दोषारोपण करने के बजाय हासिए के समाज की भावनाओ को समझने की आवश्यकता
विद्या भूषण रावत
अनुसूचित जातियों मे उपजाति या जातीय वर्गीकरण करके उन्हे आरक्षण देने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर जहा राष्ट्रीय पार्टिया चुपचाप हैं वही बहुजन समाज पार्टी, आजाद समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, वंचित बहुजन आघाडी इसके पूरी तरह से विरोध मे आ गए हैं हालांकि तमिलनाडु मे डी एम के, ए आई डी एम के, पी एम के, वी सी के, एम डी एम के ( अर्थात वहा की सभी पार्टियों ने ) इसका समर्थन किया है। अब रिपोर्टें आ रही हैं की वी सी के ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत नहीं किया है और उसके नेता श्री रवि कुमार ने वर्गीकरण को क्रीमी लैअर से भी अधिक खतरनाक कहा है लेकिन तमिलनाडु मे अधिकांश दल से द्रवीडियन मोडेल की जीत माँ रहे हैं। याद रहे की तमिलनाडु मे 69% आरक्षण है जिस पर वहा की सभी पार्टियों का व्यापक समर्थन रहा है। तमिलनाडु राज्य मे 60% आरक्षण मे 30% पिछड़े वर्ग के लिए, 20% अति पिछड़ो के लिए, 18% दलितों के लिए और 1% आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। दलितों के लिए आरक्षण मे 3% आरक्षण अरुंधतियार समुदाय के लिये हैं जो सफाई पेशे से आते हैं। इस प्रकार राज्य मे आरक्षण असल मे जातियों के अनुपात के आधार पर बांटे गए हैं। तमिलनाडु राज्य और विशेषकर डी एम के ने पिछड़े वर्ग के अधिकारों के लिए सबसे बड़ा आंदोलन किया हैं और कुल मिलकर भारत मे कोई दल इस संदर्भ मे उतना बड़ा दावा नहीं कर सकता जितना डी एम के का होता है। मुख्य मंत्री एम के स्टालिन ने इस फैसले को उनके द्रवीडियन मोडेल की जीत बताया।
दक्षिण के एक दूसरे महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक ने भी उच्चतम न्यायालय के फैसले को ऐतिहासिक बताया है। यहा भी राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैयया और उनकी सरकार ने दलित पिछड़ो के लिए लगातार कार्य किया है। सरकार ने कहा है के वे इस वर्गीकरण को तुरंत लागू करेंगे। पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश मे जहा तेलुगु देशम पार्टी ने श्री चंद्र बाबू नायडू के नेतृत्व मे सरकार बनाई है, ने इस फैसले को ऐतिहासिक बताया है और इसे लागू करने के लिए कहा है। इसी प्रकार तेलंगाना के मुख्य मंत्री रेवंत रेड्डी ने अपने राज्य मे इस वर्गीकरण को शीघ्र लागू करने की बात कही है। असल मे तेलंगाना मे इस संदर्भ मे अधिक बड़ा और तीखा संघर्ष चला है क्योंकि मादिगा आरक्षण पोराटा समिति के अध्यक्ष मांदा कृष्ण मदिगा ने सबसे पहले वर्गीकरण हेतु संघर्ष यही से किया था।
इसी प्रकार वर्गीकरण के समर्थन मे महाराष्ट्र के मातंग और मांग समाज के लोग भी खड़े हैं। महाराष्ट्र मे भी सरकार ने इस वर्गीकरण को लागू करने के बात कही है। एक अंग्रेजी अखबार की खबर के अनुसार महाराष्ट्र मे ‘राष्ट्रीय चर्मकार संघ के पूर्व शिवसेना विधायक बाबूराव माने ने कहा कि "एससी श्रेणी में सभी जातियों को उप-कोटे में विभाजित किया जाना चाहिए... अन्यथा, कुछ चुनिंदा लोगों को लाभ मिलेगा," उन्होंने कहा कि अन्य राज्यों में भी ऐसी मांगें की गई हैं।
अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के आधार पर आरक्षण के फैसले पर सर्वाधिक मुखर आवाजे महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से उठी हैं। महाराष्ट्र मे वंचित विकास अगाढ़ी के प्रमुख श्री प्रकाश अंबेडकर ने इसका पुरजोर विरोध किया है और इसे आरक्षण को खत्म करने की साजिश बताया है। ऐसे ही उत्तर प्रदेश मे बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने इसे आरक्षण को खत्म करने का षड्यन्त्र बताया है। आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्र शेखर आजाद, लोक जनशक्ति पार्टी के श्री चिराग पासवान और राष्ट्रीय जनता दल ने इसका विरोध किया है.अगर इन सभी लोगों की जातीय लोकैशन देखे तो ये सभी अपने अपने राज्यों मे दलितों मे सबसे बड़े और राजनैतिक रूप से सशक्त समुदाय का नेतृत्व करते हैं। इन्ही राज्यों मे अति दलित जातिया जैसे डोम, मुशहर, वाल्मीकि आदि अब अपने लिए अवसर मांग रही हैं।
बिहार के महादलित समुदाय के प्रमुख नेता और केन्द्रीय मंत्री श्री जीतन राम मांझी ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है उसका हम स्वागत करते हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2011-2012 में ही व्यवस्था कर दी थी, अनुसूचित जाति में एक पिछड़ा और दूसरा अति पिछड़ा वर्ग होता है. ओबीसी में भी पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग है. अनुसूचित जाति में दलित और महादलित भी है. उसको कुछ लोगों ने कोर्ट में चैलेंज भी किया था, जिसे कोर्ट ने अमान्य कर दिया था. "
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोग अपने अपने तरीकों से व्याख्या कर रहे हैं। असल मे मामला वर्गीकरण का था और फैसला वही तक सीमित रखा जाना चाहिए था लेकिन कोर्ट के बहुत से न्यायमूर्तियों की टिप्पणिया ये दिखा रही है कि बहुतों को तो आरक्षण नामकी व्यवस्था से ही परेशानी है। जजों ने क्रीमी लैअर वाले मामले को लाकर पुनः संकेत दे दिया की उनकी मंशा क्या है। दुखद बात यह है कि क्रीमी लैअर पर सबसे अधिक जोर जस्टिस बी जी गवाई का रहा है जो कि स्वयं एक अम्बेडकरी परिवार की बैकग्राउंड से आते हैं और उनके पिता आर पी आई के एक प्रमुख नेता थे। उम्मीद की जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट कोई विशेष निर्णय नहीं लेगा और मामला ऐसे ही चलता रहेगा लेकिन जस्टिस गवई ने तो क्रीमी लैअर को लाकर एक नया फ्रन्ट और खोल दिया। इसलिए इस पूरे निर्णय को दो तरीकों से देखना पड़ेगा। एक राज्यों मे उनकी आबादी के अनुसार वर्गीकरण जो बहुत से राज्यों मे पहले से ही मौजूद हैं, और दूसरे क्रीमी लैअर का प्रश्न। मै ये मानता हूँ की वर्गीकरण के लिए बहुत सी जातियों का संघर्ष पचास वर्ष से चल रहा है और इसलिए वो उचित है लेकिन क्रीमी लैअर का सिद्धांत तब तक बैमानी है जब तक सुप्रीम कोर्ट हमारी सरकारी नौकरियों की पूरी व्यवस्था का एक ईमानदार
विश्लेषण न कर सके।
पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट और राज्यों मे हाई कोर्ट मे कई निर्णय ऐसे आए हैं जिनसे लगता है कि ब्राह्मणवादी शक्तिया इस प्रश्न को न्याय प्रक्रिया मे उलझाना चाहती हैं। जब तक सुप्रीम कोर्ट जनरल और ई डब्ल्यू एस को ठीक से परिभाषित नहीं करेगी तब तक उनका पूरा क्रीमी लैअर का सिद्धांत मात्र एक भाषण होगा और पाखंड ही होगा। आखिर ई डब्ल्यू एस केवल ब्राह्मण बनियों का आरक्षण क्यों बन गया है। अब तो राजपूत भी अपने लिए अलग केटेगरी की बात कर रहे हैं। तकनीकी तौर पर दलित पिछड़े आदिवासी और सभी समाज का गरीब तबका ई डब्ल्यू एस मे आ
सकता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी एंट्री वहा पर बंद कर डी है जो बिल्कुल गलत हैं। दूसरे जो अनारक्षित सीटे हैं अब उन्हे ‘सामान्य’ कह कर सवर्ण कोटा बना दिया गया है। इस प्रकार से सुप्रीम कोर्ट की आँखों तले 60% आरक्षण प्रभावशाली जातियों के लिए कर दिया गया है। आखिर ब्राह्मण बनियों मे क्रीमी लैअर क्यों नहीं है ? सवर्णों के नाम पर भी माल दो तीन जातिया ही खा रही हैं और इसलिए आवश्यकता है वहा पर भी कटेगराइजेशन
हो
और
जिन
जातियों का प्रतिनिधित्व अधिक उन्हे काम किया जाए या नौकरियों से बाहर किया जाए। अनारक्षित सीटे भी सभी लोगों के लिए हैं इसलिए वहा पर जो एस सी एस
टी
ओ
बी
सी
बिना आरक्षण के क्वालफाइ कर रहे हैं उन्हे सामान्य मे लिया जाए लेकिन अब सामान्य कोटा का मतलब सवर्ण कोटा हो गया। मतलब अधिकारी और सरकार इसे अपनी अपनी सुविधा के अनुसार परिभाषित कर रहे हैं। यदि क्रीमी लैअर की बात होती है तो सामान्य और गरीबों के कोटे को ईमानदारी से परिभाषित करे न्यायालय।
वर्गीकरण पर घटिया राजनीति
उत्तर भारत मे इस वर्गीकरण पर जो राजनीति हो रही है वो केवल अपने जातिगत हितों और संख्या बल को अपने साथ रखने की राजनीति है। सोशल मीडिया पर सभी क्रांतिकारी अपनी अपनी पार्टियों के अनुसार भ्रांति फैला रहे हैं। क्या कारण है की कोई भी इस बात पर जोर नहीं दे रहा है कि इस प्रश्न पर आपस मे बात की जाए। बात होगी कैसे जब आप अपनी अपने जातीय हितों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। सबसे दुखद बात यह है कि एक दूसरे को गलिया दी जा रही है। कोशिश की जा रही है कि पूरे प्रश्न को केवल आर एस एस का लिंक देकर दूसरे को नीचा साबित किया जाए। ये प्रश्न केवल बाल्मीकि समाज ने उठाया होता तो जरूर कहा जा सकता है। सब केटेगरी की बात चमार समाज भी वहा पर कर रहा है जहा वह किसी दूसरे के आगे कमजोर है। आखिर मादिगा समाज का पचास वर्षों का संघर्ष ही इस वर्गीकरण के लिए था। आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटक मे मदिगा समुदाय की सबसे बड़ी उपजाति चर्मकार ही है। हालांकि महत्वपूर्ण बात ये भी है की मादिगा समुदाय मे कुछ एक उपजातिया सफाई के पेशे से भी जुड़ी हुई हैं।
मादिगा समुदाय तेलंगाना, आंध्र और कर्नाटक मे काफी बड़ी संख्या मे है। इस समुदाय की कुछ उपजातिया तमिलनाडु मे भी है। असल मे दक्षिण भारत के राज्यों मे पहले से ही अनुसूचित जातियों मे भी वर्गीकरण की व्यवस्था है। तमिलनाडु मे स्वच्छकार समाज के लोगों को अरुंधतियार कहा जाता है और दलितों को दिए गए 18% आरक्षण मे से 3% पर अरुंधतियार समाज के लिए आरक्षित किया गया है।
मादिगा समुदाय के संघर्ष की कहानी बहुत बड़ी है। उन्होंने लगातार आंदोलन किए और हरेक पार्टी से संपर्क किया। 1997 मे आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले मे उनकी बहुत बड़ी रैली के बाद तत्कालीन मुख्य मंत्री चंद्र बाबू नायडू ने उनकी मांगों को स्वीकार करते हुए राज्य मे अनुसूचित जाति को चार उपवर्गों मे विभाजित कर दिया जिसके विरुद्ध माला जाति ने आंदोलन किया और उनके नेता ई वी चिनैयया, वेंकट राव और माला महानाडु के संस्थापक पी विगनेश्वर राव ने
आंध्र प्रदेश सरकार के ऑर्डर के विरुद्ध उच्च न्यायालय मे याचिका दायर की जिसे एक जज की पीठ ने अवैध घोषित कर दिया। आंध्र सरकार उसके विरुद्ध पहले एक अध्यादेश लाई और फिर कानून बनाकर उसे और मजबूत कर दिया। इस निर्णय को भी उच्च न्यायालय मे चुनौती दी गई लेकिन इस बार उच्च न्यायालय ने उसे वैध ठहराया। 2001 मे हाई कोर्ट के आदेश के विरुद्ध चिनेयाह और उनके अन्य साथी
सुप्रीम कोर्ट गए। नवंबर 2004 मे सुप्रीम कोर्ट की एक पाँच जजों की पीठ ने अनुसूचित जातियों मे वर्गीकरण को अवैध ठहराया। लेकिन ये प्रश्न बंद नहीं हुआ अपितु विभिन्न जातियों मे तनाव बढ़ता ही रहा।
बाद
मे
2020 मे
जस्टिस अरुण मिश्र के नेतृत्व मे पाँच जजों की एक पीठ ने 2004 मे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से असहमति व्यक्त की और कहा कि अनुसूचित जाति मे राज्यों मे वर्गीकृत किया जा सकता है। क्योंकि चिन्नईया केस के 2004 और 2020 मे जजों की निर्णय देने वाली पीठ 5 सदस्यों की थी इसलिए इस प्रश्न को संविधान पीठ के 7 जजों को सौंपा गया जिसने इस बात को स्वीकार किया कि अनुसूचित जातियो मे विविभता है और जो समुदाय पीछे छूट गए हैं उन्हे आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्यों को इसके वर्गीकरण का अधिकार दिया जाना चाहिए।
इधर इस मामले मे महाराष्ट्र मे भी बहुत समय से मातंग और मांग समाज पृथक आरक्षण की मांग कर रहा था। महाराष्ट्र मे अनुसूचित जातियों के लिए 13% आरक्षण है और उसमे अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए मातंग, चर्मकार, मांग आदि जातिया अलग से आरक्षण की मांग कर रही हैं क्योंकि उन्हे लगता है कि बुद्धिस्ट महार लोग ही अधिकांशतह आरक्षण का लाभ ले रहे हैं। महाराष्ट्र मे अनुसूचित जातियों मे 59 जातिया हैं और मातंग समाज सहित अन्य दलित जातिया इस आरक्षण को चार वर्गों मे विभाजित्त करना चाहती हैं। महाराष्ट्र मे पिछड़े वर्ग को 30% आरक्षण है जो पहले से वर्गीकृत किया गया है। इसमे 19% पिछड़े वर्ग के लिए, 11% विमुक्त जातियों के लिए आरक्षित हैं। मजेदार बात यह है की विमुक्त जातियों के लिए 11% भी चार उपजातियों मे विभाजित हैं जिसमे 3% विमुक्त जातियों के लिए,
2.5% घुमंतू जातियों के लिए, 3.5% ढाँगर समुदाय के लिए और 2% वंजारा समुदाय के लिए आरक्षित किए गए हैं।
पंजाब की कहानी तो और भी पुरानी है। पंजाब मे अनुसूचित जातियों के लिए 25% आरक्षण है। 1975 मे पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने इस आरक्षण को विभाजित कर 12.5% आरक्षण वाल्मीकि/मजहबी समुदाय के लिए आरक्षित कर एक सर्क्यलर जारी कर दिया। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 25 जुलाई 2006 मे इस आरक्षण को अवैध घोषित कर दिया। इस निर्णय के विरुद्ध पंजाब मे बहुत प्रदर्शन हुए। पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने 5 अक्टूबर 2006 मे एक कानून बनाकर इस आरक्षण को जारी रखा। इस प्रश्न पर पंजाब मे सभी पार्टियों मे एकमत था और अकाली दल ने भी इस बिल को पारित होने मे सरकार का सहयोग किया। 29 मार्च 2010 को पंजाब सरकार के इस कानून को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया। उच्च न्यायालय के इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने 30 अगस्त 2010 को रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट मे पुनः ये मामला 27 अगस्त 2020 को आया जिसमे जस्टिस अरुण
मिश्र के नेतृत्व मे एक पाँच सदस्यीय खंड पीठ ने ईश्वरऐय्या फैसले से असहमति व्यक्त की और कहा कि दलितों मे कुछ जातिया आगे बढ़ चुकी हैं और अधिकांश पीछे ही रह गई हैं और यदि उन्हे अवसर की समानता नहीं मिली तो ये भी अन्याय होगा। क्योंकि पाँच जजों की खंडपीठ का निर्णय पुराने निर्णय से अलग था इसलिए इस पर सुप्रीम कोर्ट को पुनर्विचार की आवश्यकता पड़ी और उसके लिए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता मे 7 जजों की बेंच बनी जिसने इन सभी मसलों पर राज्यों के और विभिन्न संगठनों की याचिकाओ को सामने लेते हुए यह निर्णय दिया कि अनुसूचित जातिया एकांगी ( होमोजिनीयस) नहीं हैं और उन्मे भी बहुलता है। खंडपीठ ने ये कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों मे वर्गीकरण करने का अधिकार है लेकिन ये कार्यवाही पूरी तरह से शोधपूर्वक एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित होनी चाहिए।
इस प्रश्न पर सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जातियों मे सीधे सीधे गली गलोज और आरोप प्रत्यारोप। ये आरोप लगाना कि कुछ जातियों ने सारा माल हड़प लिया है बेहद निराशाजनक है जबकि अधिकांश सीटे अभी भी नहीं भरी जा रही हैं। लेकिन जिन जातियों से न कोई राजनैतिक प्रतिनिधित्व और न ही कोई किसी भी लेवल पर व्यवस्था मे भागीदारी हो रही है वे तो सवाल उठायेंगे। प्रश्न यह था जो जातिया संख्या या राजनैतिक या सामाजिक प्रभाव मे सशक्त हैं क्या वह अपने ही समाज की दूसरी जातियों के साथ बातचीत भी करने को तैयार हैं ? क्या अति दलितों का सत्ता और प्रशासन मे भागीदारी का सवाल गलत है या उनके पास अवसर की समानताए उपलब्ध हैं। क्या वाकई मे ये प्रश्न राज्यों को द्वारा वहा की जातीय संरचना के अनुसार नहीं लिया जाना चाहिए। अक्सर ये कहा जाता है की दलितों मे आपस मे छुआछूत या जातिवाद नहीं है लेकिन ये गलत है। दुर्भाग्यवश हम बाबा साहब की बातों को ही नहीं स्वीकार कर पा रहे जिन्होंने श्रेणीगत असमानता की बात कही है। आज भी गांवों मे स्वच्छकार, डोम, बांसफोर, हलखोर आदि जातिया अन्तर्जातीय छुआछूत का भी शिकार होती है। सभी जातियों मे कोई आपसी सामाजिक या सांस्कृतिक संबंध भी नहीं है।
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जातियों की राजनीतिक भागीदारी भी नही है। ऐसे ही बहुत से अन्य जातिया हैं जो संख्याबल मे अल्पसंख्यक है इसलिए बृहत्तर दलित आंदोलन भी उन तक नहीं पहुंचा है जिसके फलस्वरूप वह अपने से बड़े समुदाय को हमेशा शक की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी स्थिति पूरे आंदोलन के लिए अच्छी नहीं है।
बदलाव की चाह
आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व मैंने स्वच्छकार समाज के मध्य जाना शुरू किया। उस दौर मे ये शब्द सबसे पहले उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर जनपद के मुहम्मदाबाद नामक स्थान पर ‘स्वच्छकार कल्याण समिति’ नामक संगठन से शुरू हुआ। देश के उत्तर मे सफाई कर्मी अपने लिए वाल्मीकि शब्द का सरनेम प्रयोग करते थे लेकिन मुहम्मदाबाद जाकर मुझे ये सुनकर बहुत अच्छा लगा कि लोग बाबा साहब अंबेडकर की विचारधारा पर चल रहे हैं और एक नए शब्द का उपयोग कर रहे हैं। मेरे मित्र राज कपूर रावत और राज कुमार रावत उस दौर मे पूरे समाज मे शिक्षा और जागरूकता का मिशन चला रहे थे। जब मैंने वहा युवाओ से बातचीत शुरू की तो सबके नए सपने थे। कोई भी युवा यह नहीं कह रहा था कि उसकी मंजिल नगरपालिका मे सफाई कर्मी का काम है। सभी चाहते थे कि वे डॉक्टर इंजीनियर या प्रशासनिक सेवाओ मे जाएँ। उस समय वहा पर इन बच्चों के सपनों को उड़ान देने के लिए हमे परिवर्तन केंद्र बनाया और स्वच्छकार समाज की लड़कियों के लिए एक छोटा सा कंप्युटर ट्रैनिंग का केंद्र खोला जिसमे समाज की महिलाओ के लिए भी सिलाई और कढ़ाई के सीखने की व्यवस्था थी।
हमने ये भी व्यवस्था की कि बच्चों को बाबा साहब के जीवन और साहित्य की जानकारी भी मिले। इसके अलावा तर्क और मानववादी सोच को आगे बढ़ाने वाले साहित्य उपलब्ध करवाए गए। पूरे मुहम्मदाबाद मे स्वच्छकार समाज के युवा अब सपने देख रहा था और शिक्षा के प्रति जागरूक हो गए। लड़के लड़किया कॉलेज और विश्वविद्यालयों मे प्रवेश लेने हेतु अपने घरों से बाहर निकल पड़े। बहुतों ने टेक्निकल शिक्षा ली तो कईयो ने बी एड भी किया। दुर्भाग्य ये कि आज भी स्कूल अध्यापकों से लेकर स्थानीय प्रशासन मे स्वच्छकार समाज की अधिकता केवल सफाई के काम मे ही है। क्या ये सरकार का कर्तव्य नहीं की वे सफाई पेशे और अन्य ऐसे वंशानुगत पेशे से जुड़े लोगों को रोजगार दे ताकि वे भी सत्ता मे भागीदारी कर बदलाव की ओर अग्रसर हो सके।
डोम और मुशाहर समाजों मे तो ऐसी स्थिति भी नहीं है। वहा पढ़ाई का स्तर नहीं हो पाया क्योंकि वे ग्रामीण क्षेत्रों मे रहते हैं। पूरे समाज का कोई भी व्यक्ति एक छोटी से भी नौकरी मे कम से कम उत्तर प्रदेश मे तो दिखाई नहीं देता। समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी लगभग शून्य है और दलित पिछड़ो की राजनीति मे उनके लिए जगह नहीं है लिहाज वे विरोधी खेमे मे चले जाते हैं।
एक बात सोचने की है। हमने इस बहस को बेहद नाटकीय बना दिया जैसे सभी लोग जो वर्गीकरण की बात कर रहे हैं वे विश्वविद्यालयों की नौकरियों को ही ढूंढ रहे हैं। देखिए मुख्यतः लोग उन सरकारी नौकरियों की बात कर रहे हैं जो राज्य बड़े स्तर पर निकलता है। जैसे हर वर्ष केंद्र की यू पी एस सी के जरिए सिवल सर्विसेज़ आदि के लिए हर वर्ष आवेदन मांगे जाते हैं। वैसे ही राज्यों मे राज्य स्तरीय सेवाये। क्या वाल्मीकि, मुशहर, डोम, आदि समुदायों के लोगों मे कोई पुलिस मे सिपाही, थानेदार, तहसीलदार, अध्यापक, आदि नहीं निकल सकते और यदि वे यहा पर कही नहीं है तो क्या सरकार को ये व्यवस्था करनी चाहिए या नहीं ? और यदि सरकार थोड़ा व्यवस्था कर भी दे तो क्या इससे पड़े समाज को खड़े होकर इसका स्वागत नहीं करना चाहिए। आखिर जो व्यवस्था हो रही है वो दलितों के लिए तो हो रही है। क्या हम ये बात अपने नीति निर्माताओ से नहीं कह सकते कि यदि इन वर्गों से कोई ‘उपयुक्त व्यक्ति ‘ नहीं मिला तो अनुसूचित जाति से ही अन्य वर्गों से उसकी भर्ती की जाएगी। क्या ये नहीं कहा जा सकता कि अनुसूचित जाति का 17% कोटा किसी भी हालत मे गैर जातिया समाज को नहीं दिया जाएगा। और फिर से समझ लीजिए की ये आंदोलन मात्र वाल्मीकियों का नहीं है। जहा चमार समाज को नहीं मिल रहा है वहा वो भी बड़े समाज के विरुद्ध खड़ा है जैसे दक्षिण के राज्य और महाराष्ट्र। आज सभी समाज सत्ता मे अपनी भागीदारी चाहते हैं और जिनके पास संख्या और ताकत है वो तो इसे आसानी से दिखाकर ले ले रहे हैं लेकिन जिनके पास ताकत, सत्ता, संख्याबल नहीं है वे अपनी दूसरी रणनीति बनाते हैं और फिर उन पर आरोप लगता है के वे दुश्मन से मिल गए हैं हालांकि
‘दुश्मन’ से तो सभी लोग अपनी अपने सुविधाओ के अनुसार मिल ही रहे हैं।
बाबा साहब भी इस सवाल को समझते थे। ये केवल नौकरियों की बात नहीं है। दिलों को जोड़ने की बात है। कुछ वर्षों पूर्व जब मै बर्मिंगहम मे अपने अम्बेडकरी मित्र देविंदर चंदर जी के यहा था तो उन्होंने पंजाब की एक बहुत पुरानी फोटो मुझे दिखाई। उस फोटो मे बाबा साहब अपने कहर के बाहर कुर्सी पर अपने घर के कपड़ों मे बैठे हैं और लगभग 25 लोग उनके साथ उस तस्वीर मे दिखाई देते हैं। ये लोग पंजाब और हरियाणा के रविदासी और वाल्मीकि समाज के लोग थे। याद रहे, बाबा साहब के साहित्य को सबसे पहले सँजोने वाले ऐडवोकेट
भगवान दास थे और सफाई कर्मी परिवार से आते थे हालांकि उनका पूरा जीवन बुद्धिज़्म और अम्बेडकरवाद को समर्पित था। उनके सबसे अच्छे मित्रों मे श्री एन जी उके
और
श्री अल आर बाली थे । तीनों मे जातियों की कभी कोई बात नहीं हुई क्योंकि अंबेडकर मिशन था और तीनों बौद्ध धम्म को समर्पित थे। मान्यवर कांशीराम के साथ भी दीनाभाना वाल्मीकि जी ने सहयोग किया और बहुजन आंदोलन का निर्माण किया।
ये बाते इसलिए कि अम्बेडकरी मिशन को बढ़ाना है तो दिलों को जोड़ना पड़ेगा। आपसी मतभेद को मिटाने के लिए लोगों की चिंताओ और आकांक्षाओ को अपमानित न करें। राजनीतिक दल और नेता अपने अपने हितों के अनुसार बात कर रहे हैं लेकिन साथ बैठ कर नए तरीकों से सोचकर आगे बढ़ने की जरूरत है। किसी समस्या का समाधान इस बात मे नहीं है कि आप उसे स्वीकार ही न करें अपितु उन समुदायों तक पहुँचने का प्रयास करें और उन्हे अपने साथ आगे बढ़ने का अवसर दे।
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