भारत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भारत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 26 जुलाई 2025

नेहरु और भारत की पहली मंत्री परिषद्

विद्या भूषण रावत  


हाल के सोशल मीडिया पोस्ट ने एक ऐसा विवाद खड़ा करने का प्रयास किया है जो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से सम्बंधित है  जिसमे कहा गया कि १९४६ से १९५२ तक वह भारत के गैर निर्वाचित प्रधानमंत्री थे. इस पोस्ट में ये भी कहा गया की अगले वर्ष तक नरेन्द्र मोदी देश के सबसे अधिक समय तक निर्वाचित प्रधानमन्त्री होंगे. इसी पोस्ट में यह भी कहा गया कि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंदिरा गांधी के लगातार कार्यकाल को पीछे छोड़ दिया है।  पूरी कोशिश यह थी कि अभी से हम यह कहना शुरू कर दे के प्रधान मंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी जी ने सभी को पीछे छोड़ दिया है. असल में आंकड़ो की बाजीगरी से कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं होता. देश में बहुत से लोग बहुत कम समय तक प्रधानमंत्री रहे और उनके अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है की वे अच्छे प्रधानमंत्री साबित हो सकते थे . 

पहले इस बात पर आते हैं की मोदी जी का कार्यकाल इंदिरा जी से अधिक हो गया है. अब जिन सज्जन ने ऐसा कहा उन्होंने  वह बहुत सुनियोजित तरीके से  यह गायब करदेते हैं कि इंदिरा गांधी ने न केवल 1966 से 1977 तक, बल्कि 1980 से उनकी दुखद हत्या, 31 अक्टूबर 1984 तक भी सेवा की। यह १५ वर्ष से अधिक ही है.  इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि कुछ लोगों ने जवाहरलाल नेहरू को 1946 से 1952 तक "गैर-निर्वाचित" प्रधानमंत्री के रूप में गलत ढंग से चिह्नित किया है, यह आरोप लगाते हुए कि उन्होंने भारतीय संविधान के बजाय ब्रिटिश ताज के प्रति निष्ठा की शपथ ली थी। ऐसे  दावे भारत के राजनीतिक इतिहास को विकृत करते हैं और इसके स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को कमजोर करते हैं। यह लेख नेहरू के कार्यकाल और 1946-47 के अंतरिम सरकार के आसपास के तथ्यों की जांच करके रिकॉर्ड को सही करता है।  

1946 की अंतरिम सरकार: एक विविध गठबंधन  

2 सितंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित अंतरिम सरकार भारत के स्वतंत्रता की ओर संक्रमण में एक महत्वपूर्ण कदम थी। यह एकतरफा नियुक्ति नहीं थी, बल्कि भारत के विविध राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाने वाला एक गठबंधन था। पहली कैबिनेट में शामिल थे:  

- जवाहरलाल नेहरू – कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष, विदेशी मामले और राष्ट्रमंडल संबंध  
- वल्लभभाई पटेल – गृह मामलों, सूचना और प्रसारण  
- बलदेव सिंह – रक्षा  
- जॉन मथाई – वित्त  
- सी. राजगोपालाचारी – शिक्षा  
- सी.एच. भाभा – वाणिज्य  
- राजेंद्र प्रसाद – खाद्य और कृषि  
- असफ अली – परिवहन और रेलवे  
- जगजीवन राम – श्रम  
- सरत चंद्र बोस – कार्य, खान और शक्ति (इस्तीफा दिया; वल्लभभाई पटेल ने स्थान लिया)  
- सैयद अली ज़हीर – कानून  
- कूवरजी होर्मुसजी भाभा – वाणिज्य (बाद में कार्य, खान और शक्ति संभाला)  

26 अक्टूबर 1946 को मुस्लिम लीग शामिल हुई, जिसमें लियाकत अली खान (वित्त), आई.आई. चुंद्रिगर (वाणिज्य), अब्दुर रब निश्तर (डाक और हवाई), गज़नफर अली खान (स्वास्थ्य), और जोगेंद्र नाथ मंडल (कानून, अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व) जैसे सदस्य शामिल हुए। ब्रिटिश निगरानी में गठित इस गठबंधन में सभी सदस्यों को अपने पद की शपथ लेनी थी, जिसे वायसराय द्वारा प्रशासित किया गया था। इस बात का कोई सबूत नहीं है कि नेहरू की शपथ उनके सहयोगियों, जैसे पटेल या मंडल से अलग थी।  

स्वतंत्र भारत की पहली कैबिनेट  

15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के बाद, नेहरू ने गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबेटन के तहत भारत की पहली कैबिनेट का नेतृत्व किया। यह कैबिनेट भी उतनी ही विविध थी, जिसमें शामिल थे:  

- जवाहरलाल नेहरू – प्रधानमंत्री, विदेशी मामले और राष्ट्रमंडल संबंध, वैज्ञानिक अनुसंधान  
- वल्लभभाई पटेल – गृह मामले, सूचना और प्रसारण, राज्य  
- बलदेव सिंह – रक्षा  
- राजेंद्र प्रसाद – खाद्य और कृषि  
- मौलाना अबुल कलम आज़ाद – शिक्षा  
- जॉन मथाई – रेलवे और परिवहन  
- रफी अहमद किदवई – संचार  
- राजकुमारी अमृत कौर – स्वास्थ्य  
- बी.आर. आंबेडकर – कानून  
- आर.के. शनमुखम चेट्टी – वित्त  
- श्यामा प्रसाद मुखर्जी – उद्योग और आपूर्ति  
- सी.एच. भाभा – वाणिज्य  
- जगजीवन राम – श्रम  
- एन.वी. गडगिल – कार्य, खान और शक्ति  

इस कैबिनेट में पटेल, आंबेडकर और मुखर्जी जैसे दिग्गज शामिल थे, जिन्होंने नेहरू के समान ही पद की शपथ ली थी। यह दावा कि केवल नेहरू ने ब्रिटिश ताज के प्रति निष्ठा की शपथ ली, निराधार है और इसके लिए कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है। शपथ एक मानक प्रक्रिया थी जो सभी मंत्रियों के लिए संक्रमणकालीन अवधि के दौरान लागू थी।  

  
यह दावा कि नेहरू 1946 से 1952 तक "गैर-निर्वाचित" प्रधानमंत्री थे, एक घोर गलत बयानी है। अंतरिम सरकार 1946 के प्रांतीय चुनावों के बाद गठित की गई थी, जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महत्वपूर्ण जनादेश हासिल किया था। नेहरू को निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा नेता चुना गया था, न कि ब्रिटिश द्वारा नियुक्त किया गया था। संविधान सभा, जिसे भारत का संविधान तैयार करने का काम सौंपा गया था, भी प्रांतीय विधानसभाओं के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित थी। नेहरू के नेतृत्व को "गैर-निर्वाचित" कहना पूरी संविधान सभा की वैधता पर सवाल उठाना है, जिसमें आंबेडकर, जिन्होंने संविधान का मसौदा तैयार किया, और पटेल, जिन्होंने रियासतों को एकीकृत किया, जैसे व्यक्तियों का योगदान शामिल है।  

सत्ता का हस्तांतरण एक क्रमिक प्रक्रिया थी, जो 1930 के दशक में भारत सरकार अधिनियम, 1935 के साथ शुरू हुई, जिसने प्रांतीय स्वायत्तता और चुनाव शुरू किए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1930 के चुनावों का बहिष्कार किया, लेकिन 1937 और 1946 में पूरी तरह से भाग लिया, जिसमें अधिकांश प्रांतों में बहुमत प्राप्त किया। नेहरू की अंतरिम सरकार के प्रमुख और बाद में भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्ति इस लोकतांत्रिक जनादेश में निहित थी, न कि ब्रिटिश आदेश में।  


 अक्सर आरएसएस और उनके द्वारा प्रायोजित संगठनो और तथाकथित बुद्धिजीवियों, पत्रकारों  ने नेहरू को बदनाम करने के लिए इन कहानियों को गढ़ा है और मीडिया सोशल मीडिया के जरिये देश दुनिया में प्रचारित  किया है. नेहरु की अपनी कमिया और उपलब्धिया हो सकती है और राजनीती में उन पर चर्चा होनी चाहिए. कोई भी किसी को भगवान् बनाकर बात न करें.  ये कथन  कि नेहरू ने अपने पद और  निष्ठा की शपथ  ब्रिटिश महारानी के प्रति निष्ठा दिखाते हुए की और इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया भारत के ऐतिहासिक स्वतंत्रता संग्राम को बदनाम करने का षड्यंत्र है क्योंकि १९४६ की मंत्री परिषद् में केवल नेहरु ही नहीं थे अपितु  सरदार पटेल, श्यामा प्रसाद  मुखर्जी और अन्य ने भी वही शपथ ली थी। यहाँ ये बताने की आवश्यकता नहीं है कि श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ही वर्तमान भाजपा के वैचारिक गुरु हैं. इसलिए जो सवाल नेहरु से पूछे जाते हैं वोही उनके मंत्रिपरिषद के सदस्यों से भी पूछे जा सकते हैं.  १९४७ के बाद से तो नेहरु की मंत्रिपरिषद में डाक्टर आंबेडकर भी कानून मंत्री बने. 

यह दावा कि स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों के लिए केवल नेहरू जिम्मेदार थे, समान रूप से भ्रामक है। विभाजन, सांप्रदायिक हिंसा और आर्थिक कठिनाइयाँ जटिल मुद्दे थे जिनका सामना पूरी कैबिनेट ने किया। रियासतों के एकीकरण में पटेल की भूमिका, संविधान और बाद में हिन्दू कॉड बिल पर डाक्टर आंबेडकर का काम, और शिक्षा में मौलाना आज़ाद का योगदान भारत के शुरुआती वर्षों में अभिन्न था। खुद भारत के संविधान का प्रथम संशोधन और जमींदारी उन्मूलन कानून जैसे प्रगतिशील कानून स्वयं जवाहर लाल नेहरु ने संसद में रखे थे. इसलिए  सभी असफलताओं का दोष नेहरू पर थोपना और  उनकी सफलता केवल व्यक्तिगत लोगो को दे देना पूरी मंत्री परिषद्  की सामूहिक जिम्मेदारी को नजरअंदाज करता है और यह  बौद्धिक रूप से बेईमानी है।  उस समय की मंत्री परिषद् आज की तुलना में बेहद लोकतान्त्रिक थी और बहुत बार नेहरु सरदार पटेल के घर पैदल चल कर जाते थे. मतभेदों के बावजूद भी सभी नेताओ का एक दूसरे के लिए सम्मान था. आज की मंत्री परिषद् से उसकी तुलना कभी भी नहीं की जा सकती जहा एक उपराष्ट्रपति अचानक से त्यागपत्र देने के बाद भी दुनिया को नहीं बता सकता कि उसने ऐसा किया क्यों ? 

भारत के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण  

नेहरू, पटेल, आंबेडकर और उनके समकालीनों में मतभेद थे और अगर हम ये कह दे कि ऐसा नहीं था ये झूठ होगा. और ऐसा होना  लोकतंत्र में स्वाभाविक है। हालांकि, वे एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समावेशी भारत के लिए प्रतिबद्ध थे। उनकी बहसें—चाहे नेहरू और पटेल के बीच शासन पर हो या नेहरू और आंबेडकर के बीच दलितों के प्रश्नों पर हो परन्एतु एक बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि वे सभी संगठित और मजबूत भारत  के लिए साझा दृष्टिकोण में निहित थीं। संविधान, उनके सामूहिक प्रयासों का परिणाम, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और गणतांत्रिक लोकतंत्र पर जोर देता है।  

जो आलोचक धर्मनिरपेक्षता या समाजवाद को मूल सिद्धांतों के रूप में अस्वीकार करते हैं, वे वास्तव में भारत के संविधान के ढांचे को चुनौती दे रहे हैं। भारत का स्वतंत्रता संग्राम इन  सभी महान नेताओं द्वारा गाँधी जी के नेतृत्व किया गया, हमारी स्वतंत्रता कोई अंग्रेजो  का उपहार नहीं था, बल्कि दशकों के हजारो स्वाधीनता सैनानियो के  बलिदान के जीती गई लड़ाई  थी। अपनी राजनीती के लिए   उस ऐतिहासिक विरासत को कमजोर करना देश की एकता और अखंडता के लिए हानिकारक होगा. 

 
आज भारत का वैश्विक शक्ति के रूप में उदय नेहरू, पटेल, आंबेडकर और अन्य लोगों की दूरदर्शी नेतृत्व को जाता है  जिन्होंने एक लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी भारत की नीव रखी। ऐसा नहीं है कि उस दौर में कोई कमिया नहीं थी लेकिन ये भी सोचिये कि नए भारत को लेकर सभी की आँखों में सपने थे. उस समय संशाधनो की कमी थी लेकिन एक भविष्य के प्रति दृष्टिकोण था.  राजनीतिक लाभ के लिए उनके योगदान को विकृत करना राष्ट्र के इतिहास और इसके स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को कमजोर करता है। 

नेहरू अंग्रेजो द्वारा  थोपा गए  गैर-निर्वाचित नेता नहीं थे; वे एक लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने उथल-पुथल भरे समय में एक विविध कैबिनेट का नेतृत्व किया। तथ्य स्पष्ट हैं: नेहरू ने, अपने सहयोगियों की तरह, वही शपथ ली, उसी राष्ट्र के लिए काम किया, और एक स्वतंत्र, समावेशी भारत का वही सपना देखा। आज जब मै दुनिया के विभिन्न देशो को देखता हूँ चाहे वो अफ्रीका हो या लैटिन अमेरिका या दक्षिण एशिया या मध्य पूर्व, तो मुझे नेहरु और उस दौर के महान स्वाधीनता संग्राम सैनानियो और भी अधिक गर्व होता है क्योंकि भारत उन सभी देशो की तुलना में अधिक प्रगति कर सका क्योंकि  लोकतान्त्रिक राजनीति ने हमारे यहाँ अपनी जड़े गहराई से  जमा ली है. उस लोकतंत्र के अच्छे और ख़राब पर चर्चा हो सकती है लेकिन वो अभी तक मौजूद है. कम से कम नेहरु के समय उस पर उतना खतरा नहीं था जितना हम अब देख रहे हैं. नेहरु अपने दौर में लोगो में अत्यधिक लोकप्रिय थे लेकिन उसके बावजूद वह अपनी कमियों पर खुद ही लेख लिख सकते थे और अपने ऊपर कार्टून बनाने वाले शंकर को भी सम्मानित करने की और उन्हें सुन सकने की हिम्मत रखते थे. किसी भी इंसान की तरह नेहरु की भी कमिया हैं वैसे ही जैसे किसी भी अन्य नेता में हो सकती है लेकिन उसकी आड़ में तथ्यों से छेड़ छाड़ ठीक बात नहीं है 

आइए, हम प्रचार के बजाय सत्य को अपनाकर उनकी विरासत का सम्मान करें। हमें यह भी सोचें कि  एक प्रधानमंत्री का कार्यकाल छोटा हो सकता है, लेकिन वह अपने जीवन के लिए बहुत अधिक सम्मानित हो सकता है। भारत के दो महानतम प्रधानमंत्रियों में लाल बहादुर शास्त्री और विश्वनाथ प्रताप सिंह थे, जिनका कार्यकाल सीमित था, लेकिन जब इतिहास लिखा जाएगा, तो उनके राजनीतिक नेतृत्व, जीवन की सादगी, और विचारधारा की ईमानदारी को हमेशा याद किया जाएगा। बहुत से महान नेता देश के प्रधान मंत्री नहीं बन पाए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनका कोई योगदान नहीं है. हम आचार्य नरेन्द्र देव, मधु दंडवते, के कामराज, को भी याद रखते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह की ये देश उनलोगों को अधिक याद करता है जो निस्वार्थ भाव से देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिए. गाँधी, सुभाष, भगत सिंह, पेरियार, ज्योति बा फुले आदि तो सत्ता से बहुत दूर रहे लेकिन जनता तो उन्हें आज भी याद करती है और किसी भी प्रधानमंत्री से कम नहीं समझती. इसलिए मतलब यह नहीं कि कोई प्रधानमंत्री है या नहीं अपितु यह की उन्होंने क्या  किया और लोग उन्हें  कैसे याद रखते हैं.  स्पष्ट हो कि एक राष्ट्र किसी के प्रधानमंत्री के दिनों और वर्षों की गिनती नहीं करेगा अपितु उसके कार्य के लिए याद करेंगे. हम किसी भी नेता के प्रशंसक हो सकते हैं लेकिन केवल इतना ही निवेदन कि अपने महापुरुषों और स्वाधीनता संग्राम को ख़ारिज कर या बदनाम कर हम कोई नए राष्ट्र या नए समाज का निर्माण नहीं कर सकते. 


पेरियार और उत्तर भारत के साथ उनका संबंध

  विद्या भूषण रावत    हालांकि पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं के बीच एक जाना-माना नाम है , लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के अधिकांश लो...