दो तीन महीने ही ये होता है और बारिस के बाद तो यात्री वहा रहते नहीं. दुसरे, धार्मिक पर्यटन ऐसा नहीं है जैसे वर्ल्ड कप फूटबाल के पर्यटक जो जहा जाते हैं खूब मस्ती करते हैं और खर्च भी करते हैं. यहाँ जिस राज्य से पर्यटक आते हैं वे उसी राज्य के ढाबे में जाना पसंद करते हैं. पंजाब से सबसे अधिक लोग आ रहे हैं लेकिन पता कीजिये की आम ढाबो में कितना खा रहे हैं ? धार्मिक पर्यटन होना चाहिए लेकिन पर्यटकों की सीमा निर्धारित होनी चाहिए और उसे व्यापार में बदलने की कोशिश ही उत्तराखंड में ये तबाही ला रही है.
आज हम इन तथाकथित आपदाओं के कारणों और समाधानों पर चर्चा नहीं करते। इसके बजाय तथाकथित मीडिया अन्य त्रासदी को भी एक भव्य तमाशा बनाने की कोशिश करते हैं जिसमे फोकस कार्य कर रहे अधिकारियो , भारी मशीनरी, हेलीकॉप्टरों का उपयोग लोगों को ले जाने के लिए, स्निफर डॉग्स, बड़े नेता दौरा करते हुए आदि। ऐसा करते समय वे भूल भी जाते हैं की उनकी रिपोर्टिंग राहत का कार्य कर रही संस्थाओं के काम में बाधा डाल रहा होता है. बहुत से 'मीडिया कर्मी' और दिल्ली में उनक चैनलों के मार्केटिंग एजेंट बेशर्मी से येही बताते रहते हैं कि ;घटनास्थल; पर पहुँचने वाले वह पहले व्यक्ति है और उनका पहला काम सरकारी तंत्र के साथ जुगाड़ लगना होता है. अधिकारियों को भी पता है कि किसी खबर से वे 'राष्ट्रीय' चैनल पर होते हैं इसलिए वे भी इनकी आवभगत में लग जाते हैं. मीडिया फिर व्यवस्था का हौव्वा खडा कर धीरे धीरे 'संवेदनशील' होने का प्रयास करता है. फिर परिवारों से प्रश्न होते हैं : 'घटना कैसे घटी', क्या हुआ और कौन खो गया के बारे में पूछते हैं लेकिन उनकी कोई सहायता या उनके साथ क्या होगा के बारे में नहीं। कोशिश होती है कि थोड़ा सहानुभूति दिखाकर बड़े प्रश्नों को गायब कर दिया जाए. इसलिए ये कोई नहीं पूछता की इतने दिनों तक बड़े अधिकारी यहाँ क्यों नहीं पहुंचे.
आज एक मित्र से धराली में बात हो रही थी और वह कह रहे थे कि यहाँ पर अब खाने पीने या रोजमर्रा की आवश्यकता वाली वस्तुओ की जरुरत नहीं है क्योंकि वो बहुत आ चुके हैं. अब आवश्यकता है लोगो को ढूंढ निकालने की, मृतकों और लापता लोगो के सही आंकड़ो की और लोगो की जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की. लोगो का सभी कुछ समाप्त हो चुंका है, उनकी चिंता तो यही है की आखिर जिंदगी को पटरी पर वापस कैसे लायें. सब जानते हैं कि दान के सहारे तो बहुत दिनों तो नहीं ज़िंदा रहे सकते हैं. लोगो ने मेहनत से अपने सपनो के आशियाने बनाए थे इसलिए उसे दोबारा लाने के लिए प्रयास करने होंगे.
दुर्भाग्यवश, ऐसे प्रश्न अब सत्ता से नहीं पूछे जाते कि लोग वहां अपना जीवन कैसे बनाएंगे। क्या उन लोगों के पुनर्वास की कोई योजना है जिन्होंने सब कुछ खो दिया या सरकार अपनी औद्योगिक, पर्यावरणीय या पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित अन्य नीतियों को बदलेगी। यही कारण है कि मीडिया को मालिक की सेवा में लगा दिया जाता है ताकि ये असुविधाजनक प्रश्न दबे रहें। उत्तराखंड की आपदाएं केवल प्राकृतिक नहीं हैं बल्कि विकास के नाम पर अपनाई जा रही लापरवाह विनाशकारी नीतियों का परिणाम भी हैं। क्या वह मॉडल टिकाऊ है? क्या हमें अपने पवित्र पर्वतों और नदियों की रक्षा और सम्मान के बारे में जोर से सोचना नहीं चाहिए। मैंने कई बार कहा है और कहता रहूंगा, ये पर्वत और नदियां, हमारे पहाड़, हमारी गंगा-गाड़-गदेरा हमारी पहचान और विरासत हैं, निश्चित रूप से उपयोग करने के लिए संसाधन नहीं। उन्हें संसाधन मानना बंद करें और अपनी व्यावसायिक लालच के लिए उनका शोषण करना बंद करें।
कुछ दिन पहले, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए एक कड़ी चेतावनी जारी की: “वह दिन दूर नहीं जब हिमाचल प्रदेश का पूरा राज्य देश के नक्शे से गायब हो सकता है।” अदालत ने ये बात साफ़ तौर पर कही कि हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण के मानको के अनुसार ही कार्य करने की आवश्यकता है. पिछले कुछ वर्षो से हिमाचल प्रदेश में भयानक तबाही हुई लेकिन अभी तक उस पर कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है क्योंकि इस तबाही के पीछे केवल मौसम नहीं है अपितु सीमेंट और कंक्रीट के बड़े बड़े महल, होटल रिसोर्ट आदि और राज्य में जल विद्युत् परियोजनाओं की बढती संख्या.
हिमाचल प्रदेश को 2025 में मानसून से संबंधित आपदाओं से भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। राज्य आपातकालीन संचालन केंद्र के अनुसार, राज्य ने 20 जून, 2025 को मानसून शुरू होने के बाद से ₹1,539 करोड़ का नुकसान उठाया है। इसमें 94 मौतें, 36 लापता, और वर्षा से संबंधित घटनाओं में 1,352 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त शामिल हैं (इंडियन एक्सप्रेस, अगस्त 2025)। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट और भी गंभीर चित्र प्रस्तुत करती है, जिसमें 2 अगस्त, 2025 तक 173 मौतें, 37 लापता, और 115 घायल नोट किए गए हैं, जिसमें 6 जुलाई, 2025 तक 23 फ्लैश फ्लड और 19 क्लाउडबर्स्ट दर्ज किए गए हैं (एनडीटीवी, 2 अगस्त, 2025)। अधिकांश मौतें वर्षा से संबंधित थीं, जिसमें मंडी, कुल्लू और कांगड़ा जिलों ने सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, जहां 243 सड़कें अवरुद्ध थीं, 241 बिजली ट्रांसफार्मर बाधित थे, और 278 जल आपूर्ति योजनाएं गैर-कार्यात्मक हो गईं जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में है, 7 जुलाई, 2025)।
उत्तराखंड, जो अक्सर आपदाओं की आवृत्ति में हिमाचल से प्रतिस्पर्धा करता है, ने 4 जुलाई, 2025 तक 70 मौतें दर्ज कीं, जिसमें 20 प्राकृतिक आपदाओं (भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट और बाढ़) से और 50 सड़क दुर्घटनाओं से, 9 लापता (ज्यादातर उत्तरकाशी में) और 177 घायल (टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 जून, 2025)। पिछले कुछ हफ्तों में क्लाउड बर्स्ट और भूस्खलन की घटनाएं लगातार आ रही हैं जिसके परिणामस्वरूप चारधाम यात्रा कई दिनों तक बाधित रही लेकिन अब धाराली आपदा ने सब कुछ पीछे छोड़ दिया है। यह अभूतपूर्व है लेकिन हम सभी के लिए एक जागृति कॉल है। अब तक हमें मरने या लापता लोगों की सटीक संख्या नहीं पता है। असल में धराली के साथ अन्य बहुत से स्थानों पर भी इसी प्रकार की स्थितिया हैं लेकिन मीडिया को दूसरे स्थानों पर जाने का समय नहीं है.
अनियंत्रित पर्यटन: एक सांस्कृतिक और पर्यावरणीय खतरा
दोनों हिमालयी राज्य, जिनकी छवि को देवभूमि के रूप में गढ़ा गया है आज मास टूरिज्म के बोझ तले कराह रहे हैं। उत्तराखंड ने 4 जुलाई, 2025 तक 3.96 करोड़ पर्यटकों का स्वागत किया, जिसमें 3.94 करोड़ घरेलू और 1.66 लाख अंतरराष्ट्रीय आगंतुक शामिल हैं, जिसमें चारधाम यात्रा के लिए 34.07 लाख तीर्थयात्री पंजीकृत हैं (13.58 लाख केदारनाथ, 11.52 लाख बद्रीनाथ, 4.97 लाख गंगोत्री, 3.99 लाख यमुनोत्री) (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025; आउटलुक इंडिया, 16 मई, 2025)। हिमाचल प्रदेश ने जुलाई 2025 तक 1.4 करोड़ पर्यटकों को दर्ज किया, जो शिमला और मनाली जैसे पहाड़ी स्टेशनों द्वारा संचालित है (हिंदुस्तान टाइम्स, जुलाई 2025)। हालाँकि ये संख्याएं स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देती हैं लेकिन वे यहाँ के नाजुक भौगोलीय तंत्र और बुनियादी ढांचे पर दबाव डालती हैं, जो आपदा जोखिमों को बढ़ाती हैं।
चारधाम यात्रा जिसे उत्तराखंड के पर्यटन की आधारशिला भी कह सकते हैं आज अनियंत्रित पर्यटन का प्रतीक बन गई है। जुलाई 2025 तक, 169 तीर्थयात्रियों की मौत स्वास्थ्य समस्याओं जैसे हृदयाघात और उच्च रक्तचाप से हुई (78 केदारनाथ में, 44 बद्रीनाथ में, 24 गंगोत्री में, 22 यमुनोत्री में) (टाइम्स ऑफ इंडिया, जुलाई 2025)। अप्रैल 2025 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में छह तीर्थयात्रियों की मौत हो गई, जो ऑपरेटरों पर लाभ को सुरक्षा से ऊपर रखने के दबाव को दर्शाती है (द हिंदू, 3 जुलाई, 2025)। हिमाचल में, कुल्लू-मनाली और शिमला में ओवर-टूरिज्म ने यातायात जाम और पर्यावरणीय गिरावट को जन्म दिया है, जहां पर्यटक नदियों में कचरा फेंकते हैं और स्थानीय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं ।
पहाड़ मैं पर्यटकों की आना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बहुत से लोग पहाड़ो को अक्सर औपनिवेशिक नजरिये से देखते है और उसका भौंडा प्रदर्शन भी करते हैं. वह हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को धमकी देते हुए अपने पैसे और रसूक के बल पर उसका मजाक भी उड़ाते हैं। ऐसे युवा आगंतुक गंगा के किनारे अपनी थार लेकर खुले में हुक्का और शराब पीते हैं और उसी नैतिकता का मजाक उड़ाते हैं जिसकी खातिर यहाँ आने का ढोंग करते हैं. उत्तराखंड में एक समय में गाँवों में घरो में ताले नहीं लगते थे और पुलिस का काम न के बराबर था क्योंकि कोई भी चोरी, डकैती या छेडछाड की घटनाएं नहीं होती थे लेकिन आज छेड़छाड़ और लोगो के गायब या लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और ये स्थानीय लोगो के कारण नहीं हो रहा अपितु बेनियांत्रित पर्यटन के कारण हो रहा है। बाहरी सांस्कृतिक प्रथाओं का ऊपर से थोपा जाना बेहद चिंताजनक है. संस्कृति केवल पूजा पध्यती नहीं है, वो हमारे खान पान से भी निर्धारित होती है लेकिन आज स्थानीय व्यंजनों की जगह पर ढाबो में मैगी, पराठे आदि की मांग बढ़ रही हैं वही पहाड़ी ब्यंजनो जैसे धपड़ी, फाणु, कफली, चैन्सू, च्यूं. बन्स्किल, कन्दाली का साग आदि को अब के बच्चे तो जानते भी नहीं होंगे. संस्कृति को कोई शोर करके ख़त्म नहीं करता अपितु बाज़ार के जरिये नियंत्रण किया जाता है. जब पहाड़ी व्यंजनों की मांग ही नहीं होगी तो कोई उन्हें क्यों बनायेंगे तो वो बाज़ार से स्वयं ही गायब हो जायेंगे. ऐसे ही, हमारे तीर्थस्थलो पर हो रहे निर्माण कार्य में कोई भी बात हमारी संस्कृति और परम्पराओं को प्रदर्शित नहीं करती. ये सब पैसे का भोंडा प्रदर्शन कर हम पर निर्माण के नाम पर अहसान और हमारी संस्थानों पर कब्जे के अलावा कुछ भी नहीं है. ऐसे ही होटल और रिजोर्ट आदि से होता है. यानि आज के दौर में आप की संस्कृति बाज़ार निर्धारित करता है और बाज़ार पर जिसका नियंत्रण होता है वोही हावी होता है. उत्तराखंड में यदि बाज़ार के अनुसार चलने की कोशिश करेंगे तो वो खतरनाक होगा.
कुछ बाहरी लोग, राजनीतिक एजेंडों द्वारा समर्थित, एक समरूप हिंदुत्व कथा को आगे बढ़ाते हैं, जो हिमाचल और उत्तराखंड के विशिष्ट पारंपरिक शैली को नजरअंदाज करते हैं, जहां स्थानीय देवता और स्थाई प्रथाएं लंबे समय से फल-फूल रही हैं । यह भी समझना होगा कि धार्मिक भावनाये व्यावसायिक लाभों से अलग है और यदि दोनों को जोड़ा गया तो उसके नतीजे भयावह होंगे। वास्तव में, पिछले कुछ दशकों में, भारत की सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग ने व्यावसायिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण किया है। स्पष्ट रूप से, भारत को एक धार्मिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया है जहां बाबाओं का फलना-फूलना और भक्ति और परंपराओं के नाम पर चमत्कारों के नए स्थानों का निर्माण हो रहा है। हिमालयी क्षेत्र अलग हैं और आप उन्हें मैदानी इलाकों के साथ नहीं जोड़ सकते जहां आपके पास विशाल भूमि है और बुनियादी ढांचे के विकास से संबंधित कोई समस्या नहीं है। हिमालयी क्षेत्रों में, ये बुनियादी ढांचे का विकास हिमालय, हमारी पवित्र नदियों और यहाँ के लोगों की कीमत पर आएगा। ऐसा कोई भी विकास हमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए जो हमें हमारी ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति परम्पराओ और हमारी अस्मिता से अलग थलग करता हो.
जलविद्युत परियोजनाएं: प्रकृति की कीमत पर लाभ कमाना
केंद्र सरकार का जलविद्युत योजनाओं को लगातार जोर देना जिसे हिमालय की “क्षमता” के रूप में ब्रांडेड किया गया है, पर्यावरणीय और सामाजिक मूल्यों पर कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता देता है और अब यह पूरी तरह से उजागर हो गया है क्योंकि दोनों राज्य भारी आपदाओं का सामना कर रहे हैं हालांकि आज भी पूरी कहानी को 'क्या हुआ और कब हुआ' तक सीमित रखने के प्रयास हैं 'क्यों हुआ' हमारे पूरे विश्लेषणों और राजनितिक चर्चाओं से गायब है. हिमाचल प्रदेश में 41 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं हैं और वहा पर भयानक बाढ़ के पीछे प्रकृति की मार नहीं वहा बने बांधो का पानी छोड़ना शामिल है.
डाउन टू अर्थ मैगजीन में एक रिपोर्ट कहती है : 'उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में जलविद्युत परियोजनाएं स्थापित की जा रही हैं। राज्य के ये स्थान आने वाले वर्षों में भूकंपीय या जलवायु से संबंधित आपदाओं का शिकार हो सकते हैं। उत्तराखंड के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कम से कम 15 ऐसी परियोजनाएं हैं जिनमें लगभग 70,000 करोड़ रुपये का निवेश है। क्लाइमेट रिस्क होराइजन्स की रिपोर्ट नोट करती है कि उत्तराखंड में 25 मेगावाट से अधिक की 81 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं पाइपलाइन में हैं और 18 परियोजनाएं अभी पूरी तरह से एक्टिव हैं । जलवायु की 'अति' संबंधित खतरे ने उनके भविष्य पर अनिश्चितता पैदा कर दी है।'
ईमानदारी से यदि विश्येलेषण करें तो ये पायेंगे कि ये परियोजनाएं हमारी नदियों को नष्ट कर रही हैं क्योंकि मलबे को उनसे दूर रखने का कोई तरीका नहीं है। बड़े बोल्डर, पत्थर, कंक्रीट सब कुछ चुपचाप उनमें फेंका जा रहा है जो कई बार नदियों के प्रवाह को जोखिम में डालता है। वनों की कटाई, ब्लास्टिंग, और तलछट की बाधा उच्च पर्वतों में ढलानों को कमजोर और अस्थिर करती है जो अचानक फटने का जोखिम पैदा करती है जिसके परिणामस्वरूप धाराली जैसी आपदाएं होती हैं। क्या हम भूल गए हैं कि जोशीमठ में क्या हुआ जहां शहरं में स्थित सभी भवनों और निर्माणों में दरारें आ गईं। जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ो पर की जा रही ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग और टनलिंग से नुक्सान का खामियाजा नहीं भरा जा सकता है और ये अब बहुत से विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अच्छी तरह से दस्तावेजित है हालांकि तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया अब इसे ज्यादा रिपोर्ट नहीं करता. ऐसा लगता है कि हर कोई अब जोशीमठ को भूल गया है। रैनी गांव के ग्रामीणों ने अपने गांव को खतरे के खिलाफ अदालत का रुख किया लेकिन अदालत से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। वास्तव में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने लोगों सहित कार्यकर्ताओं को मामला दाखिल करने के लिए दस हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया।
धार्मिक पर्यटन के सामूहिकरण ने गंगा स्नान जैसी मैदानी इलाकों की प्रथाओं को हिमालय में आयात किया है, जहां सामुदायिक स्नान दुर्लभ है, और नदियों की पूजा की जाती है, प्रदूषित नहीं । केदारनाथ में लाउडस्पीकर, डीजे, और ड्रम बजाना पवित्र शांति को बाधित करता है । गुजरात की वास्तुशिल्प शैली की नकल करने वाली सीमेंटेड संरचनाएं उत्तराखंड के अनोखे लकड़ी के मंदिरों की जगह ले रही हैं, जो न केवल स्थानीय शिल्पकला और व्यवसायों को कमजोर कर रही हैं अपितु हमारी संस्कृति पर सीधे हमला है । आखिर ये सवाल तो करना पडेगा की बद्रीनाथ में ये सीमेंटेड कोरिडोर किस लिए बनाये जा रहे हैं. क्या 'देशी' बाबा और भक्तो को हमारे सबसे महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठाने के लिए यह एक नया प्रबंधन है. क्या उनके साथ और भी लोगो को यहाँ का मूलनिवासी बनाने के लिए ये प्रयास किये जा रहे हैं ? अगर इतनी बड़ी संख्या में बाहर से लोगो को लाकर यहाँ फाइव स्टार सुविधाएं दी जाएँगी तो सरकार बताये कि इतने कूड़ा और मल मूत्र को किस प्रकार से निष्पादित किया जाएगा वो भी बताये. क्या भागीरथी और अलकनंदा को उनके श्रोतो से ही बदबूदार और प्रदूषित करने का कोई षड्यंत्र नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग जो बाहर से आ रहे हैं उन्हें पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ो की पवित्रता से कोई मतलब नहीं है. वे अपने भगवानो को प्रसन्न करने के वास्ते आते हैं और फिर अपना कूड़ा कबाड़ यहाँ छोड़कर चले जाते हैं। इसलिए बद्रीनाथ केदारनाथ धामों में जो लोग इस तथाकथित मास्टर प्लान के खिलाफ विरोध कर रहे हैं, जिनके दुकानों और घरों को ध्वस्त कर दिया है, उन्हें गलत कैसे कहा जा सकता है. क्या जो लोग हमारे धामों में पूरे पारंपरिक चरित्र को बदलने का विरोध कर रहे हैं उन्हें सुनना आवश्यक नहीं है. आखिर हम अपने निर्माण कार्य को हिमालय की पर्यावरणीय उपयुक्तता के अनुसार क्यों नहीं बना सकते जिसमें पारंपरिक उत्तराखंडी छाप हो। क्या ये नए निर्माण हमारी इतिहास, संस्कृति और पारंपरिक जीवन शैली को मिटाने का प्रयास नहीं है?
स्थाई और संतुलित विकास के लिए एक अपील
सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी सरकार से इस विषय में सकारात्कामक कार्यवाही की मांग करती है। सरकार की नीतियां-राजस्व के लिए मास टूरिज्म और जलविद्युत को बढ़ावा देना-इस संकट को बढ़ावा दे रही हैं। अगर अदालत गंभीर है, तो उसे पर्यटको संख्या को नियंत्रित करना चाहिए, स्थायी और संतुलित विकास के लिए मूल पहाड़ी समुदायों को सभी प्रमुख प्रशासकीय और नीतिगत संस्थानों में शामिल करके नए मॉडल की शुरुआत करनी चाहिए. पहाड़ो के स्थानीय देवताओं, परंपराओं और पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है। हिमालय शोषण के लिए कॉलोनी नहीं हैं; वे एक पवित्र, नाजुक क्षेत्र हैं जिन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है। अब आवश्यक हो गया है कि गैरसैण को राजधानी बनाने के प्रश्न पर ईमानदारी से बहस हो और उसे राजधानी घोषित कर दिया जाए तभी इस प्रकार के अतिक्रमण आदि पर रोक लगेगी और उत्तराखंड अपने पहाड़ी परम्पराओं के लिए जाना जाएगा.
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश दोनों को ही बहुत आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है. उन्हें अपना खुद का मॉडल विकसित करना होता और बाहर से 'विशेषज्ञों' का आयात बंद करना पडेगा क्योंकि ये वास्तव में विकास के बहाने स्थानीय परंपराओं और हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजो के लिए खतरा हैं और शोषणकारी और प्रकति के साथ हमारे रिश्तो के विरुद्ध हैं। मैं सभी जलविद्युत परियोजनाओं या मौजूदा चल रहे कार्यक्रमों को रोकने के लिए तो नहीं कहूंगा लेकिन मैं निश्चित रूप से इस प्रकार की किसी भी भविष्य की योजना पर पुर्णतः रोक की मांग करूंगा जो हमारी नदियों और पर्वतों को हानि पहुंचाए और उनका अनियंत्रित शोषण की बुनियाद बने.
धराली, मनाली, कुल्लू, मंडी, रैनी जैसी घटनाएं लगातार हो रही हैं और हम लोग उन्हें 'प्राकृतिक आपदाएं' कह रहे हैं लेकिन हकीकत है की हमने अपनी प्रकृति की न तो रक्षा की और न ही सम्मान किया और इसके नतीजे यह निकले कि हम सभी कि जिंदगी खतरे में आ गयी. यह भी हकीकत है कि हमारे पूर्वज इसी प्रकति के साथ सामंजस्नय बनाकर रहे और हमें बड़ा किया. आपदाएं तब भी आती थी लेकिन उनके लिए इंसान दोषी नहीं होता था. पहाड़ी समाज मेहनत और ईमानदारी के बल पर जीता था. उसके पास इतना पैसा नहीं था लेकिन अपना स्वाभिमान और नैतिकता बची हुई थी . इसलिए आज का संकट असल में स्थानीय मूलनिवासियो द्वारा नहीं लाया गया अपितु यह मै निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि हिमालय में आज का संकट राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा अपनाए जा रहे शोषणकारी विकास मॉडल के कारण जो लालची कॉर्पोरेट के साथ सांठगांठ में लोगों की धार्मिक भावनाओं का बेशर्मी से शोषण करता है. ये पूंजीपति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए वो सब कुछ करने को तैयार हैं भले ही यह स्थानीय पर्यावरणीय, भौगोलिक और सांस्कृतिक परम्पराओ को नुकसान पहुंचाए। उनके विकास के मॉडल में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा नहीं अपितु राष्ट्रीय संशाधनो का व्यक्तिगत हितो के लिए बेजां इस्तेमाल है. इसलिए आज आवश्यकता है की हम हिमालय के इस बेमतलब शोषण को रोकें। शायद, इसके लिए एकमात्र तरीका है कि पहाड़ी क्षेत्रों को अनुसूची V या अनुसूची VI क्षेत्रों के तहत घोषित किया जाए ताकि भूमि को बाहरी लोगों को बेचने से रोका जा सके और इस व्यावसायिक लालच को रोका जा सके साथ ही स्थानीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जा सके। इस संकट का जलवायु अनुकूल समाधान केवल उत्तराखंड के मूल निवासियों के साथ समावेशी जुड़ाव से संभव है और किसी भी भविष्य की परियोजना को पूरी तरह से रोककर जो हिमालय, इसकी नदियों और समुदायों को खतरे में डालती है जो इसके आसपास रहते हैं और इसकी रक्षा करते हैं।